प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

सोमवार, 7 मई 2018

अंधविश्वास की दुनिया




॥4॥ भूतइया पेड़ 

सुधा भार्गव 



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पीपल का पेड़ 
    
     भोलू ने जैसे ही सुना रिटायर होने के बाद उसके बापू को सरकारी क्वार्टर छोड़ना पड़ेगा ,वह खुशी से उछल पड़ा—“बापू—बापू अब शहर में एक बड़ा सा बंगला खरीदेंगे। ”
      “हाँ –हाँ जरूर अपने लाडले के लिए बड़ी सी कोठी ख़रीदूँगा पर तू उसका करेगा क्या? हम तीन के लिए तो दो कमरे ही बहुत ।” बिहारी बोला।
      “ओह बापू आप समझते क्यों नहीं।!बंगला होने पर मैं अपने दोस्तों पर रौब झाड़ूँगा।  वो मटल्लू है न पीली कोठी वाला –सीधे मुंह बात ही नहीं करता।”
     “बेटा कोठी खरीदने को खूब सारा पैसा कहाँ से आयेगा?”
     “अभी तो आप खरीद लो फिर बड़ा होने पर मैं खूब सारा पैसा कमा कर लाऊँगा, वो सब तुम्हें दे दूंगा।”
    भोलू की भोली बातें सुन वह हरहरा उठा। उसे प्यार से गोदी में उठा लिया।
     “चल अच्छा सा घर देखने चलते हैं। तेरी माँ को भी साथ ले लें।”
     “हाँ हाँ चलो चलो।”  
     आगे आगे भोलू और पीछे पीछे उसके बापू और माँ । जो मकान बिहारी को पसंद आता उसका किराया औकात से बाहर--- जिसका किराया वह  आसानी से दे सकता उसको देखते ही बेटा नाक भौं सकोड़ने लगता – अरे यहाँ बॉल कहाँ खेलूँगा? मेरी  बिल्ली कहाँ रहेगी? भोलू माँ-बाप की आँखों का तारा —दोनों ही  उसकी इच्छा पूरी करना चाहते थे।            
     ऐसी परेशानी में उसके एक मित्र ने घर बताया और कहा-बिहारी तू एक बार मालकिन से मिल ले।  घर भी अच्छा है। वह कम किराए पर ही देने को तैयार हो जाएगी।  लेकिन---
     लेकिन  क्या --?”
     घर के चारों तरफ भूत मँडराते हैं। वो–वो भूतइया घर है।” हकलाता सा बोला।
    “भूत! हा—हा-- मैं यह सब नहीं मानता।” उसने ज़ोर से अट्ठास किया।
    “उड़ा ले—उड़ा ले मेरी हंसी! सच मान उसके दरवाजे पर पीपल  का पेड़ लगा है। रात में भूतों का वहीं पर बसेरा होता है। और तो और पिछवाड़े नीम और बरगद भी लगा है। संकट ही संकट! कितनी बार बेटे ने कहा होगा माँ यह भुतइया पीपल कटवा दे कहीं कुछ अशुभ न हो जाय  पर नहीं! आखिर में  बेटा माँ को अकेला  छोड़कर चला गया। बुढ़िया है जिद की पक्की--- सारे दिन पेड़ों की देखभाल करती रहती है या नए पेड़ लगाती रहती है।”
     “बलिहारी तेरी बुद्धि की! कुछ भी कह मैं एक बार उस घर को जरूर देखूंगा । मेरे साथ चल न।”
     दरवाजे पर दो अजनबी को देख बूढ़ी मालकिन बाहर निकल कर आई। बिहारी ने हाथ जोड़ नमस्ते की। बूढ़ी गदगद हो उठी। मृदुलता से बोली-बेटा कैसे आना हुआ? मुझसे कोई काम है क्या?”
     “हाँ माँजी। ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से घिरा आपका घर बहुत सुंदर लग रहा है। मैं अपने परिवार के साथ इसमें रहना चाहता हूँ। इसका आप क्या किराया लेंगी?”
     “किराया! क्या कहे है बिटुआ---तू तो मेरे बेटे समान है। तुझसे किराया क्या लेना! तू आ गया तो रौनक ही रौनक । इसकी देखभाल से मेरा पीछा तो छूटे।” बुढ़िया का चेहरा चमक उठा।
     “किराया तो आपको लेना पड़ेगा। जितना मैं दे सकता हूँ उतना तो दूंगा।”
     “ठीक है, पर कोई पेड़ काटने को न कहियो।”
