प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

बालकहानी


लंगूरे का अमरू 

सुधा भार्गव

प्रकाशित 
     


लंगूरे को फूलों का महकना,चिड़ियों का चहकना,जुगनू का चमकना बहुत अच्छा लगता था।   तितलियों का तो वह दीवाना था। एक दिन छोटी सी तितली को उसने फूल पर बैठे देखा। वह दबे पाँव उसे पकड़ने चला।
     मन ही मन वह मुस्कराई –अरे लंगूरे मुझे पकड़ना हंसी खेल नहीं। अभी मजा चखाती हूँ तुझे। वह बिना हिलेडुले चुपचाप बैठी रही । लंगूरे ने समझा- उसके आने की तितली को आहट ही नहीं मिली है। पर यह क्या -जैसे ही उसने हाथ बढ़ाया वह फुर्र से उड़ गई और  दूसरे फूल पर फुदककर जा बैठी। लंगूरा दूसरे फूल के पास गया तो वह तीसरे फूल पर कुदक गई। उसके पीछे भागते-भागते वह तो हाँफ  गया और  सुस्ताने को एक टीले पर जा बैठा। बोला- तितली तू  बहुत सुंदर है  पर शैतानी में कम नहीं।  मैं तेरे कोमल पंखों को छूना चाहता हूँ ,उन्हें सहलाना चाहता हूँ। पर तू, तू तो दूर--दूर उड़कर मुझे सताती है ।’’
      “मेरा नाम सितारा है। जिस तरह तू सितारों तक नहीं पहुँच सकता उसी तरह  मैं भी कोई तेरी पकड़ से बाहर हूँ।’’
     “ऐसा न कह प्यारी तितली! जब भी तू मेरे पास से गुजरती है  बेला -चमेली की खुशबू से मैं महक उठता हूँ। लगता है फूलों पर बैठते-बैठते उनकी सुगंध तुझ  में समा गई है। मेरी हथेली पर एकबार आकर बैठ तो—मैं तुझसे दोस्ती करना चाहता हूँ।”     
     “लंगूरे, मैं नहीं आ सकती। जिद न कर। मैं बहुत नाजुक हूँ। छूने से ही घायल हो जाऊँगी। जरा से झटके से मेरे सुंदर पंख टूटकर जा पड़ेंगे और दर्द से तड़प उठूँगी। क्या तू यह चाहेगा ?”
      “न—न -- मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अच्छा,तुझे उड़ता देखकर ही संतोष कर लूँगा।”
      “तू बहुत अच्छा है। जब भी पुकारेगा  चली आऊँगी और तेरे आसपास ही रहूँगी।”
      “अच्छा अब तू जा। सुबह से उधम मचा रही है । भूख भी लगी होगी।”
      “मैंने तो फूलों का रस  चूसकर अपनी भूख मिटा ली पर तू  जरूर भूखा  होगा।”
      “हाँ ,भूख तो लगी है।”
      कुछ खाने को मिल जाये यह सोचकर लंगूरा अपनी रसगुल्ले सी आँखें चारों तरफ घुमाने लगा। अमरूद का पेड़ देख उसकी आँखें चमक उठीं। वह उसके पास जा खड़ा हुआ।
     पेड़ की डालियाँ अमरूदों से झुकी पड़ती थीं। लंगूरे ने लंगूर की तरह उछलकर एक बड़ा सा अमरूद तोड़ लिया । पर वह हरा और सख्त निकाला। वह यह सोचकर घर ले जाने लगा कि  2-4 दिन में पक जाएगा तो उसे खा लूँगा।  इतने में तितली पंख फैलाये हवा में चक्कर लगाते बोली-“लंगूरे, अमरूद किसी काम का नहीं। फेंक दे इसे। यह कभी पकने वाला नहीं।”
