प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

बालकहानी


गुरू का शत्रु  
सुधा भार्गव

       एक शिक्षक थे उनका नाम था आकाश--- ज्ञान का असीम भंडार । हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते रहते  और अपने ज्ञान के  भंडार को बढ़ाते रहते। जो जितना ले सकता था उसमें से उतना उसको बड़े प्यार से दे देते। जो अपना टिफिन भूल आता वह दौड़ा-दौड़ा इनके पास आता और ये अपने सब्जी -रोटी का उसे हिस्सेदार बनाकर बड़े खुश होते। पाठ न समझने पर कोई रोता आता तो एक बार नहीं चार बार समझाने को तैयार रहते । गुस्सा और झुंझलाहट तो उनसे कोसों दूर भागती थी।
       वे खाली समय में कहानी कविता लिखकर अपने रचना संसार में डूबे रहते । पढ़ाई  के बीच -बीच में बच्चों को कहानियाँ सुनाकर उन्हें गुदगुदा देते। वे हँसते हुए और मन से पढ़ाई करते। उनके छात्र और उनके बीच हमेशा प्यार का सागर लहरा रहता।
      शिक्षक तिवारी जी के पढ़ाए शिष्य बड़े हो गए और उनकी उम्र ढलने लगी। पढ़ाना तो बंद कर दिया पर कुछ न कुछ बच्चों के लिए लिखते रहते।
      एक दिन  एक युवक उनसे मिलने आया । वह कीमती सूट पहने हुए था ,हाथ में सोने की घड़ी बंधी थी । तिवारी जी अपने शिष्य को तुरंत पहचान गए । उसने श्रद्धा से अपने गुरू के पैर छूए । उसे यह देख बड़ा कष्ट हुआ कि दूसरों का ध्यान रखने वाला आज खुद से बेखबर है। बदरंग चारपाई,घिसी-पिटी चप्पलें,कपड़ों के नाम पर दो जोड़ी कपड़े खूंटी से लटकते देख उसकी आँखें भर आईं।
     “आपने अपनी विद्यता से मेरे जीवन में रोशनी ही रोशनी भर दी । अब मेरी  बारी है । मैं आपको इस हालत में यहाँ न रहने दूंगा।‘’ कहते-कहते युवक का गला भर्रा गया।
      “बेटा ,मैं अकेली जान ,मेरी  जरूरते भी कम हैं । मैं ठीक ही हूँ।“
     “पर आपको देखकर मैं ठीक नहीं हूँ। मेरा घर बहुत बड़ा है । वहाँ रहने से आपको कोई असुविधा नहीं होगी और आप निश्चिंत होकर कहानियाँ लिखिएगा। पहले आपसे मैं सुनता था ,अब मेरा बेटा सुनेगा ।“
     गुरू जी उसकी बात सुनकर गदगद हो गए और बोले –“मैं अवश्य तुम्हारे पास आऊँगा लेकिन उससे पहले मुझे अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेने दो ।’’
     “क्या आप जैसे सज्जनों के भी दुश्मन होते हैं ?”युवक ने आश्चर्य से पूछा ।
     “पता नहीं! पर मेरे हैं ।“ शिक्षक ने सहजता से कहा । युवक उनकी बात टाल न सका और अकेला ही घर लौट गया ।
      दो वर्षों के बाद अपने शिक्षक को दरवाजे पर खड़ा देख युवक के आनंद की सीमा नहीं रही । उसकी समझ में नहीं आ रहा था उनका कैसे आदर –सत्कार करे । उनकी एक कमरे में रहने की व्यवस्था की गई । युवक खुद बाजार गया और उनके लिए  कपड़े ,जूते ,चप्पल आदि खरीदकर उन्हें अलमारी में करीने से सजा दिया  । वैसे तो घर में नौकर-चाकर थे पर उसने अपनी पत्नी से विशेष आग्रह था किया कि भोजन अपने हाथ से ही गुरूजी को परोसे।  थाली में सब्जी –रोटी के अलावा नमकीन ,चटपटा ,चरपरा ,मिठाई सभी होती थीं पर गुरू जी दो सब्जी –दो रोटियाँ निकालकर सभी लौटा देते । इसी तरह कपड़ों के मामले में दो जोड़ी कपड़ों से गुजारा करते ।
     उनका यह रवैया देख युवक बेचैन हो उठा । उसने गुरू जी से पूछा –“क्या मेरी सेवा में कोई त्रुटि रह गई हैं?”
     “तुम्हें मालूम है कि मैं अपने शत्रु को जीतकर आया हूँ । उस दुश्मन का नाम है लालच । यदि मैं आराम दायक ज़िंदगी का आदी हो गया ,जीभ का गुलाम बन कर रह गया तो चिंतन -मनन नहीं कर पाऊँगा । मेरे कलम भी सुस्त पड़ जाएगी।  अपनी मंजिल पाने के लिए सादा जीवन जरूरी हैं ।’’
     “तब गुरू जी सुख –सुविधाओं का उपयोग करके क्या मैं गलती कर रहा हूँ ?”युवक व्याकुल हो उठा ।
     “पुत्र ,तुम्हारा उद्देश्य है गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए दूसरों की सुविधाओं का ध्यान रखना । यह कर्तव्य तुम अच्छी तरह निभा रहे हो । सबके जीवन के लक्ष्य अलग –अलग होते हैं । उनको पाने कि लिए उसी के अनुसार जीवन बिताना होता है। ’’
      आकाश गुरू के सामने नतमस्तक हो गया और उसने निश्चय किया कि वह उन्हें कहीं नहीं जाने देगा। अपने गुरू से आजन्म कुछ न कुछ सीखता रहेगा।