     “पेड़ काटने के लिए भला क्यों कहने लगा। इन्हीं  के कारण तो यहाँ इतनी ठंडक है। पेड़ों के कारण न बाहर की धूल धक्कड़ घर में आएगी और शोरगुल भी कम सुनाई देगा।”
     “तूने तो मेरे दिल की बात कह दी। मेरे बेटे की समझ से तो यह परे है।” बूढ़ी माँ के चेहरे पर उदासी घिर आई। 
     लौटते समय रास्ते में उसका मित्र अनमना सा बोला-अगले महीने क्या तू इस भूतइया घर में सच में आ रहा है । अच्छी  तरह सोचसमझ ले। कुछ अनहोनी न हो जाये। कम से कम पीपल का पेड़ तो कटवाने को कह देता।”
     “तू भी अजीब है --वैसे तो  पीपल को महादेव कहता है --- मंदिर जाते समय उस पर जल चढ़ाना नहीं भूलता। घर में लगे पीपल से  फिर क्या बैर ! पीपल चाहे  घर में हो या बाहर बात तो एक ही है।”
     “एक ही बात कैसे! बाहर, रात में इसके नीचे महादेव आसन जमा लेते हैं। उन्हें देखते ही भूत भाग जाते हैं पर घर में महादेव कहाँ आने वाले--- सो भूत आकर  जम जाते हैं।”
     “तुझसे पार पाना बड़ा मुश्किल है। अच्छा एक बात बता तू पीपल को महादेव क्यों कहता है?”
     “माँ बताती थी बाहर के पीपल पर महादेव  का वास होता है। महादेव के खुश रहने से वह हमारी रक्षा करता है । इसीलिए वह जल चढ़ाती थी, मैं भी चढ़ा देता हूँ।  इसमें सोचने- समझने की क्या बात है?”
     “सोचने समझने की ही बात है। पीपल पर न महादेव रहते हैं और न कोई भूत। पीपल भी रात-दिन हमारी रक्षा करता है इसलिए उसे ही महादेव कहा जाता है  और उसकी पूजा करते हैं।
     “माना दिन में पीपल छाया देता है। पर रात में असुरक्षा का गढ़ ही समझ ।  तू रात में इसके नीचे गया तो भूत को देखते ही तेरी तो बच्चू, डर के मारे घिग्घी बंध जाएगी। न जाने वह तेरी पिटाई ही कर दे।  मेरा तो सोच-सोचकर ही बुरा हाल हो रहा है।”
      “तुझे कुछ पता तो है नहीं! पीपल एक ऐसा निराला पेड़ है जो रात -दिन आक्सीजन देता है। संध्या हो या रात --इसके नीचे बैठ तू गपशप कर या चारपाई बिछाकर झपकी ले शुद्ध वायु ही मिलेगी। कोई भूतला-बूतला  नहीं चिपटेगा—तुझे बस वहम की बीमारी  है।”
      “अच्छा मज़ाक कर लेता है । इतना बुद्धू नहीं कि तेरी बात पर आँख मीचकर विश्वास कर लूँ। रात में तो पेड़ कार्बन डाई आक्साइड ही निकालते हैं और आक्सीजन ग्रहण करते हैं। सुबह ही उनसे आक्सीजन मिलती हैं। तभी तो पार्क में सुबह घूमने जाते हैं।”
      “तू नहीं समझेगा --मैं तो कहूँ बुढ़िया ने पीपल के साथ बरगद- नीम लगाकर अच्छा ही किया है। बरगद और नीम भी दूसरों से ज्यादा आक्सीजन देते हैं। घर बैठे ही आज के प्रदूषण में शुद्ध वायु मिल जाये इससे अच्छा और क्या! ”
      “हाँ कुछ धुंधला धुंधला सा याद आ रहा है --।”मित्र सिर खुजलाते बोला।
      “क्या याद आ रहा है ?लगता है तेरी बुद्धि करवट बदल रही है। ”
     “दादी माँ बरगद की पूजा करती थी। एक बार मैंने पूछा भी दादी बरगद की पूजा क्यों करते हैं?’ कहने लगी-पूजा तो उसीकी की जाती है जो बिना स्वार्थ के दूसरों का भला करे।बरगद कुछ ऐसा ही पेड़ है। नीम की डंडी के बिना तो उसके दाँत ही साफ नहीं होते थे। वह नीम को डॉक्टर बाबू--- डॉक्टर बाबू कहती थी।”
     "अब तेरे दिमाग ने ठीक से काम करना शुरू कर दिया है।”
     “हूँ---ठीक ही कह रहा है --भूतइया घर तो परोपकारी  निकला। अरे वाह! क्या किस्मत पाई है! अब तू जल्दी से यहाँ आजा फिर तेरी भावी के साथ मिठाई खाने आऊँगा।”
     दोनों दोस्त हँसते हँसते आगे बढ़ गए।

