प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

बुधवार, 27 अगस्त 2025

कहानी की किताब -जैमिनी गूगल का कमाल

 

पुस्तक -रसगुल्ला भैया और तितली 


लेखिका -सुधा भार्गव 

चित्रांकन -जेमिनी गूगल 

साथियों ,मैंने जेमिनी गूगल की सहायता से पहली बार किताब तैयार करने की कोशिश की है। पूरी सफलता तो नहीं मिली है। कमियाँ हैं। कहानी मेरी है पर चित्र उसी के बनाए हुए  हैं। इसलिए उनपर copy right जेमिनी गूगल का  ही  है। 

कहानी अवश्य पढ़िएगा। लिंक दी जा रही है। 

https://gemini.google.com/share/8f069054f58dhttps://gemini.google.com/share/8f069054f58d

कहानी 

रसगुल्ला भैया और तितली

वसंत राजा के आने से धरती फूली नहीं समा  रही थी ।लाल नारंगी लहंगा पहने ,हरी चुनरिया ओढ़े लगता था छमछम नाच रही है। रुनक - झुनक आवाज सुन आसमान मेँ गोलमटोल बादल ने धावा बोल दिया। वह तो  धरती की सुंदरता को देख चकित रह गया।  । सोचने लगा-कितना अच्छा हो यदि मैं भी नीचे उतरकर खुशबूदार हवा मेँ गहरी- गहरी सांस लूँ ,कोयल का मीठा- मीठा गाना सुनूं। और तितलियों के साथ हवा मेँ उड़ूँ ।

जैसे ही नीचे को सरका तितली चिल्लाई-

ए रसगुल्ले भैया नीचे न आना । मेरे पर भीग जाएंगे। फिर मैं कैसे उड़ूँगी।

ऊँह अपने पंख देखे हैं!कितने गंदे हैं 1लगता है महीनों से नहाई नहीं है । उफ कितनी बदबू आ रही है।

तितली परेशान सी अपने पंखों को सूंघने लगी-नहीं तो –मेरे पंखों में  तो कोई बदबू नहीं आ रही।

मैंने कहा ना!  –आ रही है।

भोली तितली नटखट बादल की बात को सच मान बैठी। खिसिया कर बोली -तब क्या करूँ बादल भैया!

तुझे कुछ नहीं करना । धरती पर आने से मेरी रिमझिम- रिमझिम फुआरों मेँ सारी धूल फुर्र से पानी में बह जाएगी। देखते ही देखते सारे पेड़-पौधे ,फूल-पत्तियाँ और चिड़ियाँ हीरे मोती की तरह चमकने लगेंगे।

मेरा तो नाम ही नहीं लिया।

अरे तितली बहना –सबसे ज्यादा खूबसूरत  तो तू ही लगेगी।

ठीक है पर ज्यादा गरजना-बरसना नहीं।तेरा कोई विश्वास नहीं!

रसगुल्ला हँसता हुआ धरती की ओर उड़ चला।साथ में बूँदा बूंदी  होने लगी।देखते ही देखते सारी धरती नहा धोकर और भी ज्यादा सुंदर लगने लगी। ठंडी हवा के झोंके जैसे ही तितली से  टकराये  वह तो झूमने लगी। झूमते उड़ते एक फूल पर बैठती, प्यार से उसे सहलाती  फिर उड़ जाती दूसरे फूल पर। बादल को भी सबके बीच बहुत आनंद आ रहा था। 

एकाएक वह ठिठक गया।  तितली के पंख कुछ ज्यादा ही भीग गए थे। वह सोचने लगा -मैं तो यहाँ  खुशियां  देने आया हूँ  किसी को दुखी  करने नहीं। मुझे अब चले जाना चाहिए।” 

तितली उसके मन  की बात जान  गई थी। जैसे ही रसगुल्ले ने  अपनी उड़ान भरी, तितली प्यार से अपने पंख हिलाने लगी ।   