प्रकाशित -  बालवाटिका -सितंबर अंक   

शनिवार, 17 अगस्त 2019

बालकहानी



  केवटिया की कुदान
     सुधा भार्गव 
देवपुत्र अंक जुलाई 2019 में प्रकाशित 


       पानी बरसने से जंगल की मिट्टी भी खुशबू से भर गई थी। हरे –भरे पेड़ पर बैठे तोता -तोती खुशी से चहक रहे थे। उनका एक नाजुक सा बच्चा भी था जिसकी लाल चोंच बड़ी सुंदर थी। तोती ने उसे अपने पंखों से ढक रखा था ताकि लाडले को बरसाती हवा न लग जाए।   
       उस पेड़ के नीचे एक सांप का बिल था । उसमें पानी भर जाने से साँप का दम घुटने लगा । वह बिल से बाहर निकल आया और उस पेड़ पर चढ़ गया जहां तोता -तोती अपने बच्चे के साथ बड़े प्रेम से बैठे थे। साँप का स्वभाव बड़ा ही  खराब था । वह हमेशा दूसरों को तंग करने में लगा रहता। उनको  देख उसकी आँखों में चमक आ गई –आह ! बिना मेहनत के ही भोजन मिल गया। तीनों को एक बार में ही दबोच लूँगा।  तोता-तोती तो उसे देख तुरंत उड़कर दूसरे पेड़ की डाल पर बैठ गए।   पर नन्हा तोतू उड़ न पाया। उसके पंख तो ठीक से निकले भी न थे। साँप धीरे-धीरे उसकी ओर बढ्ने लगा और मासूम को दबोच लिया। वह उसकी मजबूत पकड़ से छुटकारा पाने के लिए छटपटाने लगा। तोता-तोती यह देख रोने लगे।
     “टें—टें—साँप भैया,तोतू ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है !उसे छोड़ दो।” तोती गिड़गिड़ाई ।
      “क्यों छोड़ दू अपने शिकार को! यह क्या कम है कि तुमको छोड़ दिया। ज्यादा चबड़ -चबड़ की तो एक ही छलांग में तुम्हारे पास पहुँचकर मिनटों में मसल दूंगा।”
      साँप की जहरीली बातें सुनकर बहुत से स्त्री –पुरुष ,लड़के –लड़कियां  उस पेड़ के नीचे जमा हो गए पर किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि नाग को भगा सके। वे तो डर के गुलाम थे कि कहीं  साँप उन्हें ही न डस ले।
      इतने में करीब दस बारह साल का केवटिया भागता आया और तेजी से पेड़ पर चढ़ने लगा। उसे देख लोग सकपका गए –इतनी कम उम्र और इतना साहस!
      “बेटा, तोते  के बच्चे को बचाने के लिए अपनी जान क्यों खोना चाहता हो? साँप बड़ा खतरनाक होता है। अगर उसने तुम्हें काट लिया तो बच न पाओगे।” एक आदमी ने उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा।
      “काका! देखो---देखो ----ऊपर देखो! दूसरे पेड़ पर बैठे तोता- तोती की आँखें कैसी गीली है।जरूर इसके माँ -बापू होंगे। ठीक मेरी  माँ की तरह दुखी हैं। जरा सा मुझे बुखार होने पर वह भी तो टप—टप आँसू बहाने लगती है।”
       काका का हाथ झटक वह तो पेड़ पर वो चढ़ा ---वो चढ़ा और फुर्ती से साँप के मुँह से छोटे तोतू को खींच लिया। तोता -तोती तो  टें---टें कर खुशी से पंख फड़फड़ाने लगे। नीचे खड़े बच्चों ने भी तालियाँ बजाकर उनका साथ दिया । साँप इस बात के लिए तैयार न था कि उसके मुँह से उसका भोजन छीन लिया जाय । वह गुस्से से पागल हो गया। बालक को डसने के लिए अपने विष भरा  फन लहरा दिया। पर केवटिया भी  कम चुस्त न था।  तोतू को लेकर उससे पहले ही वह पेड़ से नीचे लंबी कुदान लगा बैठा । उसके घुटने छिल गए ,जगह जगह खून रिसने लगा पर तोतू को सुरक्षित देख विजयी मुस्कान उसके चेहरे पर छा गई।
समाप्त  




