प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

शुक्रवार, 22 जून 2018

अंधविश्वास की दुनिया



॥6॥ सिक्के पर सिक्का

सुधा भार्गव






      यमुना पुल से रेलगाड़ी चीखती-चिल्लाती धड़-धड़ करती भागी जा रही थी। छब्बू ने खिड़की से नीचे झाँककर देखा-अरे बापरे, कितना गहरा पानी! अगर रेल के बोझ से पुल टूट गया तो-तो-  इससे आगे सोचने  से पहले ही उसने आँखें ज़ोर से मींच लीं और पुल से रेल के गुजरने का इंतजार करने लगा। 
      बूढ़ी दादी झंझोड़ते बोली- “शैतान! सोने का नाटक कर रहा है। ले ये सिक्का –जरा नदी में फेंक दे। यमुना माई तुझसे बड़ी खुश होगी।”
     “खुश करने से क्या होगा दादी!”
     “होगा क्या! अरे बहुत कुछ होगा। तू झट से सिक्का तो डाल।” दादी ने अपने बटुए से अलम्यूनियम का एक पैसा उसकी हथेली पर रखा।
     “मेरा पोता कोई सिक्का-पिक्का नहीं डालेगा। ” उसका फैला  हाथ अपनी ओर खींचते बाबा बोले।
     “तुम तो न खुद डालो  न किसी को डालने दो। अरे सिक्का डालने से पुण्य मिले है पुण्य।’’
     “तुमने सिक्का डाल लिया?”
     “हाँ—”
     “तो बहुत हो गया पुण्य। तुम्हारे पाप धुल गए तो समझ लूँगा हम सब के पाप धुल गए।”
     “बाबा डालने दो न! देखो सब पटापट डाल रहे हैं।”
     “सब गलती करें --- करें! तुझे नहीं करने दूंगा।” 
     “कैसी गलती जी--। यह तो परंपरा सीता मैया के समय से चलती आ रही है। राम-सीता चौदह बरस के बाद अयोध्या लौटे तो सीता ने सरयू नदी मेँ कई सिक्के डाले थे। अपनी बात भूल गए?शादी बाद हमें सासुजी मंदिर ले गई थीं, उनके कहने पर तुमने भी तो तालाब में दो सिक्के डाले थे।”
     “हाँ—हाँ अच्छी तरह याद है।  वे सिक्के तो पीतल-चाँदी  के थे। सीता मैया ने तो जरूर सोने के सिक्के डाले होंगे। अगर सोने-चाँदी के सिक्के दे तो अभी डाल दूँ।”
     “लो सुन लो –कहाँ से दे दूँ ! अब तो ताँबे –पीतल के सिक्के भी चलन मेँ न रहे ।”  
     “अपना बटुआ टटोलकर तो देख ---किसी कोने मेँ एक दो पुराने चाँदी के सिक्के जरूर आँखें बंद किए लोट लगा रहे होंगे।’’
     “क्या कहा! चांदी का दे दूँ । मालूम भी है चांदी का भाव! आसमान छू रहा  है आसमान! अब तो देखने को भी न मिले हैं।बालकों के लिए किसी तरह मैंने दो-चार बचा कर रखे हैं। वो यमुना मैया के भेंट कर दूँ! मेरा दिमाग----अभी इतना  खराब नहीं हुआ है।”
     “तब ये लोहे -अल्मूनियम के सिक्के नहीं चलेंगे-----इनको डालने से तो नुकसान ही नुकसान 
है । " 
     “पुल तो निकल गया --अब नफा हो या नुकसान!तुम्हारी जिद तो पूरी हो ही गई। अच्छा मैं भी तो सुनूँ---- एक सिक्का डालने से भला तुम्हारा क्या नुकसान होने वाला था।” दादी झुँझला उठी।
    “तुम्हें याद होगा हमारी शादी गाँव में हुई थी और वह गाँव नदी किनारे बसा था।”   
    “यह भी कोई भूलने की बात है!”
     “नदी कल कल बहती मन मोह लेती। उसी का मीठा पानी पीकर हम और हमारे जानवरों को जिंदगी मिली। उसके पानी से सिंचाई होने से खेत सोना उगलते। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली-।”बाबा का मन गाँव के इर्द-गिर्द मंडराने लगा।