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

साहित्य सप्तक मासिक पत्रिका


मेरी बालकहानी 

लाल ग्रह का मेहमान /सुधा भार्गव 

प्रकाशित -साहित्य सप्तक अंक जुलाई 2025 

संपादक -डॉ नागेश पांडे 

संपादकीय कार्यालय -सेक्टर 4 बी /1048

वसुंधरा ,गाजियाबाद ,

उत्तरप्रदेश 201012 

मोबाइल-08076941157 

पत्रिका की रंगसज्जा व चित्रांकन सुंदर बन पड़ा  है। पृष्ठ का गुलाबीपन मोहक है। इतनी अच्छी पत्रिका के लिए   नागेश जी व उनकी पूरी टीम को बहुत -बहुत बधाई । 




रविवार, 22 जून 2025

डॉ सुरेन्द्र विक्रम की फेस बुक पोस्ट


मेरा बालसाहित्य संसार 

https://www.facebook.com/surendra.vikram.98/posts/10027286957364045




कहानियाँ बालसाहित्य की प्रमुख विधाओं में से एक हैं, जिसे बच्चे खूब पसंद करते हैं। समय-समय पर लिखी गई बालकहानियों में अलग-अलग तेवर देखने को मिलते हैं। कभी परियों को लेकर लिखी गई बाल कहानियों का दौर था तो कभी भूत-प्रेत की कहानियाँ भी बच्चों का मनोरंजन करती थीं। ऐय्यारी , तिलिस्म और जादू-टोने की कहानियों के लिए चंदामामा और गुड़िया जैसी बालपत्रिकाएँ इसीलिए लोकप्रिय थीं कि उन्हें बच्चों से ज्यादा उनके अभिभावकों और माता -पिता पसंद करते थे। अब तो भूतों को भला बताकर भले भूतों की भी कहानियाँ लिखी जा रही हैं, लेकिन उनकी बनावट और बुनावट में महत्त्वपूर्ण साहचर्य भी देखा जा सकता है।
नंदन पत्रिका लंबे समय तक परीकथा विशेषांक प्रकाशित प्रकाशित करती रही, हालांकि परीकथाओं की प्रासंगिकता पर छठें-सातवें-आठवें दशक में ही प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो ग‌ए थे। महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका धर्मयुग में बाकायदा लंबे समय तक धारावाहिक बहस भी चलती रही। परीकथाएँ हमारी धरोहर हैं, अतः हम उनका बहिष्कार किसी भी कीमत पर नहीं कर सकते जबकि दूसरे वर्ग का मत था कि अब वह जमाना गुजर गया जब हम बच्चों को कहानियों के माध्यम से परीकथाएँ देकर खोखली कल्पना के सब्ज़बाग दिखाए करते थे। आज का बच्चा यथार्थ में जी रहा है अतः उसे यथार्थवादी रचनाएँ ही दी जानी चाहिए।
यहाँ यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट है कि पहले की अपेक्षा आज का बालक अधिक समझदार है। वह हर बात को आँख बंदकर स्वीकार नहीं करता है। वह ऊल- जलूल परीकथाओं या भूत-प्रेतों की कहानियों पर प्रश्नचिन्ह लगता है ,और अपना संदेह प्रकट करने में भी नहीं चूकता है ।जो कथानक बच्चों की कल्पना और परिवेश से नहीं जुड़ते हैं, वह उन्हें सहज ही नकार देता है। किसी परी द्वारा जादू की छड़ी घुमाकर महल बनाना आज के बच्चे की कल्पना में संभव नहीं है।
मेरी इस भूमिका का कारण यह है कि विगत 40-50 वर्षों में हिन्दी बालकहानियों में आए बदलावों को समसामयिक परिवेश में अवश्य देखा जाना चाहिए। लोककथाओं के इतने अधिक संस्करण उपलब्ध होने के बावजूद आज भी लोककथाएँ लिखी जा रही हैं। इन्हें सरकारी और गैर-सरकारी प्रकाशन संस्थान धड़ल्ले से छाप भी रहे हैं। निश्चित रूप से बिक रही हैं, तभी तो छप रही हैं। यह सवाल आज भी बना हुआ है कि ये पुस्तकें बच्चों तक कितनी पहुँच रही हैं। पुस्तक की तमाम आवृत्तियों से तो यही लगता है कि स्कूलों में पुस्तकें जा रही हैं, अब बच्चे कितना पढ़ रहे हैं, यह अलग बात है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पुस्तकें केवल आलमारियों की शोभा ही बढ़ा रही हैं। इस पर काफी बहस हो चुकी है, लेकिन यह बहस बिना किसी निष्कर्ष के ही समाप्त भी हो चुकी है।