रविवार, 12 मई 2019

बाल कहानी



एक कमी है

सुधा भार्गव



मुझे     अपनी एक फोटो दे दो।”
   “क्यों मेरी लाडो!”
   “स्कूल जाने पर मुझे आपकी बहुत याद आती है। जब भी आपके बारे में सोचूँगी ,झट से फोटो देखूँगी।”
   “अभी तो मेरे पास अच्छी फोटो नहीं है।”
   “कैसी भी दे दो। होगी तो मेरी दादी माँ की ही। आप बैठी रहो। मुझे बता दो कहाँ रखी है?मैं ले आऊँगी।”  
   “देख,सामने की अलमारी में नीचे के रैक में मेरी अल्बम रखी है। उसे ले आ।”
   छ्टंकी को कहाँ इतना सब्र!उसने अल्बम से खुद ही एक फोटो निकाल ली।देखते ही चिहुँक पड़ी-“इसमें तो अम्मा आपके बाल बड़े लंबे हैं। बहुत स्मार्ट लग रही हो। मैं इसे अपनी सहेलियों को दिखाऊँगी। और हाँ,जब मैं कल स्कूल से लौटूँ तो मुझे जरूर लेने आना ।”
   “क्यों रानी जी,कल कोई खास बात है?”
    “किसी की दादी माँ पैंट नहीं पहनती। जब मैं रोनी-मोनी से बताती हूँ तो विश्वास ही नहीं करतीं। कल वे अपनी आँखों से देख लेंगी।”
   दादी हंसी से फट पड़ी। उन्हें अपनी उम्र 10 वर्ष कम लग रही थी।
    पायल सी झनकती बोलीं-“तेरी बात भला मैं कैसे टाल सकती हूँ।”
    “ओह मेरी लवली दादी!मैं आपको सबसे ज्यादा प्यार करती हूँ।आप सबसे ज्यादा किसे प्यार करती हो?”
    “अपनी छुटकी छटंकी को।” दादी ने स्नेह से उसके रुई से मुलायम गालों को छुआ। पुलकित हो उन्होंने कुछ देर को आँखें बंद कर लीं।उनमें एक भोली बालिका कैद थी।
    “इसीलिए तो मैं पापा के साथ इंग्लैंड नहीं जाना चाहती।”
    “वहाँ तो तुम्हें देखने को चमचमाती नई दुनिया देखने को मिलेगी। भला क्यों नहीं जाओगी?”
   “आप तो एकदम बच्ची हो।छोटी सी बात नहीं समझ नहीं पा रहीं। वहाँ आप नहीं होंगी,तो बातें किससे करूंगी।’’
   “रानी एलिज़ाबेथ से ’’---।दादी ने ठिठोली की।
    “आप तो बस ---सब समय मज़ाक। मैं इस समय बहुत सीरिअस हूँ।’’
   “इन्टरनेट से बातें कर लेंगे।’’
“प्रोमिज’’-नन्हा सा हाथ बढ़ा।
“प्रोमिज’’ –बड़ा सा हाथ भी बढ़ा और हाथ से हाथ मिल गया।
    कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन पसर गया। अचानक छटंकी ने अपना एक हाथ मुंह पर रखा। दूसरे हाथ के सहारे अपनी दादी के पास और खिसक आई। “अम्मा,एक बात कहूँ,किसी से कहना मत। जरा अपना कान लाओ।”
    आज्ञाकारी बच्चे की तरह दादी ने अपना कान बढ़ा दिया।
   छुटकी ने इधर-उधर नजर डाली—“कोई उसकी बात तो नहीं सुन रहा। फिर धीरे से अपना मुंह कान के पास लाई। फुसफुसाते हुए बोली-“पापा बहुत बुरे हैं।”
   “ऐ---क्या  कह रही है!” दादी अम्मा को करंट सा लगा।उन्होंने कभी सोचा भी न था कि छुटकी अपने पापा के बारे में ऐसा सोचेगी।
   “ठीक ही कह रही हूँ। आपने जो मुझे गुड्डा दिलाया था,पापा कह रहे थे—उसे इंग्लैंड नहीं ले जाएँगे।”
   “तो क्या हुआ !वह वहाँ दूसरा खरीद देगा।”
   “मैं उसे छोड़कर नहीं जाऊँगी । वह आपका दिया हुआ है। आपकी दी हर चीज उतनी ही प्यारी है जितनी आप।”
   “और लोग भी तो तुम्हें नई-नई-चीजें देते हैं। मैं ही तो नहीं देती।”
   “आपकी बात कुछ और ही है। मामा-मम्मी,जूते,टी शर्ट,स्कर्ट खरीदते हैं। दीदी उन्हें पहले पहनती है,फिर मुझे मिलते हैं। मैं अब बड़ी हो गई हूँ—पुराना क्यों पहनूँ!बस गुड्डा ,नीली आँखों वाला नया-नया है। वह तो अच्छा है कि दीदी को गुड़िया खेलने का शौक नहीं। वरना गुड्डा भी छिन जाता।” एक विजयी मुस्कान उसके चेहरे पर खेल रही थी।
    “भोले बच्चे ,तुम दोनों ही उससे खेल सकते हो।”
   “खेलना दूसरी बात है। वह तो रौब जमाने लगती है। कुछ भी हो गुड्डा तो मैं इंग्लैंड लेकर ही जाऊँगी। और--- किसी को छूने नहीं दूँगी।” उसकी आवाज में सूरज की सी गर्मी थी।
   “यह कितने साल का है अम्मा?”
    “होगा एक साल का। मेरे पास छोटे –छोटे स्वटर बने रखे हैं। उन्हें वह  पहन लेगा।”
   “गुड्डे के इतनी जल्दी स्वटर बुन दिए! मेरी अम्मा बहुत चतुर है। आपको तो मालूम है इंग्लैंड में ब  हुत सर्दी पड़ती है। अब इसे ठंड भी नहीं लगेगी।”
    उसने खुशी में डूबकर गुड्डे को चूम लिया। “देखा मेरे गुड्डे ,तेरे स्वटर भी तैयार हैं।”
    “पोती-अम्मा की क्या गुटर-गूं हो रही है।मैंने सब सुन लिया है। बस यह गुड्डा नहीं जाएगा,इसका टिकट लगेगा।” छटंकी को छेड़ते हुए उसके पापा बोले।
    “बेटा इसे मत सता,छ्टंकी इसे गोदी में ले जाएगी। पिछली बार मैंने लंदन के  हिथ्रो एयरपोर्ट पर देखा था छोटी –छोटी फूल सी बच्चियों को। एक कंधे पर उनके बैग झूल रहा था। उसमें उनका टिफिन और पानी की बोतल  थी,दूसरे हाथ में अपनी गुड़िया पकड़ रखी थी।” शायद छटंकी के पापा को माँ की बात पसंद आ गई। मुस्कान बिखेरते हुये कंप्यूटर में व्यस्त हो गए।
    गुड्डा था भी बड़ा प्यारा।रेशम से सर के बाल,गोरा -गोरा नीली आँखों वाला हँसता चेहरा। जो उसे देखता गोदी में लेने को लालायित हो उठता।
    भारत से गुड्डा लंदन पहुंच गया । छटंकी को अम्मा  के बिना चैन कहाँ! दूसरे ही दिन फोन खटखटा दिया –“अम्मा मेरा गुड्डा यहाँ सबको बहुत पसंद आया। उसको गोद में ले-लेकर देख रहे थे। मुझे तो डर लगने लगा,कोई उसे लेकर  भाग न जाए।
    एक लड़के ने पूछा-“कहाँ से खरीदा है?
    मैंने कहा-“भारत से। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। अम्मा उसे आश्चर्य क्यों हुआ?”
    “इसलिए कि वह कभी सोच ही नहीं सकता था कि हमारे देश में इतनी सुंदर चीजें बनती हैं। ये खिलौने विदेशों में खूब बिकते हैं। कुछ ही दिनों में हमारा देश मालामाल हो जाएगा।”
    “मेरे पास भी बहुत पैसा हो जाएगा क्या?”
    “हाँ!
    “तब तो रोज आपको हवाई जहाज से यहाँ बुलाऊंगी। आप आओगी न—। ”
    “हाँ बाबा,रोज आऊँगी। तुम्हें तो वहाँ बहुत अच्छा लग रहा होगा। साफ सड़कें,ऊँचे-ऊँचे घर,खाने को चॉकलेट,आइसक्रीम और केक।”
   “बस एक कमी है।”
   “किसकी?”
   “आपकी।”
    यह  सुनकर  दादी माँ का मन भर आया और वे प्रेम की बारिश में न जाने कब तक भीगती रहीं।
समाप्त
       प्रकाशित 