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

बालकहानी



 मिठास 

सुधा भार्गव




    
      एक जंगल में हरे-भर ,ऊंचे -ऊंचे पेड़ थे। एक बार टिपटिपिया हारा थका- पेड़ के नीचे आन बैठा। उसे भूख भी लगी थी। उसने पेड़ से एक फल तोड़ा,चखा और फेंक दिया।बुरा सा मुंह बनाकर दूसरे पेड़ का फल चखा।  नाक-भौं सकोड़ता हुआ उसने उसे और भी दूर फेंक दिया। उसकी फेंका फेंकी पर पेड़ों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
      बाबा समान एक बड़े बूढ़े पेड़ ने पूछा-“भाई तुम हमारे फल खाते भी हो और  दूर फेंककर उनका अपमान भी कर देते हो। भला हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है!”
     “मेरे मुंह का सारा स्वाद बिगाड़ दिया और पूछते हो क्या बिगाड़ा है।तुम लंबे-चौड़े पेड़ों से क्या फायदा,जब तुम्हारे फल किसी की भूख ही न मिटा सकें। सारे के सारे फल कड़वे हैं कड़वे!”
     “कड़वे!” एक चीख निकली और पूरे जंगल में गूंज गई। पेड़ों ने अपने लिए इतना भद्दा शब्द आज तक न सुना था।
      “हमारा तो जीवन ही व्यर्थ हो गया,जब किसी की भलाई ही न कर पाए।” एक पेड़ दुखी होकर बोला।
मीठा कैसे बनें! इसी उधेड़बुन में कई महीने गुजर गए। न पेड़ जी खोलकर हंस पाए न ठीक से सो सके।हमेशा उनकी आँखें रास्ते पर बिछी रहती –काश कोई हमें ऐसा मिल जाए जो मीठा बनने का गुर सिखा दे।
     भरी दोपहरी में एक दिन उड़ते-उड़ते काली कोयल उस जंगल में पेड़ की टहनी पर आ बैठी और कुहू---कुहू करके मिश्री सा गाना कानों में उड़ेलने लगी। सारे पेड़ खुशी से झूमने लगे। गरमी की तपत भूलकर बहुत दिनों बाद मुस्कराए।
      अचानक थू—थू की आवाज सुनकर वे मुसकराना भूल गए।उन्होंने सुना, “हाय रे!मेरा मुंह तो कड़वा हो गया। लगता है कड़वाहट यहाँ की हवा में घुली है। उफ,गाया भी नहीं जा रहा। थोड़ी देर और यहाँ रुकी तो मेरा गला ही बैठ जाएगा। उड़ूँ यहाँ से--- तो ही अच्छा है।”
      उसने नीले आकाश में उड़ने को पंख फड़फड़ाए ही थे कि सारे पेड़ हाथ जोड़कर खड़े हो गए,टपटप आँसू बहाने लगे। बोले-“कोयल बहन ,हमें छोडकर मत जाओ। हम तुमसे मीठा होना सीखेंगे।”
      “तुम सब बहुत कड़वे हो। तुम्हारे साथ रहकर मैं भी कड़वी हो जाऊँगी। भूल जाऊँगी मधुर बोल।”
     “यह भी तो हो सकता है,तुम्हारा साथ पाकर हमारे फलों में मिठास पैदा हो जाए। जो भी हमारा फल खाता है,बुरा-भला कहता कोसों दूर चला जाता है।”
     “हाँ,तुम्हारी बात सच भी हो सकती है!तो ठीक है कुछ दिन यहीं टिक जाती हूँ।” कोयल पर उनको  दया आ गई।
     सबेरे-सबेरे कोयल ने गाना शुरू किया। ठंडी हवा बहने लगी,आने जाने वालों के कानों में मधुर घंटियाँ बजने लगीं। फलों की रंगत बदल गई। हरे से पीले हुए गालों पर गुलाबीपन छा गया। रसीले फलों से डालियाँ झुक गईं। उनकी खूबसूरती को देखकर छोटे-बड़े हाथ उन्हें छूने और सहलाने को मचलने लगे। एक फल खाते दूसरा तोड़ने की सोचते। आंधी आई तो टपाटप फल नीचे गिरने लगे। बच्चे बूढ़े टोकरी लेकर दौड़े। खाते-बांटते कहते-ऐसा शहद सा मीठा फल कभी न देखा न चखा। पेड़ अपने फलों की तारीफ सुनकर नाचने लगे। पत्तियाँ हिल हिलकर कहतीं-
     
     आओ रे भैया 
     आओ रे  
     जी भर 
     आप खाओ रे
     
सुनने वालों ने समझा- जी भर आम खाओ।
      तब से उन रसीले फलों को आम कहा जाने लगा-कोयलिया के गले की मिठास से फल मीठे हो गए और उनकी सुगंध हवा में घुल गई।कोयल को गाने में अब आनंद आने लगा। वह उन पेड़ों को छोडकर कहीं नहीं गई। आजतक कोयल आम के पेड़ पर बैठकर ही अपने मधुर गान की तान छेड़ना पसंद करती है।

समाप्त  

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

अंधविश्वास की दुनिया

    


