बाबा की छड़ी/सुधा भार्गव
-बाबा –बाबा, खाना खाने चलो।
-चलता हूँ चलता हूँ –जरा छ्ड़ी तो लेने दे।
-छ्ड़ी लेकर क्या करोगे?मैं हूँ न आपकी छड़ी। लो मेरा हाथ पकड़ लो।
बाबा के चेहरे पर मुस्कान आकर पसर गई।
रसोई के पास आसन बिछाते हुए छुटकी बोली -जूते उतारकर धीरे से
बैठना बाबा।
-माँ –माँ आज मैं बाबा को खाना खिलाऊंगी।
-किसने मना किया है –खिलाओ। उनके सामने पहले मैं
थाली रख दूँ कहीं गेरगार न दे। उसके बाद तुम गरम-गरम रोटी खिलाना।
-पर जरा जल्दी रोटी सेक दो। बाबा को भूख लगी होगी।
क्यों बाबा ठीक कह रही हूँ न।
-रोटी ले जाना छटंकी। है छुटकी सी लेकिन बातों
मे बड़ों -बड़ों के कान काटती है। माँ रसोई से ही बड़बड़ाई।
-ओह बहू डांटो मत।बिटिया तो चिड़िया की तरह चहकती ही
अच्छी लगती है।
छटंकी चिड़िया की तरह फुदकती ही रोटी लाई और बोली -
-बाबा जल्दी से थाली के पास से हाथ हटाओ वरना गरम
फुलके से हाथ जल जाएगा।
बाबा ने आधी रोटी के छोटे छोटे टुकड़े कर के चिड़ियों
को डाल दिए ,चौथाई रोटी का भगवान का भोग लगा हाथ जोड़
लिए।
-अब तो एक गस्सा रह गया,बाबा खाओगे क्या!रुको दूसरी लाती हूँ।
एक रोटी खाते ही बाबा का नाजुक पेट भर गया। बोले –बस
अब मैं खा चुका।
-एक रोटी से पेट भर गया! न –न एक रोटी और लेनी
पड़ेगी।
-बेटा ,अब नहीं खा सकता।
-क्यों? आपने खाया ही
क्या है। अरे आज तो मीठा दही भी नहीं है। माँ—माँ—दही जल्दी लाओ । बाबा उठे जा रहे
हैं। और हाँ जरा ज्यादा सा लाना। उन्होंने रोटी भी कम खाई है।
छुटकी की माँ ने थाली में दही की कटोरी रख दी।
-अरे बहू ,इतना सारा --। तू
भी इस छुटकी के कहने मेँ आ गई।
-ओह!आप खाओ तो ,बचेगा तो मैं खा
लूँगी। देखो बाबा आप ठीक से खाते नहीं हो। तभी कमजोर होते चले जा रहे हो। डॉक्टर
अंकल से आपकी इस बार शिकायत जरूर करूंगी।
-अरे पटाका –ले –सब दही खतम कर देता हूँ। बस खुश!
-खुश –बहु--त खुश!छुटकी ने दोनों हाथ फैला दिए। आप
पानी पीकर अब आराम करने चलो। अरे ,आप तो चल दिए।
अपनी छड़ी को तो भूल गए।
बाबा ने हँसकर उसकी उंगली पकड़ ली।
कमरे मेँ घुसते ही छुटकी का लाउडस्पीकर चालू हो
गया-बाबा पलंग पर झटके से न लेटना- कल आपकी कमर मेँ दर्द हो रहा था। याद है न।
-याद न भी हो तो क्या है!मेरी पटाका ने याद तो दिला
ही दिया।
-बाबा आप तो बड़े भुलक्कड़ होते जा रहे हो। फिर कुछ
भूल रहे हो। छटंकी ने अपना सिर थाम लिया।
बाबा अपनी पोती को चकित से ताकने लगे और पूछा –क्या--?
-उफ!पान।
-बच्चे पान खाने की तो मुझे आदत है—कैसे भूल सकता
हूँ। मैंने आप जान कर पान की नहीं कहा। तुझे फिर एक चक्कर लगाना पड़ता।
-रुको मैं अभी आई—पान लाई।
-तुझे पान लगाना भी आ गया।
-मैं पान नहीं लगा सकती । देखा न पानदान कितनी ऊंचाई पर रखा है। मेरे तो हाथ ही नहीं
पहुँचते। थोड़ी लंबी हो जाऊं फिर पान मैं
ही लगाऊँगी।
-पान तो घर मेँ सब खाते है। पान लगाते लगाते तेरे
नन्हें से हाथ थक जाएंगे।
-छुटकी पल भर को सोच में पड गई। फिर धीरे से बोली –एक
बात कहूँ!
-कह –।
-वो कोई मेरे बाबा है। मैं तो केवल अपने बाबा को
पान लगाऊँगी। फिर मटकती उछलती कमरे से बाहर हो गई।
पोती के प्यार में बाबा भीग कर रह गए और लगा मानो गुलाब से महकते सुखों से उनकी जेबें भर गई
हों।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें