डॉ सुरेन्द्र विक्रम
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हिन्दी बाल साहित्य लेखन की दृष्टि से जिस गंभीरता, धैर्य और अपनापन की माँग करता है, वह जितना श्रमसाध्य है, उतना ही कठिन भी है। एक दौर ऐसा भी आया था जिसमें सबसे ज्यादा बालकविताएँ लिखी जाती थीं।चूँकि उस समय ढेर सारी बालपत्रिकाएँ छपती थीं, इसलिए उसी मात्रा में उनका सृजन भी होता था। बालसाहित्य में नए प्रवेश करने वालों को जानकर आश्चर्य भी हो सकता है कि दिल्ली प्रेस की पत्रिका चंपक में भी बालकविताएँ खूब छपती थीं। पिछले कई वर्षों से चंपक ने बालकविताएँ छापना बिलकुल बंद कर दिया है। पराग में प्रकाशित होने वाली बालकविताएँ तो बेजोड़ होती थीं। इधर सबसे अधिक बाल कविताओं का ही ह्रास हुआ है। छंदविहीन, तुक , लय-ताल से बेताल बाल कविताओं ने कई सवाल भी खड़े किए हैं। सोशल मीडिया और विभिन्न पटलों पर बालकविताएँ धड़ाधड़ छप रही हैं। इनके बीच जब कुछ अच्छी और उल्लेखनीय बालकविताएँ आ जाती हैं तो ऐसा लगता है जैसे रेगिस्तान में पानी की बूँदों से तालाब भरने जा रहा है।
बाल कविताओं के बाद सबसे अधिक बालकहानियाँ लिखी जा रही हैं और छप भी रही हैं। संकलन भी खूब छप रहे हैं। चूँकि बाल उपन्यास और नाटक अधिक श्रम, नवीनतम सोच और आलंकारिक भाषा की माँग करते हैं, इसलिए इन दो विधाओं में सबसे कम रचनाएँ आ रही हैं। स्फुट बालोपयोगी लेखन में सूचनात्मक बालसाहित्य, बालपहेलियाँ, यात्रा वर्णन, रिपोर्ताज, संस्मरण, ज्ञानवर्धक बाल साहित्य भी कम ही लिखा जा रहा है। जब से सरकारी खरीद में सरकारी प्रकाशनों को वरीयता दी जा रही है, तब से प्राइवेट प्रकाशकों ने इनसे किनारा कर लिया है। मेरी इस भूमिका का कारण यह है कि बाल साहित्य में आई इन बदली हुई प्रवृत्तियों ने धीरे -धीरे बहुत नुकसान पहुँचाया है।
पिछले कुछ वर्षों में वार्षिक छपने वाले हिन्दी बाल साहित्य के परिदृश्य पर आलेख लिखने के लिए ढेर सारी प्रकाशित पुस्तकों से गुजरना होता रहा है। पुरस्कार समितियों में आई हुई बालसाहित्य की पुस्तकें भी पढ़ता रहता हूँ। प्रकाशन के लिए जमा की गई पांडुलिपियों से भी गुजरने का अवसर मिलता है। ऐसे में साल भर सैकड़ों पुस्तकों/पांडुलिपियों से साबका होता रहता है। हमारे वरिष्ठ बालसाहित्यकारों ने जो धरोहर हमें सौंपी है, उस पर गर्व करना न केवल हमारा फ़र्ज़ बनता है बल्कि वर्तमान और आगामी पीढ़ी को उनसे परिचित कराना भी हमारा दायित्त्व है।
इसी कड़ी में आज मैं जिस बालसाहित्यकार की चर्चा करने जा रहा हूँ, उन्होंने भले ही मात्रा की दृष्टि से कम लिखा है, लेकिन जो भी लिखा है, उस पर हमें गर्व है क्योंकि वह बच्चों के लिए उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। लगभग 22 वर्षों तक बच्चों के बीच में रहकर हिन्दी भाषा का शिक्षण करने वाली सुधा भार्गव को जितना बाल मनोविज्ञान को पढ़ने का अनुभव है उतना ही उनका बाल-साहित्य सृजन में उल्लेखनीय योगदान है।