कल की डाक में सुधार भार्गव जी तीन पुस्तकें उड़क्कू की जीत (बाल उपन्यास), कल जब कथा कहेंगे ( भीबालकहानियाँ) तथा न‌ए भारत का नया सवेरा (बाल उपन्यास) मिलीं तो यह देखकर प्रसन्नता हुई कि तमाम ऊहापोह और अंतर्विरोध के बावजूद अच्छा बाल-साहित्य लिखा जा रहा है और वह सरकारी तथा गैर- सरकारी स्तर पर प्रकाशित भी हो रहा है। इसके पहले सुधा भार्गव जी की पुस्तकों ---मिश्री मौसी का मटका, ककड़िया के भालू ,जब मैं छोटी थी, बुलबुल की नगरी,, अँगूठा चूस तथा अहंकारी राजा को पढ़ते हुए यह अवधारणा बन चुकी है कि वे निर्विवाद रूप से बच्चों की प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित रोशनी के पंख पुस्तक पर हाल ही में मेरी लंबी टिप्पणी फेसबुक पर आ चुकी है।
सुधा भार्गव इतना डूबकर लिखती हैं कि उनकी पुस्तकें पढ़ते समय मन अपने आप एकाग्र होकर जुड़ता चला जाता है। उड़क्कू के बहाने उन्होंने पोस्टकार्ड की कहानी का ऐसा ताना-बाना बुना है कि लंबे समय से चला आ रहा संचार का यह साधन आज भी बरकरार है। हाँ, इतना अवश्य हुआ है कि आधुनिक संचार माध्यमों ने इसकी गति बहुत धीमी बल्कि यह कह लीजिए कि लगभग समाप्त ही कर दी है। सोशल मीडिया के दौर में आज पत्र-लेखन कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। पहले कबूतरों के माध्यम से पत्रों को भिजवाया जाता था, अब यह काम मोबाइल से हो रहा है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित दो पुस्तकें डॉ. साजिद खान की पुस्तक लेटरबाक्स ने पढ़ी चिट्ठियाँ तथा बहुत पहले छपी अरविन्द कुमार सिंह की पुस्तक भारतीय डाक सदियों का सफरनामा पढ़कर भी मैं बहुत दिनों तक इस परंपरा को लेकर सोचता रहा था। उड़क्कू की जीत ने भी मुझे प्रभावित किया।
दोनों पुस्तकें कल जब कथा कहेंगे और न‌ए भारत का नया सवेरा प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, भारत से प्रकाशित हुई हैं जिनमें भी न‌ई सोच और विकसित भारत की कल्पना की गई है। पर्यावरण संरक्षण से ही हम न‌ए भारत की मजबूत परंपरा को विकसित कर सकते हैं। इन पुस्तकों को पढ़ने से पहले सुधा भार्गव की दोनों संक्षिप्त लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ अवश्य पढ़ी जानी चाहिए।
---- यह सर्वदा सत्य है कि कल जब हम कहानी कहेंगे, तो वह आज की कहानियों से भिन्न होंगी। उसमें विज्ञान की लोरियाँ होंगी, व्हाट्सएप पर चुटकुले होंगे, रिमोट कंट्रोल व सनसनी पैदा करने वाले साइबर आक्रमण होंगे। बच्चों को पढ़ाएंगे तो रोबोट्स, कहानी सुनाएँगे तो रोबोट्स। कहानियों में पक्षी- जानवर तो होंगे, पर उनमें भी अधिकतर रोबो ही होंगे। प्राकृतिक और अप्राकृतिक जीवो में अंतर करना मुश्किल हो जाएगा। यहाँ तक कि दादी- बाबा की देखभाल भी मानव रोबोट करेंगे। इससे लोगों की सोच बदलेगी।सोच का प्रभाव जीवन- शैली पर पड़ेगा। यह कृत्रिम बुद्धि का धमाका उन कहानियों को आकर देगा, जिन्हें हम कल पढ़ने वाले हैं।




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रविवार, 8 जून 2025

समीक्षा -डॉ सुरेन्द्र विक्रम /10 मार्च 2025

रोशनी के पंख 

सुधा भार्गव 

मेरा बालसाहित्य संसार 

 https://www.facebook.com/share/p/16YmwLYeUU/


रोशनी के पंख: सुधा भार्गव
हिन्दी बालसाहित्य लेखन की दृष्टि से जिस गंभीरता, धैर्य और अपनापन की माँग करता है, वह जितना श्रमसाध्य है, उतना ही कठिन भी है। एक दौर ऐसा भी आया था जिसमें सबसे ज्यादा बालकविताएँ लिखी जाती थीं। चूँकि उस समय ढेर सारी बालपत्रिकाएँ छपती थीं, इसलिए उसी मात्रा में उनका सृजन भी होता था। बालसाहित्य में न‌ए प्रवेश करने वालों को जानकर आश्चर्य भी हो सकता है कि दिल्ली प्रेस की पत्रिका चंपक में भी बालकविताएँ खूब छपती थीं। पिछले क‌ई वर्षों से चंपक ने बालकविताएँ छापना बिलकुल बंद कर दिया है। पराग में प्रकाशित होने वाली बालकविताएँ तो बेजोड़ होती थीं। इधर सबसे अधिक बाल कविताओं का ही ह्रास हुआ है। छंदविहीन, तुक , लय-ताल से बेताल बाल कविताओं ने क‌ई सवाल भी खड़े किए हैं। सोशल मीडिया और विभिन्न पटलों पर बालकविताएँ धड़ाधड़ छप रही हैं। इनके बीच जब कुछ अच्छी और उल्लेखनीय बालकविताएँ आ जाती हैं तो ऐसा लगता है जैसे रेगिस्तान में पानी की बूँदों से धीरे-धीरे ही सही लेकिन संभावनाओं का तालाब भरने जा रहा है।
बाल कविताओं के बाद सबसे अधिक बालकहानियाँ लिखी जा रही हैं और छप भी रही हैं। संकलन भी खूब छप रहे हैं। चूँकि बाल उपन्यास और नाटक अधिक श्रम, नवीनतम सोच और आलंकारिक भाषा की माँग करते हैं, इसलिए इन दो विधाओं में सबसे कम रचनाएँ आ रही हैं। स्फुट बालोपयोगी लेखन में सूचनात्मक बालसाहित्य, बालपहेलियाँ, यात्रा वर्णन, रिपोर्ताज, संस्मरण, ज्ञानवर्धक बाल साहित्य भी कम ही लिखा जा रहा है। जब से सरकारी खरीद में सरकारी प्रकाशनों को वरीयता दी जा रही है, तब से प्राइवेट प्रकाशकों ने इनसे किनारा कर लिया है। मेरी इस भूमिका का कारण यह है कि बालसाहित्य में आई इन बदली हुई प्रवृत्तियों ने धीरे -धीरे बहुत नुकसान पहुँचाया है।
पिछले कुछ वर्षों में वार्षिक छपने वाले हिन्दी बालसाहित्य के परिदृश्य पर आलेख लिखने के लिए ढेर सारी प्रकाशित पुस्तकों से गुजरना होता रहा है। पुरस्कार समितियों में आई हुई बालसाहित्य की पुस्तकें भी पढ़ता रहता हूँ। प्रकाशन के लिए जमा की गई पांडुलिपियों से भी गुजरने का अवसर मिलता है। ऐसे में साल भर सैकड़ों पुस्तकों/पांडुलिपियों से साबका होता रहता है। हमारे वरिष्ठ बालसाहित्यकारों ने जो धरोहर हमें सौंपी है, उस पर गर्व करना न केवल हमारा फ़र्ज़ बनता है बल्कि वर्तमान और आगामी पीढ़ी को उनसे परिचित कराना भी हमारा दायित्त्व है।