     “हम भी तो नदी का बड़ा ध्यान रखते थे । आज की तरह कूड़ा-कचरा डालने की तो सोच ही न सके थे। उससे हमारा इतना भला होता तभी तो नदी को हमने हमेशा देवी ही की तरह पूजा। जब भी उसके किनारे से गुजरते सिक्का डाल सिर झुकाते। उसमें चमचमाते पीतल ताँबे और चांदी के सिक्के –आह कितने सुहाते थे। लेकिन सुबह होते ही वे न जाने कहाँ गुम हो जाते ।”   
     “दादी, कोई चोर ले जाता होगा।”
     “अरे बेटा वो चोर नहीं होते थे। गरीब बच्चे होते थे। रात के अंधेरे में पानी में उतर कर उन्हें बीनते और उनसे अपनी दाल-रोटी का इंतजाम करते।”
     “पर बाबा नदी में सब नहाते थे। गंदे पैर उसमें डुबकी लगाते होंगे—तब पानी तो गंदा हो गया। उसी गंदे पानी को सब पीते—छीं---छीं।”
     “बेटा नदी में आती जाती लहरें पानी को साफ करती है। उसकी सफाई के लिए ही चाँदी,ताँबे ,पीतल के सिक्के डाला करते थे। एक बार नदियों का पानी इतना दूषित हो गया कि नहाने धोने से लोग बीमार पड़ने लगे तब पानी को शुद्ध करने के लिए मुगल राजाओं ने नदियों, तालाबों में तांबे ,चाँदी के सिक्के डालने का हुकुम सुना दिया।’’  
     “बाबा,इनसे पानी साफ कैसे होता है?”
     “पानी की सतह में सिक्के कई दिनों तक पड़े रहने से उनका अंश पानी में घुल जाता है । इससे ये पानी को स्वच्छ कर कीटाणुओं को  मार डालते हैं ।साथ ही धातु मिला पानी पीने से शरीर स्वस्थ रहता है। मेरी माँ तो हमेशा चांदी के लोटे का ही पानी पीती थी  और मैं ताँबे के लोटे का पानी पीता हूँ।’’ 
     “तो फिर नदी में सिक्के डालने से आपने क्यों मना कर दिया?”
     बेटा,आज के सिक्के तो अलम्यूनियम,लोहे और स्टेनलेस स्टील से बने है जो पानी को जहरीला करने के सिवाय और कुछ नहीं करते। इन धातुओं का अंश शरीर में जाने से क़ैसर जैसी बीमारियाँ हो जाती है जिन्हें ठीक करना महा-- महा मुश्किल! लेकिन दुनिया तो अंधविश्वासियों से भरी पड़ी है जो नदी, तालाब ,झरने में सिक्का डालने से बाज नहीं आते। सच्चाई समझना ही नहीं चाहते। मेरी बात तुम तो समझ गए होगे।”
     “हाँ बाबा समझ गया और यह भी जान गया कि ताँबे-पीतल और चांदी के सिक्कों वाला पानी पीना भी मेरे लिए बहुत जरूरी है जिससे आपकी तरह खूब लंबा-तगड़ा हो जाऊँ। लेकिन सोच रहा हूँ ---हूँ—हूँ –।’’ दूसरे पल ही छब्बू भाग खड़ा हुआ।
“ओ नटखट—कहाँ भागा --तेरे दिमाग में जरूर कुछ चल रहा है --!”
     “आता हूँ आता हूँ--- बाबा।’’
     जल्दी ही वह अपने हाथ में बाबा वाला ताँबे का लोटा पकड़े आ गया।
     बाबा—बाबा ,अब से मैं इसका पानी पीया  करूंगा।’’
     अरे बड़ा तो हो जा –।अभी तो तू छोटा है। देख तो तुझसे लोटा पकड़ा भी नहीं जा रहा है। चल मेरे साथ। मैं तुझे बाजार से ताँबे का एक गिलास खरीद कर देता हूं।”
     “न न मैं तो तुम्हारा लोटा ही लूँगा।”
     “मेरे अच्छे बच्चे जब तू बड़ा हो जाएगा तब तुझे दे दूंगा।”  
     “पक्की बात !”
     “एकदम पक्की।”
     छब्बू खुशी-खुशी उछलता हुआ बाबा के साथ बाजार की ओर चल दिया।  
समाप्त