मन की रानी/सुधा भार्गव
ठंडी –ठंडी मस्त हवा के झोंके मन को लुभाने लगे । सूझे
पत्ते फड़फड़ाकर हँसते ,फुदकते ,दौड़
लगाते । झाड़ी में बैठी एक स्ट्रोबरी चंचल हो उठी । झटके से झुकी ,डाल नीचे हो गई । उसका मन किया
धरती पर लोटती –पोटती सूखे पत्तों का पीछा करे । तभी पीछे से माँ ने उसे अपनी ओर
खींच लिया –ज्यादा न झुक ,गिर जाएगी । स्ट्राबरी डर गई । डाल
में लगे पत्तों की अंधेरी गुफा में अपने को उसने तुरंत छिपा लिया।
स्ट्रोबरी रात में टुकुर –टुकुर तारे देखती ।
पत्तों के बीच में से आती झीनी रोशनी से अपना मन बहलाती । एक बार वह उकताकर आलसी
की तरह उबासी लेने लगी । तभी कनखियों से उसने बादल देखा । उससे बात करने को पत्तों
से अपना सर निकाला । बादल को वह बहुत अच्छी लगी । उसने प्यार से पानी की एक बूंद उस
पर टपका दी । स्ट्रोबरी उसमें नहाकर ताजी हो गई । पहले से ज्यादा चमकने लगी । पीछे
से किसी ने उसे अपनी ओर खींच लिया –क्या कर रही है ,ठंड लग
जाएगी । उसकी छोटी-छोटी आँखों में आँसू भर आए।
-हिम्मत रखो !ऐसे आँसू न बहाओ। यदि तुम धरती पर
आना चाहती हो तो आ जाओ । मेरा घर बादल है
। उसे छोडकर धरती पर आई हूँ । धरती पर आकर तुम्हें बहुत प्रसन्नता होगी । यह बहुत
सुंदर है । इसका लहंगा हरा ,ब्लाउज पीला है । वह चांदी का
मुकुट पहने है । बूंद ने दिलासा दी।
-आऊँ कैसे ?
-जैसे मैं आई हूँ । घर से तुम्हें बाहर निकलना ही
होगा ,तभी तो दूसरी निराली दुनिया की
सैर कर सकोगी । बूंद ने कहा ।
-स्ट्रोबरी में हिम्मत आई और आँखें मटकाकर इधर –उधर
देखने लगी –कहीं कोई देख तो नहीं रहा । माँ तो जरूर कहती –खेलने –कूदने की जरूरत नहीं ,चोट लग जाएगी । बिना हिले डुले डाली से चिपकी रह ।
उसने बिना शब्द किए झाड़ी से अपना पूरा शरीर निकाला
। दम लगाकर उछली । डाली से टूटकर धम्म से मिट्टी मेँ जा पड़ी । प्यारा सा मुखड़ा धूल
से भर गया । फिर भी ताजी हवा मेँ सांस
लेने से उसके अंग मुस्कराने लगे । हवा भी खुश , स्ट्रोवरी की
खुशबू से जो भर गई थी।
बूंद आगे बढ़ी । उसने स्ट्राबरी को उठाया । झपझप
करके धूल झाड़ी । बोली -चलो मेरे साथ।
-कैसे चलूँ ?घर में मुझे न
देखकर माँ रोएगी । बहनें तो सो भी न पाएँगी । स्ट्राबरी उनकी याद में उदास हो गई।
- कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है । बूंद ने
स्ट्रोबरी को समझाया।
स्द्रोबरी आगे बढ्ने लगी । पीछे मुड़कर भी देखती जाती ।उसे माँ का प्यार पुकारता सा लगा । तभी मुर्गे ने बांग दी । झाड़ी में सब जाग गए । स्ट्रोबरी को न देखकर कोहराम मच गया ।
माँ ने छाती पीट ली –हाय मेरी स्ट्रोबरी जान से गई । किसी ने साबुत का साबुत निगल लिया होगा।
बहन बोली –भालू स्ट्रोबरी को खा गया है । अपनी लपलपाती
जीभ होठों पर फेर रहा होगा –वाह !क्या रसीली गूदेदार हैं । बड़ी निडर बनती थी।
बहन ने पत्तियों को हटाकर बाहर नजर घुमाई । उसे स्ट्रोबरी की एक झलक मिल गई। वह चिल्लाई –लौट आओ –लौट आओ । जान को खतरा है । स्ट्रोबरी ने अपनी चाल और तेज कर दी । उसे झाड़ी मेँ कैद होना मंजूर न था । खुली हवा मेँ सांस लेने का सुख वह जान चुकी थी।
नाजुक स्ट्रोबरी बूंद के साथ –साथ चलते थक गई । वह धीमें स्वर में बोली –मुझे धरती से जल्दी मिलाओ न ।