इसी कड़ी में आज मैं जिस वरिष्ठ बालसाहित्यकार की पुस्तक पर चर्चा करने जा रहा हूँ, वह बच्चों के लिए प्रेरक, पठनीय और संग्रहणीय है। उन्होंने जो भी लिखा है, वह पूरी तैयारी के साथ लिखा है और उस पर हमें गर्व है क्योंकि वह बच्चों के लिए आवश्यक भी है। लगभग 22 वर्षों तक बच्चों के बीच में रहकर हिन्दी भाषा का शिक्षण करने वाली सुधा भार्गव को जितना बालमनोविज्ञान को समझने का अनुभव है, उतना ही उनका बालसाहित्य सृजन में उल्लेखनीय योगदान है।
अँगूठा चूस ,अहंकारी राजा, जितनी चादर उतने पैर पसार , चाँद सा महल, मन की रानी छतरी में पानी, यादों की रिमझिम बरसात,बाल-झरोखे से-हँसती गुनगुनाती कहानियाँ, जब मैं छोटी थी, मिश्री मौसी का मटका, ककड़ियां के भालू, धूप की खिड़कियाँ, कल जब कथा कहेंगे, बुलबुल की नगरी, उड़क्कू की जीत, न‌ए भारत का नया सवेरा तथा रोशनी के पंख जैसे बालकथा संग्रहों और उपन्यासों में संकलित उनके अनुभवों को पढ़ते हुए एक आश्वस्ति होती है। एमेजान किंडल पर उनकी कुल 11 पुस्तकें भी उपलब्ध हैं जिनमें अधिकांश बालसाहित्य की ही हैं। उन्होंने पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों को भी अपनी बाल कहानियों के दायरे में रखा है और उनमें आधुनिक पुट डालकर बच्चों के लिए बिलकुल सरल भाषा में प्रस्तुत किया है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास न‌ई दिल्ली से प्रकाशित जब मैं छोटी थी तथा साहित्यकार, जयपुर से प्रकाशित यादों की रिमझिम बरसात में बचपन की स्मृतियों को इतना सहज और पारदर्शी ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि एक बार पढ़ना शुरू करने पर छोड़ने का मन नहीं करता है। अब तक जब मैं छोटी थी की छह आवृत्तियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी अन्य पुस्तकों की भी क‌ई आवृत्तियाँ आ चुकी हैं।
हाल ही में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित रोशनी के पंख में कुल 20 बालकहानियाँ हैं। बालसाहित्य सृजन में क‌ई दशकों का अनुभव समेटे हुए सुधा जी इन कहानियों के बारे में बच्चों से खुद ही बात करती हैं----"मेरी ये ज्ञान-विज्ञान की कहानियों के पन्ने पलटते ही तुम चुंबक की तरह खिंचे चले जाओगे और उसकी रोशनी में नहा उठोगे। इन कहानियों में तुम्हारे जैसे नन्हे मुन्ने हैं और उनकी हँसी की रिमझिम फुहार भी है। बादलों सी बरसती- कड़कती नादानियाँ है पशु पक्षियों की चहचहाहट है तो वहीं प्रकृति के राग- रंग और उसके तराने भी हैं‌ इनका आनंद उठाते हुए खेल-खेल में न जान तुम्हें कितनी नई बातें मालूम हो जाएंगी। संग्रह में शामिल गौरी की नूरी, अनोखे दीपक, गंगा सुंदरी, डॉक्टर चावला के चावल आदि सभी कहानियाँ तुम्हारी तरह ही चुलबुली हैं।"