गुरुवार, 2 मई 2019

बालकहानी



गरीबों का फ्रिज

सुधा भार्गव  

   




      गूलर बहुत दिनों के बाद अपने चाचा से मिलने आया ।  उसके चाचा भारत के एक गाँव में रहते थे। आते ही उसने नाक भौं सकोड़ना शुरू कर दिया। धूलभरी सड़कें,उसमें खेलते बच्चे,सड़क पर दौड़ती बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी सब कुछ उसे बड़ा अजीब लगता। 
      असल में वह तो विदेश से आना ही नहीं चाहता था। एक दिन उसके पापा ने समझाया-“बेटा अपना देश अपना ही देश होता है चाहे कैसा भी हो। और बिना वहाँ गए उसके बारे में कैसे अच्छी तरह जानोगे?”
      
      पापा के तर्क के आगे उसे घुटने टेकने पड़े । मनमसोसे भारत चला आया।
      गर्मी के दिन, सूर्य के ताप से धरती जली जा रही थी। झुलसाने वाले लू के थपेड़े अलग। गाँव वालों को  ऐसे बिगड़े मौसम को सहने की आदत थी पर गूलर पसीने की भरमार से परेशान ।
     उसे यह देख बड़ा ताज्जुब हुआ कि इतनी भयानक गर्मी में भी आधे से ज्यादा गाँव उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा है। 
    उसका चचेरा भाई बिरजू स्नेह से बोला –“भैया लो नींबू की मीठी मीठी शिकंजी पी लो।’’
     “ओह मुझे नहीं पीना ।हटाओ इसे मेरे सामने से।  मैं फ्रिज में रखा ठंडा शर्बत पीता हूँ।’’
      बिरजू का खिला चेहरा बुझ सा गया।
  
      घर में घुसते ही गूलर की नजर आँगन में रखी लकड़ी के एक पटरे पर पड़ी । वह उछल पड़ा –“अरे इस पर ये जानवर से कौन बैठे हैं?”
    
     “गूलर भाई, इससे मिलो—यह है मिट्टी का बना मटका राजा और इसके पास बैठी है सुराही। मैं इन्हें मटकू भैया और सुर्री बहन कहता हूँ। इनका ठंडा और मीठा पानी पीकर तबीयत खुश हो जाएगी।’’
      “ऊँह, मिट्टी के बने मटके का पानी तो मैं कभी नहीं पीऊँगा । पेट में पानी के साथ मिट्टी चली गई तो बीमार जरूर हो जाऊंगा।तुम्हारे यहाँ फ्रिज नहीं है क्या? ’’
   
     “है क्यों नहीं ---अंदर है रसोई में।’’
      गूलर पानी लेने रसोई की तरफ मुड़ गया। सुर्री मटकते हुए बोली-“पी ले भैया पी ले बर्फ सा पानी। कुछ ही देर बाद तेरा गला न चिल्लाया-- –हाय दइया-मेरा गला पकड़ लिया-- हाय दइया—दर्द !तो मेरा नाम सुर्री  नहीं।’’
     गूलर ने फ्रिज से एकदम ठंडी पानी की बोतल निकाली और एक ही सांस में उसे खाली कर दिया। 
     शाम को सब खाना खाने बैठे। बिरजू के पिताजी ने नोट किया कि गूलर खाना खाते समय बीच बीच में बुरा सा मुंह बना रहा है। वे पूछ बैठे –“बेटा खाना पसंद नहीं आया क्या ?”