     “क्या बात करती है सितारा। अमरूद जरूर पकेगा।”
     “तू इतना अच्छा है कि सबके लिए अच्छा ही अच्छा सोचता है। ले जा अपने साथ।  शायद तेरी अच्छाई का असर इसपर भी पड़ जाए। पीला और मीठा हो जाये।”
     कई दिन लंगूरे ने इंतजार किया पर वह पीले होने की बजाय काला पड़ता गया। वह गुस्से से भरा पार्क में गया। अमरूद को पेड़ की ओर उछालते बोला-ले अपना कल्लो अमरूद । यह मेरे किसी काम का नहीं। इस पत्थर को कौन खा सकता है?सितारा ने तेरे बारे में ठीक ही कहा था।”
     पेड़ उदास हो गया। आँखें भीग गईं।
    “अरे अमरू तू रो रहा है ?”लंगूरा पिघल पड़ा।
    “हाँ, मैं अपने किए पर पछता रहा हूँ।”
    “क्यों,ऐसा क्या किया तूने ?”
    “एक दिन था मेरे अमरूद बहुत मीठे होते थे।’’
    “फुंह--फूंह--फू --फू ।’’
   “अरे कौन ?सितारा!अच्छा हुआ तू भी आ गई।’’
    “फुंह--फूंह--फूई --फूई। मेरे बाबा भी ऐसा कहते थे। आगे क्या हुआ अमरू?’’
     “बच्चे मेरे चारों तरफ मँडराते रहते थे। छोटी- छोटी प्यारी चिड़ियाँ मुझे कुतर- कुतर खातीं ,अपना मीठा गाना सुनातीं। लेकिन शैतान बच्चों की उछलकूद मुझे जरा न सुहाती। उनके शोर -शराबे ने मेरी नींद चुरा ली। मेरे पीले पके अमरूद देख उनके मुंह में पानी भर आता। उन्हें तोड़ गिराने के लिए मुझ पर कंकड़-पत्थर से निशाना लगाते । इससे मुझे चोट लगती। एक दिन मैं चिंघाड़ पड़ता - भागो यहाँ से । अगर अब आए तो अक्ल ठिकाने लगा दूंगा । अगले  दिन से कुछ बच्चे तो डर कर नहीं आए और जो आए उन पर मैंने  कच्चे अमरूद गिराने शुरू कर दिये। उनकी सख्त मार से परेशान हो वे अमरूद खाना भूल गए और गिरते-पड़ते भागे।’’ 
    “फुई-- फुई --यह तो तूने बहुत बुरा किया।’’
    “उसका मुझे दंड भी मिल गया। !वे क्या गए मेरा भाग्य भी साथ ले गए।  तब से मेरे अमरूद पत्थर बन कर रह गए हैं। न वे पकते हैं और न उनमें मिठास पड़ती है। मैं ठूंठ सा खड़ा चिड़ियों के दो बोल सुनने को तरस रहा हूँ।तितलियाँ तक मुझसे रूठ गई हैं।  दूर- दूर तक आँखें इस इंतजार में आँखें बिछी रहती हैं कि शायद भूले भटके से  कोई बच्चा दीख जाए तो मैं उससे क्षमा मांग लूँ। लगता है मुझे कभी माफी नहीं मिलेगी। पेड़ फूट -फूट कर रोने लगा।”
    “ओह अमरू रो मत । अगर तेरे आंसुओं की बाढ़ में मैं बह गया तो तेरी मदद कौन करेगा!”
    अपनी परेशानी भूल अमरू हंस पड़ा। उसका हँसना सितारा को भी अच्छा लगा। उसे अमरू पर दया आने लगी। बोली-“लंगूरे,हमें अमरू के लिए कुछ करना है जिससे उसके पुराने दिन लौटकर आ जाएँ।”
    “हूँ--- मैं भी कुछ इस तरह से सोचता हूँ। कल मैं अमरू से मिलने आऊँगा । क्या तू  आ सकेगी?
     “क्यों नहीं!एक बार बुलाएगा तो सौ बार दौड़ी आऊँगी।”