तथ्य तो यह भी है कि इस पुस्तक में विज्ञान के साथ -साथ पर्यावरण, प्रकृति -परिवेश, स्वच्छता और बचपन को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। इनमें एक ओर अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा का उद्घोष है तो दूसरी ओर रोचकता और मनोरंजन का बोलबाला है। ये कहानियाँ बच्चों की सघन परिकल्पना में डूबकर लिखी गई हैं। इक्कीसवीं सदी में जी रहे बच्चों के लिए उनके बदलते परिवेश और मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर लिखा गया बालसाहित्य ही उन्हें चुनौतियों से लड़ने की शक्ति प्रदान कर सकता है, और मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है कि वह शक्ति सुधा भार्गव की रचनाओं में आसानी से देखी और समझी जा सकती है।
कहा जाता है कि भारत देश में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। इसका सीधा-सा मतलब यही था कि दूध की उपलब्धता के लिए घरों में गाएँ पाली जाती थीं तो बच्चों का उनसे स्वयमेव रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता था। कहानी में यही अनुराग धीरे -धीरे सारंगी को नूरी से और आगे चलकर उसकी बच्ची गौरी से हो जाता है। अमूमन दूध दुहते समय गाय के बच्चे को दूर खूँटे से बाँधकर पूरा दूध निकाल लिया जाता रहा है। ऐसे में अपने बच्चे को भूखे पेट देखकर गाय उदास हो जाती है। उसका सारंगी से वार्तालाप हमारी संवेदना को झकझोर देता है ----"सारंगी! कल मैंने दूध कम दिया था। दद्दा ने सोचा नूरी कुछ ज्यादा ही दूध पी गई है , इसलिए आज उन्होंने पहले नूरी को मुझसे दूर खूँटे से बाँध दिया फिर सारा दूध निकाल लिया। मैं खड़ी खड़ी लाचार अपने भूखे बच्चे को तड़पता देखती रही। उसके हिस्से का दूध तुम सबके लिए देती रही। यह कैसी मजबूरी है- मेरा बच्चा मेरे दूध के लिए तड़पे और उसके हिस्से का दूध दूसरों की भूख मिटाए।" (पृष्ठ 5)
हम ऐसी घटनाओं से प्रायः रू-ब-रू होते हैं लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। कहानीकार ने इसमें संवेदना का ऐसा पुट डाला है कि सारंगी का बालमन पूरी तरह विचलित हो जाता है, और वह भूख हड़ताल कर देता है। वह अपनी भूख हड़ताल इसी शर्त पर तोड़ता है कि न नूरी भूखी रहेगी और न उसकी माँ उदास होगी।
अनोखे दीपक कहानी में मनमौजी इकोफ्रैंडली गोबर के दीपक बनाकर हर साल मनाई जिन्हें वाली दीपावली के बहाने समाज में एक न‌ई पहल करता है जिसका भरपूर स्वागत किया जाता है। अलगुल्लू की रसभरी और छम चमाचम लट्टू में कहानियों में आपसी रिश्तों की मिठास और समय की प्रतिबद्धता देखने को मिलती है। आंकछू-आंकछी कहानी में अंधविश्वास का खुलासा किया गया है। ऐसा माना जाता है कि कहीं जाते समय टोंकना या छींक आ जाना अशुभ का प्रतीक होता है। कुछ लोग इसे यहाँ तक मानते हैं कि अपनी यात्रा ही स्थगित कर देते हैं, जबकि छींक आने कारण अंदर की सफाई हो जाती है। सच्चाई तो यह भी है कि—-”छींकने से बीमारी के जो बैक्टीरिया बाहर निकलते हैं वह इतने छोटे होते हैं कि उन्हें आँख से दिखाई देने का सवाल ही नहीं उठता। इसके अलावा उनकी स्पीड चीते की तरह तेज होती है, फिर सामने वाला कैसे बच सकता है। उसके बाहर जाने का मतलब अपने साथ बैक्टीरिया ले जाना और अन्य लोगों के बीच फैलाना। बैक्टीरिया नाक और मुँह के जरिए ही तो अंदर जाते हैं। कोरोना के कारण इसीलिए तो मास्क लगाना जरूरी हो गया था।” (पृष्ठ 28)