     “ताऊ जी मेरे गले में फांस सी अटक रही है।रोटी का टुकड़ा निगलते समय दर्द होता है।’’
  
     “बेटा, इसका पानी पीने से तुम्हारा गला खराब नहीं होता।इसका पानी उतना ही ठंडा होता है जितना शरीर को जरूरत होती है। इससे न गला खराब होता है और न ही लू लगती है। इसके अलावा फ्रिज का पानी पचाने में घड़े के पानी से दुगुना समय लगता है। पेट पर ज़ोर पड़ने से इसी कारण कब्ज हो जाता है।’’ 
     “लेकिन ताऊ जी मटकू का पानी ठंडा कैसे हो जाता है। यह तो खिड़की के सहारे गरम हवा में रखा है।’’
    “यही तो मटकू के शरीर का कमाल है। यह मिट्टी से बना है और इसकी दीवारों में बड़े ही छोटे-छोटे हजारों छेद होते हैं जो आँखों से दिखाई नहीं देते। उनसे हमेशा पानी रिसता रहता है जिससे  इसकी सतह गीली सी  रहती है।
    “मुझे तो नीचे से गीला नजर नहीं आ रहा।”
     “नजर कैसे आए !इसका  गीलेपन में समाया पानी का अंश तो भाप बनकर उड़ता रहता है उससे सतह ठंडी रहती है।’’
     “ओह अब समझा –इस ठंडी सतह से ही अंदर का पानी भी ठंडा हो जाता है।’’ गूलर मटकू के इस कमाल पर हैरान था।
      अगले दिन गूलर मटके के पास जाकर खड़ा हो गया। बोला-"ताऊ जी तो तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहे थे। वे बता रहे थे तुम्हारी दीवार में छिद्र होते हैं उन्हें देखने चला आया। पर देखूँ कैसे ?तुमने तो अपने चारों तरफ गीला कपड़ा लपेट रखा है।’’
     “हाँ ,गीले कपड़े से पानी बहुत जल्दी ठंडा होता हैं। वैसे कपड़ा हटा भी दूँ तो तुम उन्हें बिना दुरबीन के देख नहीं पाओगे।’’
      “देख नहीं सकता मगर तुमसे दोस्ती तो कर सकता हूँ!’’
      “क्यों नहीं ?’’
      “क्या गिलास भरकर तुम्हारा ठंडा पानी पी सकता हूँ?”
      “क्यों नहीं पी सकते ?” 
     पानी पीकर वह बोला-“तुम्हारा पानी तो बड़ा मीठा है। मैं जहां रहता हूँ  वहाँ की मिट्टी में तुम्हारा जैसा फ्रिज नहीं हैं।  तुम्हारा पानी पीने के लिए लगता है जल्दी- जल्दी आना पड़ेगा।‘’
      “अरे वाह! अब तो मैं गरीबों का ही नहीं विदेशी बाबू का भी फ्रिज बन जाऊंगा।” 
      “विदेशी नहीं देशी बाबू कहो!”
      “आखिर रंग ही गए हमारे रंग में हा—हा—हा—।” मटकू के साथ  गूलर भी खिलखिला उठा।