     कल अकेली न भागी चली आना। अपने साथ अपनी रंगबिरंगी सहेलियों को भी लाना।”
    “क्यों? मैं अकेली क्या कम हूँ?”
    “तुम कम नहीं पर जहां चार का काम हो वहाँ एक से काम नहीं चलता। कल इसी समय अमरू के पास मेरा इंतजार करना। अच्छा अब मैं चलूँ।”
    अगले दिन अपने इर्द-गिर्द तितलियों के झुंड  देख अमरू अचरज से भर उठा। कुछ नरम -नरम घास पर अपने पंख फैलाये गुनगुनी धूप का आनंद ले रही थीं। कुछ हवा मेँ दौड़ लगा रही थीं तो कुछ मुंह से मुंह भिड़ाये हंसी -खिल्ली मेँ मस्त थीं। दूर से लग रहा था मानों हरी -भरी धरती पर मखमली चमकीले फूल खिल गए हों।
    इतने मेँ लंगूरा आन पहुंचा। उसने बाजार से खरीदे अमरूद अपने झोले से निकाले और अमरूद के पेड़  के नीचे छिटका दिये। अब दूसरा अचरज अमरू के सामने आन खड़ा हुआ। वह लंगूरे से कुछ पूछता उससे पहले ही वह वहाँ से रफा-दफा हो गया।
कुछ दूरी पर खड़े अपने साथियों से उसने अमरू के पास चलने का आग्रह किया। सिट्टू अड़ गया-
     “मैं अमरू के पास नहीं जाऊंगा । पिछली बार इसी ने मेरे सिर पर पत्थर से अमरूद गिराए था। अपने आप को न जाने क्या समझता है।’’
     “बड़ा घमंडी है --गुस्सा तो उसकी नाक पर रखा रहता है । मैं भी इसके पास जाने से रहा। पिट्टू भी बड़बड़ाया।  
     “पिट्टू-सिट्टू ,अब वह बुरा नहीं रहा। गौर से देखो—उसके नीचे अमरूद बिछे पड़े हैं। उसने हमारे लिए ही पके अमरूद टपकाए हैं। चलो इनको खाते हैं अब वह गुस्सा नहीं होगा।” लंगूरे ने उन्हें फुसलाने की कोशिश की।
     अमरूद शब्द सुनते ही उनके मुंह में पानी तो भर ही आया था। बोले- “अच्छा तेरी बात मान लेते हैं पर आगे आगे तू चल। जिससे अमरू पत्थर बरसाए तो सिर तेरा ही फूटे।  हम सब तो पीछे –पीछे ही चलेंगे।” सिट्टू बोला।
      “हाँ --हाँ बाबा, मेरे पीछे ही चलो पर चलो तो---।’’  
     जैसे ही तीनों दोस्तों ने  अमरू की ओर कदम बढ़ाए अमरू के अंग अंग में हरकत होने लगी। टहनियाँ अंगड़ाई ले उठ बैठीं। फूल महक पड़े। अमरूदों की रंगत पीली हो गई । बूढ़ा वृक्ष अब भीनी -भीनी सुगंध वाले अमरूदों से लदा जवान लग रहा था। बच्चों को देख वह खुशी से पागल हो गया । उन्हें अपनी बाहों मेँ लेने को आतुर हो उठा।  इस कशमकश मेँ उसके पके अमरूद फट-फट जमीन पर टपकने लगा । लंगूरे के साथियों ने बटोरे और अमरूद छककर खाये।
     यह बात गाँव मेँ बिजली की तरह फैल गई। अब बच्चे निधड़क उसके पास अमरूद खाने आने लगे । उनके शोरगुल में अमरू को मधुर संगीत के बोल सुनाई देते।  वह समझ गया था कि बच्चों के कारण ही उसके सुनहरे दिन लौटकर आए है। उसने अपना सारा जीवन नन्हें -मुन्ने मासूमों के नाम कर दिया।