अगली कहानी सुरजिया की पालकी में सूरजमुखी कटल्लू को अपनी दास्तान सुनाता है, यह दास्तान उसकी दिनचर्या का हिस्सा होने के साथ -साथ उसका दुख-दर्द भी छिपाए हुए है। सूरज की चाल में ही अपनी गतिविधियों को संचालित करने वाला सूरजमुखी कटल्लू को अपनी उपयोगिता बताते हुए कहता है कि –”कटल्लू! तुम्हें मालूम है, मैं सौ दर्दों की एक दवा हूँ। आँख, कान, दाँत और पेट का दर्द चुटकी बजाते ही गायब कर देता हूँ। खुशबू नहीं है मुझ में तो क्या हुआ?” (पृष्ठ 34)
इसीलिए अपने अस्तित्त्व को संकट में जानकार सूरजमुखी कटल्लू से गिड़गिड़ाते हुए कहता है कि—--”मेरे मुरझाने के बाद ही बीज सूखते हैं, तभी तो कोई उन्हें खाता है। तोता तो मेरा दुश्मन है, जीते जी वह मेरे बीज नोचेगा, तो दर्द होगा न। मेरी सुंदर कोमल पंखुड़ियाँ टूटकर बिखर जाएँगी। मुझे छोड़कर न जाओ, मुझे बचा लो दोस्त।” (पृष्ठ 36)
संग्रह की अन्य कहानियों में जादू भरी थैली, गंगा सुंदरी, लाल मुँह का जेंटलमैन, खुशी का खजाना, चुलबुल के मोजे, बैसाखी रानी का बिगुल, ढिशुम ढिशुम ढाएँ-ढाँए, डॉक्टर चावला के चावल, चुंबक चूँ, चॉकलेटी डांसर, घर-घर तुलसी, सतरंगी रोशनी वाला, चार अआँखों की चौकड़ी तथा हीरो हो गया जीरो कहीं न कहीं पाठकों को ऐसा बाँधकर रखती हैं कि एक के बाद दूसरी कहानी पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ती ही चली जाती है। इन सभी कहानियों की कहन-शैली और संवादों का इतना सुन्दर सुयोग है कि लगभग 100 पृष्ठों की पुस्तक कहीं से भी बोझिल नहीं लगती है। शिवानी के रंगीन चित्र कहानियों की कथावस्तु को बड़ी संजीदगी से उभारने का सफल प्रयास करते हैं।
पूरी पुस्तक पढ़कर यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सुधा भार्गव जैसी अध्यापिका और बालसाहित्यकार हों तो बच्चे उनकी कहानियों में रमकर शैतानी करना भूल सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनकी कहानियों में बच्चों को बाँधकर रखने की अद्भुत क्षमता है। भाषा -शैली ऐसी कि बस मंत्रमुग्ध होकर चाहे पढ़ो या सुनो, सब खुद को भूलने की क्षमता से भरी हुई हैं। सुधा जी जिस तरह से विषयों का चयन करती हैं, तथा उनका प्रस्तुतीकरण होता है, दोनों पाठकों को सोचते -सोचते बहुत दूर तक ले जाते हैं।
ऐसी सुधी बालकहानीकार को पढ़ना निश्चित रूप से बालसाहित्य के गौरव को बढ़ाना है। उम्र के जिस पड़ाव पर हम विश्राम के लिए सोचने लगते हैं, सुधा जी उसे विश्राम नहीं लेने देती हैं। उनका लगातार सक्रिय सृजन उनमें ऐसे ही ऊर्जा का संचार करता रहे और वे बाल-साहित्य का भंडार लगातार भर्ती रहें, ऐसी हमारी शुभकामनाएँ हैं।
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