॥3॥ बालों का जंगल 

सुधा भार्गव

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     ताराचंद पढ़ी-लिखी बहू पाकर फूले नहीं समा रहे थे। सोचा करते, “ बेटा बुद्धिमान , तो बहू भी उससे कम नहीं। मेरे पोता -पोती तो इनसे भी बढ़कर निकलेंगे।”
     एक दिन हँसते हुए पत्नी से बोले –“जंगल बड़ा घना उग आया  है। इसे मैं कटवाने जा रहा हूँ।”
    घना जंगल’?
    अरे देख न रही ये मेरे सिर पर ---बालों का जंगल !”
    पत्नी भी उनकी इस विनोदप्रियता पर मुसकाए बिना न रही।
    अचानक बहू का स्वर उभरा- “बाबू जी आज तो मंगलवार है, बाल न कटवाओ ।”  
    “क्यों बहू----?” आश्चर्य से वे बहू नीलू  को देखते रह गए। उनके चेहरे का हास्य कपूर की तरह उड़ गया।
    “इससे अपशकुन ही अपशकुन होता है।”
    “अपशकुन---! यह बात तुमसे किसने कही?”
    “मेरी दादी कहा करती थीं।इसलिए भैया और पिताजी कोई भी मंगलवार को बाल नहीं कटवाता।”
    “तुमने इसका  कारण तो पूछा होगा उनसे।”
    “पहले तो मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लगी----हिम्मत करके पूछा भी तो बड़ी ज़ोर से डांट पीने को मिली , “छोरी दो अक्षर क्या पढ़ गई बड़ी कानूनबाजी करने लगी है। बाप ने तो एक बार न पूछी। कान खोलकर सुन ले ---यह रिवाज  हमारे घर में दादा—परदादा के समय से चला  आ रहा  हैं ----तुझे भी मानना होगा।”
      “उसके बाद तो कुछ पूछने का साहस ही नहीं हुआ। धीरे- धीरे यह सुनने और देखने की आदत सी पड़ गई। विश्वास भी होने लगा है कि मंगलवार को बाल कटवाने से कुछ अनहोनी जरूर हो जाएगी  
    “बिना कारण पता किए इस रिवाज पर कैसे विश्वास कर लिया! एक अनपढ़ , सड़ी-गली रीति-रिवाजों के अनुसार चले तब भी ठीक है। पर तुम –ओह तुम बिना तर्क किए कैसे इस विचार की अनुयायी हो गईं। इसी को तो कहते हैं अंधविश्वास। पढ़े-लिखे भी इतने अंधविश्वासी!” ताराचंद इस झटके से कराह उठे।
नीलू का शर्म से सिर झुक गया और इस अंधविश्वास की जड़ तक पहुँचने की उसने ठान ली।  दिमाग पर ज़ोर डालते हुए बोली- बाबू जी कोई बात तो जरूर हुई होगी जिससे लोगों के दिमाग में आया कि मंगलवार को बाल नहीं कटवाने चाहिए।”
    “तुम ठीक कह रही हो नीलू। अब तुमने अपने दिमाग से काम लिया। बहुत पहले हमारे देश  में 75% लोग  गांवों में रहते थे जो किसान थे।  हमारे तुम्हारे पूर्वजों में से कोई न कोई गाँव में रहकर खेती जरूर करता होगा । पूरे हफ्ते कड़ी मेहनत के बाद किसानों को सोमवार का दिन ही आराम करने को मिलता था। वे उस दिन घर की सफाई करते, ढाढ़ी बनवाते, बाल कटवाते। नाई भी सारे दिन व्यस्त रहता। मंगलवार को इक्का-दुक्का ही उसकी दुकान पर जाता। वह भी सोचता होगा दो जन को कौन दुकान खोले। इसलिए उस दिन वह  उसे बंद ही  रखता। कोई नाई से बाल कटवाने की सोचता भी तो लोग कहते -भैया---मंगल को बाल न कट सकें। यह वाक्य इतना प्रचलित हो गया कि मंगल को बाल न कटवाने की प्रथा ही बन गई है। तुम जैसे शिक्षित लोगों को भी इस अंधविश्वास ने अपने  जाल में जकड़ रखा है। अब मैं क्या बोलूँ –बोलूँगा तो बोलोगी –बाबू जी ऐसा बोलते हैं---तुम्हारी तरह उनके मन में भी डर समा गया है कि मंगल को बाल कटवाने से जरूर कोई अमंगल होगा। होगा। कारण कोई जानना  ही नहीं चाहता है।
    “आप ठीक कह रहे हैं । रीति-रिवाजों की गहराई में उतरने की मैंने ही कब चेष्टा की!”
    “अब तो पहले और आज के रहन सहन में जमीन-आसमान का अंतर है। जगह- जगह सैलून खुल गए हैं। शहरी सभ्यता गांवों में भी पैर पसार रही है। आँखें खुली होने पर भी लकीर के फकीर होना क्या ठीक है!”
    “बाबू जी ,आप बड़े है। आप कुछ बताएँगे  हमारे भले के लिए ही तो बताएँगे ।अब से किसी प्रथा को मानते समय मैं अपनी आँखें हमेशा खुली रखूंगी।”
समाप्त


