प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

गुरुवार, 20 नवंबर 2025

उड़क्कू की जीत( 2025 ) डॉ सुरेन्द्र विक्रम जी के विचार

 

बाल उपन्यास 

         प्रथम संस्करण  2025 

      

 डिजिटल युग में भावनाओं और संवेदनाओं के अभाव में मोबाइल पर हैलो-हाय होने लगी है। प्यार भरे रिश्तों में औपचारिकता नजर आती है। बच्चे क्या बड़े क्या !पत्र लिखना तो भूल ही गए हैं। जो हमारी परम्पराओं  एक हिस्सा थी उसे ताक पर रख दिया है। । युगयुगों से संदेशा ले जाने वाली चिट्ठी का किसी न किसी रूप में बोलबाला रहा। अपने प्रिय की चिट्ठी का लोगों को इंतजार रहता । पढ़ते समय आत्मविभोर हो खुशी  के आँसू टपक पड़ते । और तो और अपने बेटे-बेटी की याद आती तो एक पत्र को माँ-बाप बार बार पढ़ते। कुछ लोगों ने आज तक अपने प्रिय जनों के पत्र स्मृति स्वरूप सुरक्षित रख छोड़े  हैं। जो बात पत्र में वह मोबाइल की कुछ पंक्तियों में कहाँ?यही देख और सोचकर मैंने पत्र  लेखन शैली को ओर ध्यान आकर्षित करने का निश्चय किया और उड़क्कू की जीत उपन्यास का जन्म हुआ। 
इस उपन्यास के चित्र ,छपाई व पेपर की गुणवत्ता प्रशंसनीय हैं। इसके लिए प्रकाशन विभाग और उसकी पूरी टीम की मैं बहुत -बहुत आभारी हूँ।
डॉ सुरेन्द्र विक्रम जी ने इस उपन्यास के बारे में लिखा है ---सुधा भार्गव इतना डूबकर लिखती हैं कि उनकी पुस्तकें पढ़ते समय ,मन अपने आप एकाग्र होकर जुड़ता चला जाता है। उड़क्कू के बहाने उन्होंने पोस्टकार्ड की कहानी का ऐसा ताना-बाना बुना है कि लंबे समय से चला आ रहा संचार का यह साधन आज भी बरकरार है। हाँ, इतना अवश्य हुआ है कि आधुनिक संचार माध्यमों ने इसकी गति बहुत धीमी बल्कि यह कह लीजिए कि लगभग समाप्त ही कर दी है। सोशल मीडिया के दौर में आज पत्र-लेखन कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। पहले कबूतरों के माध्यम से पत्रों को भिजवाया जाता था, अब यह काम मोबाइल से हो रहा है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित दो पुस्तकें डॉ. साजिद खान की पुस्तक लेटरबाक्स ने पढ़ी चिट्ठियाँ तथा बहुत पहले छपी अरविन्द कुमार सिंह की पुस्तक भारतीय डाक सदियों का सफरनामा पढ़कर भी मैं बहुत दिनों तक इस परंपरा को लेकर सोचता रहा था। उड़क्कू की जीत ने भी मुझे प्रभावित किया।
सुरेन्द्र विक्रम जी ने अपना अमूल्य समय देकर अपना मंतव्य बताया ॥इसकेलिए उनका बहुत बहुत धन्यवाद ।

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