-तुम धरती पर ही तो खड़ी हो । बूंद ने कहा।
-यह तो बहुत लंबी -चौड़ी है । मेरे घर से बहुत बड़ी है। आश्चर्य से स्ट्रोबरी ने आँखें झपकाईं ।
-अब पूरी धरती ही तुम्हारा घर है । चलो ,तुम्हें भाई से मिलाती हूँ।
-बूंद एक पेड़ के नीचे ठहर गई । स्ट्रोबरी उसकी ऊंचाई देखती ही रह गई ।
-पेड़ भाई ,तुम्हारा घर कहाँ है ?उसने पूछा ।
-यह धरती मेरा भी घर है । इसी की मिट्टी में मेरा जन्म हुआ है ।
-तब तो हम सबका घर एक ही हैं । हमें हिल मिलकर रहना होगा।
-तूम तो बड़ी समझदारी की बात करती हो । मुझसे छोटी हो पर बुद्धिमानी में बड़ों –बडों को हरा दोगी । पेड़ बोला ।
-तूम तो बड़ी समझदारी की बात करती हो । मुझसे छोटी हो पर बुद्धिमानी में बड़ों –बडों को हरा दोगी । पेड़ बोला ।
बोली –मुझे जल्दी से धरती का मुकुट दिखाओ।
-अभी दिखाती हूँ –कहकर बूंद बर्फ ढकी चोटी पर बैठ
गई । वहीं से ज़ोर से बोली –बर्फ से ढकी चोटियाँ ही धरती का शानदार मुकुट हैं । तुम
भी यहाँ आ जाओ ।
स्ट्रोबरी तो उमंग के पंखों पर सवार थी । उसने बर्फ पर चढ़ना शुरू किया । जरा सा चढ़ती ,फिसल जाती । फिर चढ़ती –फिर फिसल जाती । वह बार –बार ऐसा करती रही । ठंड से बदन अकड़ गया लेकिन बूंद के पास जाने की इच्छा नहीं छोड़ी।
सूरज को उस पर दया आ गई ।वह ज़ोर से चमका । किरणों
की गर्मी से बर्फ जगह –जगह से पिघल गई।स्ट्रोबरी सरलता से चोटी पर चढ़ी और
ऊंचाई से धरती की सुंदरता देखी ।उसके रूप पर वह मुग्ध हो गई । बर्फ पर सुनहरी
किरणों के पड़ने से नीली ,पीली रोशनी निकल रही थी जिसमें धरती
नहाकर खिल उठी।
-मुझे अब हरा और पीला ब्लाउज भी दिखा दो । बच्चे की
तरह स्ट्रोबरी मचल उठी ।
-चोटी से नीचे झाँको!पृथ्वी हरी –हरी घास का मखमली
लहंगा पहने हुए है और सरसों के लहलहाते पीले खेत उसका ब्लाउज हैं । सभी तो दिखाई दे रहा है । सुरभि का
सितार बजाते रंग बिरंगे बाग –बगीचे हमें बुला रहे हैं । सूरजमूखी का फूल मस्त होकर नाचना चाहता है । उस पर
मंडराती तितलियाँ कुछ गाती सी लग रही हैं।
--मेरा मन भी
करता है नाचने को –गाने को । भोली सी स्ट्राबरी बोली ।
-किसने रोका है तुम्हें !खूब नाचो –खूब गाओ ।
-मुझे कोई नहीं रोकेगा !क्या तुम्हें पूरा –पूरा
विश्वास है ?झाड़ी वाले घर में तो मैं अपने मन से कुछ कर ही
नहीं सकती थी । हर समय टोकाटाकी होती –यह
मत करो ,वह मत करो ।
- हाँ –हाँ !मैं अच्छी तरह जानती हूँ । इस धरती पर
तुम अपने मन की रानी हो । बूंद ने उसे यकीन दिलाना चाहा ।
-सच में !
आह तब तो मैं--------
खाऊँगी –खेलूँगी
नाचूँगी –गाऊँगी ,
ताल में उछलूँगी
झरने में नहाऊँगी ,
पीछे पड़ी यदि गिलहरी
चोटी पर चढ़ जाऊँगी।
स्ट्राबरी अपने में ही खोई थी । उसे पता ही न चला
कि कब –कब में बूंद दूसरी दिशा में हवा के साथ उड़ गई । उसे अब दूसरों का भला करना
था ।
समाप्त
(प्रकाशित)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-09-2015) को "सीहोर के सिध्द चिंतामन गणेश" (चर्चा अंक-2111) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अनेक अनेक धन्यवाद ।
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