मंगलवार, 20 मार्च 2018

अंधविश्वास की दुनिया


(2) पगला गया क्या!नाखून काटेगा 

सुधा भार्गव
     
     स्कूल पहुँचते ही खरबूजे  को याद आया –अरे नाखून कटवाना तो भूल ही गया। कल जामुनी मिस ने चेतावनी भी दी थी। आज तो जरूर पकड़ा जाऊंगा। हे भगवान फिर तो डांट डांटकर मेरा हलुआ बना दिया जाएगा।
      वही हुआ जिसका उसे शक था। प्रात: ईश प्रार्थना के बाद मिस ने उसे रंगोहाथ पकड़ लिया। आँखें तरेरती बोलीं- –“खरबूजे,आज भी नाखून नहीं कटे। तुरंत मैदान में जाकर खड़े हो जाओ। तुम्हें प्रिन्सिपल के पास जरूर ले जाऊँगी। खरबूजे का तो डर के मारे रंग ही बादल गया।
      सारे बच्चे कक्षाओं में चले गए । जामुनी मिस ने गुस्से में कहा-“चलो, तुम जैसे बच्चों के  एक बार की कही बात समझ में ही नहीं आती।”
     प्रिन्सिपल ने कनखियों से खरबूजे  को देखा फिर मिस से आने का कारण पूछा।
     “मैडम, हम हर मंगलवार को नाखूनों की जांच करते हैं कि वे गंदे या बढ़े हुए तो नहीं हैं। नाखून बढ़े होने पर खरबूजे से कहा था-नाखून काट कर आए आज मैं देखूँगी। पर इसके कान पर तो जूं भी न रेंगी। देखिये न इसके नाखून कितने भद्दे लग रहे हैं।”
     “बेटे क्या तुम्हें मालूम है नाखून को काटने के लिए क्यों कहा जाता है?”
     “हाँ मैडम। नाखून बढ्ने से गंदगी उनमें भर जाती है। खाना खाते समय वह शरीर के अंदर जाकर बीमारियाँ कर देती है।”
     “अरे तुम तो बड़े होशियार हो। इतना सब जानते हुए भी तुम नाखून कटवा कर नहीं आए?”
     "मैंने शाम को माँ से कहा था पर दादी बोलीं- “पगला गया है क्या--नाखून न काट रे संझा हो गई है। कल सुबह माँ को याद दिला दीजो।”
     “और सुबह कहना तुम भूल गए और माँ भी भूल गईं। ठीक कह रही हूँ न।” मैडम शांत स्वर में बोलीं ।
     “हाँ ,पर आप कैसे जान गईं?”खरबूजा चकित था।  
     “इसलिए कि सुबह हर माँ को बहुत काम होते हैं और बच्चों को स्कूल आने की जल्दी होती है।”  उसे  मैडम की बातें बहुत अच्छी लगीं। हल्के से मुस्कुरा दिया।
     “शाबाश! बच्चे ऐसे ही मुस्कराते अच्छे लगते हैं। बेटे एक बात बताओ। तुम्हारी माँ ने शाम को नाखून काटने से मना क्यों कर दिया?”
     “मुझे तो नहीं मालूम।”
     “मैं बताऊँ!”
     “हाँ—हाँ जल्दी बताइये।” कारण जाने के लिए खरबूजा उतावला हो उठा।
      “देखो,हमारे बाबा,परबाबा के समय न तो बिजली थी और न ही आजकल की तरह नाखून काटने का नेलकटर। अंधेरा होते ही घर-घर मिट्टी के दीये जलते थी। उनमें सरसों का तेल और रुई की बत्ती होती। इससे थोड़ा ही उजाला होता था।  


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      कुछ घरों में लालटेन और मिट्टी के तेल के लैंप  रोशनी देते थे। पर पढ़ाई,सिलाई के कामों में तो कठिनाई होती ही थी। कम रोशनी से आँखों पर ज़ोर पड़ता था। नाखून काटने में तो और भी खतरा था। उस समय पैनी धार वाले चाकू से नाखून काटे जाते थे। जरा सी भूल-चूक होने से नाखून ज्यादा कट गया या उसके के अंदर की खाल कट गई तो मुसीबत।  साफ खून झलकने लगता । इसलिए शाम के बाद नाखून नहीं कटे जाते थे। कोई काटने भी बैठता तो उसे टोक देते –संझा हो गई नाखून न काट भैया।  लेकिन आज यह बात लागू नहीं होती।  बल्बों की जगमगाती रोशनी से अंधेरा भागता ही नजर आता है। पर बहुत से लोग बुद्धि का प्रयोग किए बिना पिछली बात ही दोहराते  रहते हैं –नाखून न काटो—नाखून न काटो। खुद भी नहीं काटते  और दूसरों को भी नाखून नहीं काटने देते। अब तुम्ही बताओ बल्ब की रोशनी  मेँ नेलकटर से मैं नाखून रात को काट लूँ तो क्या कोई खतरा है?
  