अँगूठा चूस ,अहंकारी राजा, जितनी चादर उतने पैर पसार , चाँद सा महल, मन की रानी छतरी में पानी, यादों की रिमझिम बरसात,बाल-झरोखे से-हँसती गुनगुनाती कहानियाँ, जब मैं छोटी थी, मिश्री मौसी का मटका जैसे बालकथा संग्रहों में संकलित उनकी कहानियों को पढ़ते हुए एक आश्वस्ति होती है। एमोजान किंडल पर उनकी कुल 11 पुस्तकें भी उपलब्ध हैं जिनमें अधिकांश बाल-साहित्य की ही हैं। उन्होंने पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों को भी अपनी बाल कहानियों के दायरे में रखा है और उनमें आधुनिक पुट डालकर बच्चों के लिए बिलकुल सरल भाषा में प्रस्तुत किया है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास नई दिल्ली से प्रकाशित जब मैं छोटी थी तथा साहित्यकार, जयपुर से प्रकाशित यादों की रिमझिम बरसात में बचपन की स्मृतियों को इतना सहज और पारदर्शी ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि एक बार पढ़ना शुरू करने पर छोड़ने का मन नहीं करता है। अब तक जब मैं छोटी थी की छह आवृत्तियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित रोशनी के पंख में कुल 20 बालकहानियाँ हैं।
बाल-साहित्य सृजन में कई दशकों का अनुभव समेटे हुए सुधा जी इन कहानियों के बारे में बच्चों से खुद ही बात करती हैं----मेरी ये ज्ञान -विज्ञान की कहानियों के पन्ने पलटते ही तुम चुंबक की तरह खिंचे चले जाओगे और उसकी रोशनी में नहा उठोगे। इन कहानियों में तुम्हारे जैसे नन्हे मुन्ने हैं और उनकी हँसी की रिमझिम फुहार भी है। बादलों सी बरसती- कड़कती नादानियाँ है पशु पक्षियों की चहचहाहट है तो वहीं प्रकृति के राग- रंग और उसके तराने भी हैं इनका आनंद उठाते हुए खेल-खेल में न जान तुम्हें कितनी नई बातें मालूम हो जाएंगी। संग्रह में शामिल गौरी की नूरी, अनोखे दीपक, गंगा सुंदरी, डॉक्टर चावला के चावल आदि सभी कहानियाँ तुम्हारी तरह ही चुलबुली हैं।
उत्सवों का आकाश में कहानियाँ तो केवल 10 ही हैं, लेकिन सभी 20 को मात करने वाली हैं। इनके शीर्षकों से ही आप उनकी उत्कृष्टता और पठनीयता का अंदाजा लगा सकते हैं ----नए वायदे नए कायदे, ओए बल्ले-बल्ले, गुल्लक की करामात, पूत के पाँव पालने में तथा लो मैं आ गया में उन्होंने नई पीढ़ी को न केवल अपनी संस्कृति से अवगत कराया है बल्कि मनोरंजन के साथ -साथ आधुनिक संदर्भ से भी जोड़ा है।
यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सुधा भार्गव जैसी अध्यापिका और बाल-साहित्यकार हो तो बच्चे शैतानी करना भूल सकते हैं।उनकी कहानियों में बच्चों को बाँधकर रखने की अद्भुत क्षमता है। भाषा -शैली ऐसी कि बस मंत्रमुग्ध होकर चाहे पढ़ो या सुनो खुद को भूलने की क्षमता से भरी हुई हैं। सुधा जी जिस तरह से विषयों का चयन करती हैं, तथा उनका प्रस्तुतीकरण होता है, दोनों पाठकों को बहुत दूर तक ले जाते हैं।
ऐसी सुधी बालकहानीकार को पढ़ना निश्चित रूप से बालसाहित्य के गौरव को बढ़ाना है। उम्र के जिस पड़ाव पर हम विश्राम के लिए सोचने लगते हैं, सुधा जी उसे विश्राम नहीं लेने देती हैं। उनका लगातार सक्रिय सृजन उनमें ऐसे ही ऊर्जा का संचार करता रहे और वे बाल-साहित्य का भंडार लगातार भर्ती रहें, ऐसी हमारी शुभकामनाएँ हैं।
sarthak lekh
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