समाप्त


बुधवार, 20 मार्च 2019

बालकहानी





जादुई मटका 

सुधा भार्गव
      
गर्मी की छुट्टियाँ –सोने चांदी से दिन । कोई समुद्र देखने गया तो कोई पहाड़ी जगह। कोई प्यारी नानी के घर उतरा तो कोई दादी माँ के आँगन में चहका। देखते ही देखते बच्चों के हाथ से छुट्टियाँ रेत की तरह सरक गईं।काफी समय के बाद उमंग से भरे बच्चों ने स्कूल में प्रवेश किया।
       प्रधानाचार्य बड़ी कुशलता से अनुशासन की डोर पकड़े हुए थी। कुछ शिक्षक- शिक्षिकाएँ प्रार्थना सभा की ओर बढ़ चुके थे। पर कुछ ऐसी भी थी जो थकान चेहरे लिए बड़ी धीमी गति से पैर बढ़ा रही थी। उनको बच्चे सिर दर्द लग रहे थे। जलपान की घंटी बजते ही सब अपनी क्लास छोड़  चाय की चुसकियाँ लेने स्टाफ रूम की ओर बढ़ गई। एक शैला मैडम ही थीं जो बच्चों के मध्य बैठी उनके सैर सपाटों का आनंद ले रही थीं। छुट्टियों की यादों से बच्चों की  जेबें भरी हुई थीं वे उन्हे खाली करना चाहते थे। सो मासूमों की बातों का अंत न था।खिलंदड़ी बच्चा भी शांत भाव से टिफिन खाता हुआ दूसरों की बातें सुन रहा था। मैडम बड़े धैर्य से सुनती हुई उनको खेल खेल में शिक्षाप्रद बातें भी बताती जा रही थी। उनकी शिक्षण प्रणाली की सभी तारीफ करते थे। वर्ष का सबसे अच्छा लड़का उन्हीं की कक्षा से चुना जाता था। लेकिन उनकी इस सफलता को देख कुछ के सीने में  ईर्ष्या की आग जलती। वे उसे घमंडी और नकचढ़ी समझतीं और हमेशा उसे नीचा दिखाने की कोशिश में रहतीं। समझ न पातीं कि तीन तीन बच्चों की पढ़ाई,घर का पूरा काम –फिर भी स्कूल के काम में इतनी कुशल –यह सब शैला कैसे कर लेती है।
       एक दिन अपने बेटे के जनेऊ संस्कार के अवसर पर शैला ने विद्यालय की साथिनों को अपने घर छोटी सी दावत पर बुलाया। उनको अपनी उलझन को सुलझाने का मौका मिल गया। शाम होते होते वे शैला के घर जा पहुंची। चमचमाते उपहार –मुबारकबाद जैसे शब्दों की गूंज सुनाई देने लगी। खानपान और क़हक़हों का दौर रुका तो साथिन मिताली ने पूछ ही लिया-शैला ,एक बात बताओ-तुम एक दिन में सारे काम कैसे कर लेती हो।तुम इतना व्यस्त रहती हो फिर भी  तुम्हारा कोई काम हमने अधूरा न देखा न सुना।
     “हाँ शैला तुम्हें बताना ही पड़ेगा कि तुम्हारी सफलता का रहस्य क्या है। जरूर तुम कोई जादू जानती हो।ममता भी चुप न रह सकी।“
     शैला मुस्कराई और बड़ी आत्मीयता से अपनी साथिन का हाथ पकड़ते हुए बोली-“बहन ,मैं तो जादू नहीं जानती पर मेरे पास एक जादुई मटका जरूर है। यह देखो-- कोने में बैठा- बैठा ड्राइंग रूम की हमेशा शोभा बढ़ता रहता है।”
     सब एक साथ मटके में झाँकने खड़ी हो गई।
     “अरे इसमें तो ईंट-पत्थर भरे हैं।”
     “उनके ऊपर दो मोती भी आलती -पालती मारे बैठे है।”
      “इसमें तो छोटे - छोटे कंकड़ बालू मे लिपटे सोए लगते है।इसमें जादू की क्या बात है?” 
     “उफ!मेरी  तो कुछ समझ में नहीं आया,जरा समझा कर बोलो। एक मिनट को समझ लो हम तुम्हारी छात्राएँ हैं और तुम हमारी क्लास ले रही हो।”
    इस बार शैला कुछ गंभीर हो गई और बोली-“यदि हम छोटे छोटे कामों में अपना समय बिता दें तो जीवन के महत्वपूर्ण काम कभी कर ही न पाएंगे।”
      “लेकिन छोटे छोटे काम तो करने ही पड़ते हैं।”
     “हाँ उनको मैं भी करती हूँ । बच्चों के साथ खेलना कूदना ,खाना बनाना,सफाई,दवा दारू । लेकिन जीवन का एक लक्ष्य भी होना चाहिए । उसे निर्धारित कर धीरे धीरे उसकी ओर बढ़ना चाहिए। मैं सुबह उठते ही हीरे मोती की तरह अमूल्य कार्यों को करके इस मटके  में डाल देती हूँ। उसके बाद पत्थर समान कम जरूरी काम करने शुरू कर देती हूँ। उनकी समाप्ति पर उन्हें भी इस मटके में डाल देती हूँ और घड़े को अच्छी तरह हिलाती हूँ ताकि सब हिलमिल जाएँ पर आश्चर्य –महत्वपूर्ण कार्य आभायुक्त ही नजर आते हैं। तदुपरान्त बालू समान कार्यों को भी निबटाकर इसी के अंदर धीरे से खिसका देती हूँ। ये काम  तलहटी में ही समा जाते हैं। मुझे कभी ऊपर दिखाई ही नहीं देते। ।मेरे कहने का मतलब है कि साधारण कामों की कीमत रेत समान ही होती है। उन पर पूरा समय गंवाना बुद्धिमानी नहीं।”
    “तुम तो शैल वाकई में बहुत व्यस्त रहती हो।”
     “हाँ रहती तो हूँ पर इतना भी नहीं जितना तुम समझ रही हो। मटके के पास जो मेज रखी है उस पर तुम दो चाय के प्याले देख रही हो न !”
    “हाँ है तो ----पर वे क्यों रख छोड़े हैं?”
    “इसलिए कि दौड़ धूप की जिंदगी में अपने दोस्तों के लिए मेरे दिल में जगह हमेशा खाली है। उनके साथ एक एक चाय  का प्याला तो पी ही सकती हूँ। अब बस बहुत हो गईं बातें । एक एक गरम चाय का प्याला और हो जाय। हम सब प्यार का धुआँ उड़ाते उसकी चुसकियाँ लेंगे।”
     शैला चाय का प्रबंध करने रसोईघर की ओर चली गई। बहुत सी आँखें उसका पीछा कर रही थीं जिनमें केवल प्रशंसा का भाव था। उसके प्रति उनकी सारी शिकायतें दफन हो चुकी थी।