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    "बिलकुल नहीं मैडम! मैं भी उल्टे हाथ के काट सकता हूँ पर सीधे हाथ के नहीं काट पाऊँगा।”
   
    "अभी तुम बच्चे हो। जरा बड़े होने पर बहादुरी दिखाना। पर रात में नाखून न काटने का रहस्य घर जाकर बताना और कल जरूर नाखून काटकर आना।"
      खरबूजा 'हाँ' में जोरदार गर्दन हिलाता कक्षा की ओर चल दिया और सोचने लगा -मैडम सबसे ज्यादा होशियार हैं। इनके पास तो सब प्रश्नों के उत्तर हैं। जरूरत पड़ने पर इनके पास ही भागा भागा आऊँगा। 
समाप्त 

सोमवार, 12 मार्च 2018

अंधविश्वास की दुनिया



    समय कहाँ से कहाँ चला गया। गांवों में शहरी हवा बहने लगी और शहरों में विदेशी हवा। पर अंधविश्वास की हवा बहने से नहीं रुकी। विश्वास करना अच्छी बात है पर जब विश्वास करने वाला बिना सोचे-समझे अंधमार्ग पर चल पड़े तब अंध विश्वास का जन्म होता है। मूर्ख,अनपढ़ आँख मींचकर पुराने  रीतिरिवाजों को माने यह बात तो समझ में आती है पर शिक्षित वर्ग भी अंधविश्वास की जंजीरों में जकड़ा रहे यह बात गले से नहीं उतरती। नई पीढ़ी कितनी भी चेतन व बुद्धिजीवी  हो मगर अंधविश्वास की जड़े इतनी गहरी हैं कि पैदा होते ही उनके दिलोदिमाग पर इसकी गहरी छाप होगी। इससे वे कैसे बचें हमें सोचना होगा। मैंने कुछ कहानियों के माध्यम से अंधविश्वास की दुनिया में प्रवेश करने की कोशिश की है ताकि बच्चे खुद निर्णय ले सके कि उन्हें क्या करना है।
1-रास्ता काट गई रे टिपुआ
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    स्कूल बस के आने का समय हो गया था।  टिपुआ जैसे ही अपना स्कूल बैग लेकर दरवाजे से निकला ,पीछे से आवाज आई – “बिल्ली रास्ता काट गई रे टिपुआ --- जरा रूक जा।कहीं  कुछ बुरा न  हो जाए।”
    “क्या बुरा हो जाएगा माँ ?” टिपुआ सहम सा  गया।
    “हो सकता है तेरा पेपर ही खराब हो जाय।परीक्षा के दिन हैं—सावधान तो रहना ही पड़ेगा। ”
    टिपुआ रुक तो गया पर दूर से स्कूल बस के ड्राइवर ने उसे देख लिया जो उसका ही इंतजार कर रहा था।  उसने गुस्से से हॉर्न पर हॉर्न बजाना शुरू कर दिया। पर टिपुआ वह तो  टस से मस न हुआ। ड्राइवर हैरान था , चलते-चलते इसके पैरों को क्या हो गया। बस में बैठी मैडम भी झुँझला उठी। पलक झपकते ही बस से उतरकर टिपुआ के पास जा पहुंची। हाथ खींचते हुए बोलीं-“तुम्हारे  कारण बस को देर हो रही है। तुम आते क्यों नहीं?बस छूट गई तो स्कूल कैसे पहुंचोगे। आज तो इतिहास का पेपर भी है।”
  
    मैडम के गुस्से  को देख टिपुआ एक मिनट को  सकपका गया क्या करे क्या न करे। मैडम का वह विरोध भी न कर सका। बस में वह उदास सा बैठ गया। 
    मैडम को उस पर बड़ी दया आई। बड़े प्यार से बोलीं-“ टिपुआ तुम्हारे मन में क्या चल रहा है?तुम बड़े दुखी लग रहे हो।”
    टिप्पू की रुलाई फूट पड़ी-“मैडम आज मेरा पेपर जरूर खराब हो जाएगा।”
    “मगर क्यों ?”
    “माँ ने बिल्ली के रास्ता काटने पर मुझे रुकने को कहा था। यह भी कहा था कि नहीं रुका तो कुछ बुरा हो सकता है। मेरा पेपर जरूर खराब हो जाएगा अब तो मैडम।” वह सुबकने लगा।
     “ओह रोना बंद करो। अच्छे बच्चे आँसू नहीं बहाते। कुछ बुरा नहीं होगा।”
    मैडम मैडम  यह तो मेरी मम्मी भी कहती है----मेरी  मम्मी भी कहती है।आगे पीछे से आवाजें उठने लगीं।
    “अच्छा तो ऐसी बात है!बच्चो, बिल्ली के रास्ता काटने पर रुकने को क्यों कहा जाता है इसका असली कारण मैं बताती हूँ। ध्यान से सुनो।”उन्होंने ऊंचे स्वर में कहना शुरू किया।
     “बहुत पहले आज की तरह रेल हवाई जहाज नहीं थे। लोग बैलगाड़ी-ऊंटगाड़ी- घोड़ागाड़ी से यात्रा करते थे। अकेले कभी नहीं जाते थे। । झुंड बनाकर जाते थे ताकि मुसीबत आने पर उससे  मिलकर टकरा सकें। रात में घने जंगल पार करने पड़ते थे। चारों तरफ गुप्प अंधेरा। कहीं से उल्लू के बोलने की आवाज आती तो कहीं चमगादड़ उड़ती फट फट करती।शेर  की दहाड़ से कलेजा काँप उठता।इन सबसे बचते-बचाते  मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेन की हल्की सी रोशनी में आगे बढ़ते। ”
    “लालटेन से तो बहुत कम रोशनी होती है। उससे तो ठीक से दिखाई ही नहीं देता। हमारे यहाँ जब लाइट चली जाती है तो माँ लालटेन जलाती है। मैं तो बिस्तर में दुबक जाता हूँ। कोई काम ही नहीं कर पाता । न खेल सकता हूँ न पढ़ सकता हूँ। गाड़ी में बैठे-बैठे यात्रियों को तो बहुत डर लगता होगा मैडम। लिट्टू बोला।
    “हाँ डर तो लगता ही था। अक्सर उनका सामना जंगली बिल्लियों से हो जाता जो लंबी-चौड़ी और बड़ी भयानक होती थीं। उनकी चमकदार आँखें देख  गाय घोड़े और बैल भयभीत  हो उठते।  बिल्ली को जरा भी अपने आगे रास्ता पार करते देखते, यात्रियों का समूह रुक जाता और पास ही कोई सुरक्षित जगह देखकर कुछ समय के लिए पड़ाव डाल लेता। इससे उनके जानवरों को  आराम भी मिल जाता और जंगली बिल्ली उनके रास्ते से इधर उधर हो जाती। आने वाले  यात्रियों को भी चेतावनी देते कहते बिल्ली रास्ता काट गई है---रुक जाना ।
    र्धीरे धीरे लोग जंगली बिल्ली को तो भूल गए पर यह वाक्य कहना न भूले- बिल्ली रास्ता काट गई रे ---रुक जा। नतीजा यह हुआ कि घरेलू बिल्ली के रास्ता काटने पर भी लोगों ने कुछ देर रुकना शुरू  कर दिया। जबकि घरेलू बिल्ली तो घर में पाली जाती है। बहुत सीधी होती है।”
    “हाँ ,आप ठीक कह रही हो।  मेरे घर में छोटी सी भूरी पूसी है।बड़ी प्यारी है। मुझे तो उससे बिलकुल डर नहीं लगता। जब मैं स्कूल से आता हूँ तो मेरे पैरों से चिपट चिपट  जाती है। वह तो मेरा कुछ बिगाड़ ही नहीं सकती।टिल्लू ने बड़ी शान से कहा।  
   "क्यों टिपुआ, अब तो तुम्हें मालूम हो गया कि बिल्ली के रास्ता काटने पर कुछ नुकसान नहीं होता।”
टिपुआ के चेहरे की खोई रौनक लौट आई। उसके अंदर का डर जाता रहा ।  बड़े  उत्साह से बोला –“हाँ मैडम मैं समझ गया। मेरा पेपर तो बहुत अच्छा होगा।”
वह उछलता हुआ बस से उतरा और हिरण की तरह भागता हुआ स्कूल में घुस गया। 

सुधा  भार्गव  
  

शनिवार, 3 मार्च 2018

अनुराग पत्रिका में प्रकाशित बालकहानी


अंक जुलाई-सितंबर 2009


जूठा गाल/सुधा भार्गव
      
      रात भर दूधिया बादल नींद की गोद में चुप रहा !सुबह होते ही वह चंचल हो उठा और खेलने लगा सूर्य के साथ आँख मिचौनी ! सूर्य भी कभी उसके पीछे छिप जाता ,कभी हँसता हुआ निकल आता !बड़ी शान से कहता _देखो मैं फिर आ गया !बादल के रास्ते में कभी पर्वत आते कभी पेड़ , वह उन्हें झुक झुककर प्यार करता !जिन्हें प्यार नहीं कर पाता उनकी ओर हाथ हिलाकर कहता --शुभ -प्रभात !
     उड़ते -उड़ते बादल थक गया !सुस्ताने के लिए वह नीचे उतरा !वहाँ घर के चबूतरे पर एक लड़की बैठी थी १ उसका नाम हंसिका था !हंसिनी की तरह गोरी -गोरी ,लम्बी गर्दन वाली !बादल ने उसका गाल चूमा और उड़ गया !हंसिका रोने लगी ! बादल को बड़ा अचरज हुआ !वह ठहर गया ! बोला -मैंने तो तुम्हें धीरे से चूमा था !इसमें बड़े-बड़े आंसुओं को टपकाने की क्या जरुरत आन पड़ी।'
       '
तुमने मेरा गाल जूठा कर दिया !'
        '
मैंने तुम्हें खाया था क्या जो तुम जूठी हो गयी !'बादल बिगड़ गया !'
       '
हाँ ---हाँ --मैं जूठी हो गयी !मेरा गाल भी ख़राब हो जाएगा !'
       '
ये बेसिर -पैर की बातें तुम्हें किसने बताईं ?'
       '
मेरी दादी ने और किसने !वे कभी झूठ नहीं बोलती हैं !'
        
दादी ने हंसिका के रोने की आवाज सुन ली थी !वे बेचैन हो उठीं !लाठी टेकती किसी तरह अपने को संभालती आईं !उन्हें देखते ही हंसिका के रोने का ढोल और जोर से बजने लगा !'
       '
दादी माँ -----बादल ने मेरा -----गाल जू ---ठा करके रख दिया !'वह अपना गाल जोर -जोर से रगड़ने लगी जिससे वह साफ हो जाय !'
       '
यह तो मेरे पीछे बिना बात पड़ गई है !मैंने तो इसे जरा सा छुआ था !मैं अभी आपको दिखाता हूँ कैसे छुआ था !'बादल ने एक बार फिर हंसिका के गाल पर अपने होठों की छाप लगा दी !अब तो हंसिका जमीन पर लोट गयी और हाथ पैर पटककर भोंपू की आवाज अपने मुंह से निकालने लगी !
        
बादल उसके रंगढंग देखकर सकपका गया !बोला -'दादी माँ आप ही बताओ अगर इसके गाल को चूम लिया तो क्या गलती कर दी !'
        '
बच्चों के गाल बहुत कोमल होते हैं !बार -बार पप्पी लेने से वे फट जाते हैं !उनमें जलन होने लगती है !फिर क्रीम लगाकर उनको चिकना करना पड़ता है !'
        '
तब क्या हंसिका के गाल फट जायेंगे !कोई बात नहीं ,मैं इनकी सिलाई कर दूंगा।
        '
फिर तो उसको ओर परेशानी हो जायेगी !गाल सीने के लिए सुई चुभोनी पड़ेगी !सुई चुभोने से खून निकल आएगा !'
        '
ओह तब मैं क्या करूँ !'बादल ने अपना माथा पकड़ लिया !
       '
इसमें क्या है !गाल पर प्यार करना बंद कर दो !'
       '
लेकिन हंसिका बहुत प्यारी है !प्यारे बच्चे तो ,सबको अच्छे लगते हैं !मन चाहता है उन्हें गोद में ले लूँ ,बाहों में सुलाऊं और -----और गुलाबी गाल का चुम्मा ले लूँ !'
शरारती बादल अपनी गोलमटोल आंखों से हंसिका की ओर देखने लगा !
        '
देखो दादी ,यह फिर मुझे तंग करेगा !'हंसिका दादी के पीछे छिपने की कोशिश करने लगी !'
          
नादान बादल की शरारत का आनंद दादी मन ही मन ले रही थीं !वे हंसिका को नाराज भी नहीं करना चाहती थीं !बादल को समझाने के अंदाज में बोलीं -तुम्हारी ज्यादा छेड़खानी अच्छी नहीं !हंसिका तुमसे बहुत छोटी है !तुम गाल की बजाय उसके माथे को चूमकर अपनी इच्छा पूरी कर सकते हो !'
           
हंसिका को दादी की बात अच्छी नहीं लगी !उसके दिमाग में उछल कूद होने लगी -'यह बादल दूधिया क्यों लगता है !शायद इसके पेट में दूध भरा है !जैसे ही यह मेरे माथे पर बैठेगा मैं इसके पेट में नाखून चुभोकर सुराख़ कर दूंगी !दूध झर -झर बहने लगेगा !आकाश की ओर सिर उठाऊंगी तो सीधा मेरे मुहँ में जाएगा !उसको ऐसा मजा   चखाऊँगी कि फिर मुझे परेशान करने की हिम्मत नहीं करेगा !'
            '
बादल उसके मन की बात भाँप गया और सतर्क हो गया! वह हंसिका के माथे पर टिका ! स्नेह की वर्षा करके उसे भिगो दिया और पल में ही तेजी से उड़ चला ! उसके चेहरे पर मुस्कान थी !हृदय में लोगों के लिए प्यार था और मन में विश्वास था कि  प्यार  के  बदले प्यार ही मिलेगा !