प्रकाशित –हिन्दी साप्ताहिक समय किरण
सलूम्बर ,दिसंबर 2015


सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

बालकहानी


लंगूरे का अमरू 

सुधा भार्गव

प्रकाशित 
     


लंगूरे को फूलों का महकना,चिड़ियों का चहकना,जुगनू का चमकना बहुत अच्छा लगता था।   तितलियों का तो वह दीवाना था। एक दिन छोटी सी तितली को उसने फूल पर बैठे देखा। वह दबे पाँव उसे पकड़ने चला।
     मन ही मन वह मुस्कराई –अरे लंगूरे मुझे पकड़ना हंसी खेल नहीं। अभी मजा चखाती हूँ तुझे। वह बिना हिलेडुले चुपचाप बैठी रही । लंगूरे ने समझा- उसके आने की तितली को आहट ही नहीं मिली है। पर यह क्या -जैसे ही उसने हाथ बढ़ाया वह फुर्र से उड़ गई और  दूसरे फूल पर फुदककर जा बैठी। लंगूरा दूसरे फूल के पास गया तो वह तीसरे फूल पर कुदक गई। उसके पीछे भागते-भागते वह तो हाँफ  गया और  सुस्ताने को एक टीले पर जा बैठा। बोला- तितली तू  बहुत सुंदर है  पर शैतानी में कम नहीं।  मैं तेरे कोमल पंखों को छूना चाहता हूँ ,उन्हें सहलाना चाहता हूँ। पर तू, तू तो दूर--दूर उड़कर मुझे सताती है ।’’
      “मेरा नाम सितारा है। जिस तरह तू सितारों तक नहीं पहुँच सकता उसी तरह  मैं भी कोई तेरी पकड़ से बाहर हूँ।’’
     “ऐसा न कह प्यारी तितली! जब भी तू मेरे पास से गुजरती है  बेला -चमेली की खुशबू से मैं महक उठता हूँ। लगता है फूलों पर बैठते-बैठते उनकी सुगंध तुझ  में समा गई है। मेरी हथेली पर एकबार आकर बैठ तो—मैं तुझसे दोस्ती करना चाहता हूँ।”     
     “लंगूरे, मैं नहीं आ सकती। जिद न कर। मैं बहुत नाजुक हूँ। छूने से ही घायल हो जाऊँगी। जरा से झटके से मेरे सुंदर पंख टूटकर जा पड़ेंगे और दर्द से तड़प उठूँगी। क्या तू यह चाहेगा ?”
      “न—न -- मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। अच्छा,तुझे उड़ता देखकर ही संतोष कर लूँगा।”
      “तू बहुत अच्छा है। जब भी पुकारेगा  चली आऊँगी और तेरे आसपास ही रहूँगी।”
      “अच्छा अब तू जा। सुबह से उधम मचा रही है । भूख भी लगी होगी।”
      “मैंने तो फूलों का रस  चूसकर अपनी भूख मिटा ली पर तू  जरूर भूखा  होगा।”
      “हाँ ,भूख तो लगी है।”
      कुछ खाने को मिल जाये यह सोचकर लंगूरा अपनी रसगुल्ले सी आँखें चारों तरफ घुमाने लगा। अमरूद का पेड़ देख उसकी आँखें चमक उठीं। वह उसके पास जा खड़ा हुआ।
     पेड़ की डालियाँ अमरूदों से झुकी पड़ती थीं। लंगूरे ने लंगूर की तरह उछलकर एक बड़ा सा अमरूद तोड़ लिया । पर वह हरा और सख्त निकाला। वह यह सोचकर घर ले जाने लगा कि  2-4 दिन में पक जाएगा तो उसे खा लूँगा।  इतने में तितली पंख फैलाये हवा में चक्कर लगाते बोली-“लंगूरे, अमरूद किसी काम का नहीं। फेंक दे इसे। यह कभी पकने वाला नहीं।”
     “क्या बात करती है सितारा। अमरूद जरूर पकेगा।”
     “तू इतना अच्छा है कि सबके लिए अच्छा ही अच्छा सोचता है। ले जा अपने साथ।  शायद तेरी अच्छाई का असर इसपर भी पड़ जाए। पीला और मीठा हो जाये।”
     कई दिन लंगूरे ने इंतजार किया पर वह पीले होने की बजाय काला पड़ता गया। वह गुस्से से भरा पार्क में गया। अमरूद को पेड़ की ओर उछालते बोला-ले अपना कल्लो अमरूद । यह मेरे किसी काम का नहीं। इस पत्थर को कौन खा सकता है?सितारा ने तेरे बारे में ठीक ही कहा था।”
     पेड़ उदास हो गया। आँखें भीग गईं।
    “अरे अमरू तू रो रहा है ?”लंगूरा पिघल पड़ा।
    “हाँ, मैं अपने किए पर पछता रहा हूँ।”
    “क्यों,ऐसा क्या किया तूने ?”
    “एक दिन था मेरे अमरूद बहुत मीठे होते थे।’’
    “फुंह--फूंह--फू --फू ।’’
   “अरे कौन ?सितारा!अच्छा हुआ तू भी आ गई।’’
    “फुंह--फूंह--फूई --फूई। मेरे बाबा भी ऐसा कहते थे। आगे क्या हुआ अमरू?’’
     “बच्चे मेरे चारों तरफ मँडराते रहते थे। छोटी- छोटी प्यारी चिड़ियाँ मुझे कुतर- कुतर खातीं ,अपना मीठा गाना सुनातीं। लेकिन शैतान बच्चों की उछलकूद मुझे जरा न सुहाती। उनके शोर -शराबे ने मेरी नींद चुरा ली। मेरे पीले पके अमरूद देख उनके मुंह में पानी भर आता। उन्हें तोड़ गिराने के लिए मुझ पर कंकड़-पत्थर से निशाना लगाते । इससे मुझे चोट लगती। एक दिन मैं चिंघाड़ पड़ता - भागो यहाँ से । अगर अब आए तो अक्ल ठिकाने लगा दूंगा । अगले  दिन से कुछ बच्चे तो डर कर नहीं आए और जो आए उन पर मैंने  कच्चे अमरूद गिराने शुरू कर दिये। उनकी सख्त मार से परेशान हो वे अमरूद खाना भूल गए और गिरते-पड़ते भागे।’’ 
    “फुई-- फुई --यह तो तूने बहुत बुरा किया।’’
    “उसका मुझे दंड भी मिल गया। !वे क्या गए मेरा भाग्य भी साथ ले गए।  तब से मेरे अमरूद पत्थर बन कर रह गए हैं। न वे पकते हैं और न उनमें मिठास पड़ती है। मैं ठूंठ सा खड़ा चिड़ियों के दो बोल सुनने को तरस रहा हूँ।तितलियाँ तक मुझसे रूठ गई हैं।  दूर- दूर तक आँखें इस इंतजार में आँखें बिछी रहती हैं कि शायद भूले भटके से  कोई बच्चा दीख जाए तो मैं उससे क्षमा मांग लूँ। लगता है मुझे कभी माफी नहीं मिलेगी। पेड़ फूट -फूट कर रोने लगा।”
    “ओह अमरू रो मत । अगर तेरे आंसुओं की बाढ़ में मैं बह गया तो तेरी मदद कौन करेगा!”
    अपनी परेशानी भूल अमरू हंस पड़ा। उसका हँसना सितारा को भी अच्छा लगा। उसे अमरू पर दया आने लगी। बोली-“लंगूरे,हमें अमरू के लिए कुछ करना है जिससे उसके पुराने दिन लौटकर आ जाएँ।”
    “हूँ--- मैं भी कुछ इस तरह से सोचता हूँ। कल मैं अमरू से मिलने आऊँगा । क्या तू  आ सकेगी?
     “क्यों नहीं!एक बार बुलाएगा तो सौ बार दौड़ी आऊँगी।”
     कल अकेली न भागी चली आना। अपने साथ अपनी रंगबिरंगी सहेलियों को भी लाना।”
    “क्यों? मैं अकेली क्या कम हूँ?”
    “तुम कम नहीं पर जहां चार का काम हो वहाँ एक से काम नहीं चलता। कल इसी समय अमरू के पास मेरा इंतजार करना। अच्छा अब मैं चलूँ।”
    अगले दिन अपने इर्द-गिर्द तितलियों के झुंड  देख अमरू अचरज से भर उठा। कुछ नरम -नरम घास पर अपने पंख फैलाये गुनगुनी धूप का आनंद ले रही थीं। कुछ हवा मेँ दौड़ लगा रही थीं तो कुछ मुंह से मुंह भिड़ाये हंसी -खिल्ली मेँ मस्त थीं। दूर से लग रहा था मानों हरी -भरी धरती पर मखमली चमकीले फूल खिल गए हों।
    इतने मेँ लंगूरा आन पहुंचा। उसने बाजार से खरीदे अमरूद अपने झोले से निकाले और अमरूद के पेड़  के नीचे छिटका दिये। अब दूसरा अचरज अमरू के सामने आन खड़ा हुआ। वह लंगूरे से कुछ पूछता उससे पहले ही वह वहाँ से रफा-दफा हो गया।
कुछ दूरी पर खड़े अपने साथियों से उसने अमरू के पास चलने का आग्रह किया। सिट्टू अड़ गया-
     “मैं अमरू के पास नहीं जाऊंगा । पिछली बार इसी ने मेरे सिर पर पत्थर से अमरूद गिराए था। अपने आप को न जाने क्या समझता है।’’
     “बड़ा घमंडी है --गुस्सा तो उसकी नाक पर रखा रहता है । मैं भी इसके पास जाने से रहा। पिट्टू भी बड़बड़ाया।  
     “पिट्टू-सिट्टू ,अब वह बुरा नहीं रहा। गौर से देखो—उसके नीचे अमरूद बिछे पड़े हैं। उसने हमारे लिए ही पके अमरूद टपकाए हैं। चलो इनको खाते हैं अब वह गुस्सा नहीं होगा।” लंगूरे ने उन्हें फुसलाने की कोशिश की।
     अमरूद शब्द सुनते ही उनके मुंह में पानी तो भर ही आया था। बोले- “अच्छा तेरी बात मान लेते हैं पर आगे आगे तू चल। जिससे अमरू पत्थर बरसाए तो सिर तेरा ही फूटे।  हम सब तो पीछे –पीछे ही चलेंगे।” सिट्टू बोला।
      “हाँ --हाँ बाबा, मेरे पीछे ही चलो पर चलो तो---।’’  
     जैसे ही तीनों दोस्तों ने  अमरू की ओर कदम बढ़ाए अमरू के अंग अंग में हरकत होने लगी। टहनियाँ अंगड़ाई ले उठ बैठीं। फूल महक पड़े। अमरूदों की रंगत पीली हो गई । बूढ़ा वृक्ष अब भीनी -भीनी सुगंध वाले अमरूदों से लदा जवान लग रहा था। बच्चों को देख वह खुशी से पागल हो गया । उन्हें अपनी बाहों मेँ लेने को आतुर हो उठा।  इस कशमकश मेँ उसके पके अमरूद फट-फट जमीन पर टपकने लगा । लंगूरे के साथियों ने बटोरे और अमरूद छककर खाये।
     यह बात गाँव मेँ बिजली की तरह फैल गई। अब बच्चे निधड़क उसके पास अमरूद खाने आने लगे । उनके शोरगुल में अमरू को मधुर संगीत के बोल सुनाई देते।  वह समझ गया था कि बच्चों के कारण ही उसके सुनहरे दिन लौटकर आए है। उसने अपना सारा जीवन नन्हें -मुन्ने मासूमों के नाम कर दिया।