बुलबुल की नगरी'- बच्चों के खेल-खिलौने और गुड़ियों की दुनिया से रूबरू कराता बाल-उपन्यास, प्रसिद्ध लेखिका सुधा भार्गव ने रचा है।
https://twitter.com/DPD_India/status/1661603249093480448?t=VVIC7HERk4sGbqoua8ypAw&s=08
बुलबुल की नगरी -विडिओ
बुलबुल की नगरी'- बच्चों के खेल-खिलौने और गुड़ियों की दुनिया से रूबरू कराता बाल-उपन्यास, प्रसिद्ध लेखिका सुधा भार्गव ने रचा है।
https://twitter.com/DPD_India/status/1661603249093480448?t=VVIC7HERk4sGbqoua8ypAw&s=08
बुलबुल की नगरी -विडिओ
वरिष्ठ साहित्यकार -संजीव जायसवाल ‘संजय’ जी को जैसे ही मैंने यादों की रिमझिम बरसात पुस्तक भेजी उन्होंने उसकी समीक्षा करके मेरा मनोबल बढ़ाया। उनकी तत्परता,सूक्ष्म निरीक्षणता व गहनता की हमेशा आभारी रहूँगी।
हाल
ही में वरिष्ठ रचनाकार सुधा भार्गव जी का बाल कहानी संग्रह ‘यादों की रिमझिम
बारिश’ पढ़ने का अवसर मिला. वास्तव में ये कहानियों का संग्रह न होकर एक आईना है
जिसमें झांकते हुए हम उतरते जाते हैं एक अनोखी दुनिया में. जहाँ हमारा बचपन हैं और
हैं हमारी नटखट शरारतें और मासूम हरकतें. जो इस आईने में देखेगा उसे अपना ही अक्श
नज़र आएगा और मन के किसी कोने से आवाज़ आयेगी ‘अरे,
यह सब तो हमने भी किया है. लगता
है किसी ने मेरे बचपन की यादों को चुरा कर उन्हें कहानी का रूप दे दिया है.’ जी
हाँ लेखिका भी स्वीकार करती हैं कि ये उनकी ‘आत्मकहानियाँ’ है. अर्थात अपनी
आत्मकथा के बचपन वाले भाग को उन्होंने कहानियों का रूप देकर बहुत खूबसूरती के साथ
पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.
अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बचपन कमोवेश सभी का एक ही
तरह का होता है. मां-बाप की आँखों का तारा. अलमस्त जिन्दगी, दूध पीने के
लिए नखरा, लट्टू
चलाने की उमंग, छुप-छुपाकर
बर्फ का गोला खाना, बन्दर-भालू
का नाच देखने के लिए दौड़ लगाना, बरसात में भीगते हुए कागज़ की नाव चलाना, होली का
हुडदंग. इस पुस्तक में यह सब कुछ देखने को मिलेगा लेकिन लेखिका की यादों की चाशनी
में लिपटी हुई कहनियों के रूप में. सुधा जी ने जिस खूबसूरती से अपनी बचपन की यादों
को एक माला के रूप में पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है.
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने इन
कहानियों के माध्यम से देश-समाज में हो रहे बदलावों और प्रगति को भी झलकाया है. पहली
कहानी ‘जादू का तमंचा’ इसकी एक बानगी है. भाई दिन भर लकड़ी के लट्टू में डोरी बाँध
कर नचाया करता है और छोटी बहन उसे देख कर ललचाया करती है. उन दिनों ऐसे ही टट्टू
मिलते थे. बाद में पिता दिल्ली से तमंचे की शक्ल वाला खिलौना ला देते है जिससे बटन
दबाने पर लट्टू निकलकर नाचने लगता है. उन दिनों केवल बड़े शहरों में ही ऐसे खिलोने
मिलते थे और बड़े बुजुर्ग उन्हें लाकर बच्चों को बदलाव की झलक दिखलाया करते थे. एक
और कहानी है ‘जादुई मुर्गी’ जो दबाने पर पेट से अंडा निकालने वाली प्लास्टिक की
मुर्गी के उपर आधारित है. हम सभी ने इस खिलौने के साथ खूब खेला है. ऐसी कई
कहानियां हैं जो बचपन की याद देला देती हैं किन्तु कहानी ‘बाल लीला’ सबसे मजेदार
लगी. इसमें स्कूल में ‘कृष्णलीला’ का नाटक होना था. किन्तु यशोदा की भूमिका निभा
रही बच्ची गलती से कृष्ण से कह बैठती है ‘क्यों रे बलराम आज तूने फिर मटकी से माखन
चुराया’ यह बात कृष्ण बनी बच्ची को,
जो लेखिका खुद थीं, नागवार
गुजरती है और वह मंच पर ही चिल्ला कर कहती है,’
अरे यह तो गलत बोल रही है अब मैं
क्या करूँ.’’
मंच के पीछे खडी टीचर चिल्लाकर
बच्चों को अपना-अपना संवाद बोलने के लिए कहती है लेकिन बाल हाठ तो बाल हठ. कृष्ण
भी गुस्से से कहते है.” मैया तू तो मेरा नाम ही भूल गई. जब तक मुझे कृष्ण नहीं
कहोगी मैं तुमसे बात नहीं करूंगा.’ उसके बाद हंसी के ठहाकों के बीच बच्चों ने अपनी
त्वरित बुद्धी से जिस तरह नाटक को संभाला उसके लिए बाद में प्रिंसिपल मैडम ने भी बच्चों
की पीठ थपथपाई.
भुत-भूतनी का अस्तित्व नहीं होता है लेकिन उनको लेकर
बच्चों को अक्सर डरवाया जाता है. इस विषय को भी लेकर एक मजेदार कहानी है ‘भूत
भुतला की चिपटनबाजी’ जो फोथों पर मुस्कान ले आती है.
ऐसे कई और मजेदार प्रसंग है इस संग्रह की कहानियों
में जो डिजटल युग के आधुनिक बच्चों को अपनी विरासत से परिचित करवाएंगी और बतायेंगी
कि उनके माता-पिता और दादा-दादी का बचपन कैसा होता था. इस द्रष्टिकोण से यह पुस्तक
बच्चों का मनोरंजन तो करेगी ही, अभिभावकों को भी उनके बचपन की एक बार फिर से सैर
करायेगी. अतः यह पुस्तक हर पीढ़ी के पाठकों के पढने के योग्य है. लेखिका ने संग्रह
का शीर्षक ‘यादों के रिमझिम बरसात’ उसके विषय वस्तु के बिलकुल अनुकूल रखा है. सुधा
जी की कई पुस्तकें पहले भी आकर चर्चित हो चुकी हैं,
मैं उनकी इस पुस्तक की भी सफलता
के मंगलकामना करता हूँ. इस सजिल्द पुस्तक का प्रकाशन ‘साहित्यसागर’ प्रकाशन जयपुर
ने किया है और इसकी कीमत २५० रुपये है.
बचपन की सौगात
हाल
ही में वरिष्ठ रचनाकार सुधा भार्गव जी का बाल कहानी संग्रह ‘यादों की रिमझिम
बारिश’ पढ़ने का अवसर मिला. वास्तव में ये कहानियों का संग्रह न होकर एक आईना है
जिसमें झांकते हुए हम उतरते जाते हैं एक अनोखी दुनिया में. जहाँ हमारा बचपन हैं और
हैं हमारी नटखट शरारतें और मासूम हरकतें. जो इस आईने में देखेगा उसे अपना ही अक्श
नज़र आएगा और मन के किसी कोने से आवाज़ आयेगी ‘अरे,
यह सब तो हमने भी किया है. लगता
है किसी ने मेरे बचपन की यादों को चुरा कर उन्हें कहानी का रूप दे दिया है.’ जी
हाँ लेखिका भी स्वीकार करती हैं कि ये उनकी ‘आत्मकहानियाँ’ है. अर्थात अपनी
आत्मकथा के बचपन वाले भाग को उन्होंने कहानियों का रूप देकर बहुत खूबसूरती के साथ
पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.
अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बचपन कमोवेश सभी का एक ही
तरह का होता है. मां-बाप की आँखों का तारा. अलमस्त जिन्दगी, दूध पीने के
लिए नखरा, लट्टू
चलाने की उमंग, छुप-छुपाकर
बर्फ का गोला खाना, बन्दर-भालू
का नाच देखने के लिए दौड़ लगाना, बरसात में भीगते हुए कागज़ की नाव चलाना, होली का
हुडदंग. इस पुस्तक में यह सब कुछ देखने को मिलेगा लेकिन लेखिका की यादों की चाशनी
में लिपटी हुई कहनियों के रूप में. सुधा जी ने जिस खूबसूरती से अपनी बचपन की यादों
को एक माला के रूप में पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है.
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने इन
कहानियों के माध्यम से देश-समाज में हो रहे बदलावों और प्रगति को भी झलकाया है. पहली
कहानी ‘जादू का तमंचा’ इसकी एक बानगी है. भाई दिन भर लकड़ी के लट्टू में डोरी बाँध
कर नचाया करता है और छोटी बहन उसे देख कर ललचाया करती है. उन दिनों ऐसे ही टट्टू
मिलते थे. बाद में पिता दिल्ली से तमंचे की शक्ल वाला खिलौना ला देते है जिससे बटन
दबाने पर लट्टू निकलकर नाचने लगता है. उन दिनों केवल बड़े शहरों में ही ऐसे खिलोने
मिलते थे और बड़े बुजुर्ग उन्हें लाकर बच्चों को बदलाव की झलक दिखलाया करते थे. एक
और कहानी है ‘जादुई मुर्गी’ जो दबाने पर पेट से अंडा निकालने वाली प्लास्टिक की
मुर्गी के उपर आधारित है. हम सभी ने इस खिलौने के साथ खूब खेला है. ऐसी कई
कहानियां हैं जो बचपन की याद देला देती हैं किन्तु कहानी ‘बाल लीला’ सबसे मजेदार
लगी. इसमें स्कूल में ‘कृष्णलीला’ का नाटक होना था. किन्तु यशोदा की भूमिका निभा
रही बच्ची गलती से कृष्ण से कह बैठती है ‘क्यों रे बलराम आज तूने फिर मटकी से माखन
चुराया’ यह बात कृष्ण बनी बच्ची को,
जो लेखिका खुद थीं, नागवार
गुजरती है और वह मंच पर ही चिल्ला कर कहती है,’
अरे यह तो गलत बोल रही है अब मैं
क्या करूँ.’’
मंच के पीछे खडी टीचर चिल्लाकर
बच्चों को अपना-अपना संवाद बोलने के लिए कहती है लेकिन बाल हाठ तो बाल हठ. कृष्ण
भी गुस्से से कहते है.” मैया तू तो मेरा नाम ही भूल गई. जब तक मुझे कृष्ण नहीं
कहोगी मैं तुमसे बात नहीं करूंगा.’ उसके बाद हंसी के ठहाकों के बीच बच्चों ने अपनी
त्वरित बुद्धी से जिस तरह नाटक को संभाला उसके लिए बाद में प्रिंसिपल मैडम ने भी बच्चों
की पीठ थपथपाई.
भुत-भूतनी का अस्तित्व नहीं होता है लेकिन उनको लेकर
बच्चों को अक्सर डरवाया जाता है. इस विषय को भी लेकर एक मजेदार कहानी है ‘भूत
भुतला की चिपटनबाजी’ जो फोथों पर मुस्कान ले आती है.
ऐसे कई और मजेदार प्रसंग है इस संग्रह की कहानियों
में जो डिजटल युग के आधुनिक बच्चों को अपनी विरासत से परिचित करवाएंगी और बतायेंगी
कि उनके माता-पिता और दादा-दादी का बचपन कैसा होता था. इस द्रष्टिकोण से यह पुस्तक
बच्चों का मनोरंजन तो करेगी ही, अभिभावकों को भी उनके बचपन की एक बार फिर से सैर
करायेगी. अतः यह पुस्तक हर पीढ़ी के पाठकों के पढने के योग्य है. लेखिका ने संग्रह
का शीर्षक ‘यादों के रिमझिम बरसात’ उसके विषय वस्तु के बिलकुल अनुकूल रखा है. सुधा
जी की कई पुस्तकें पहले भी आकर चर्चित हो चुकी हैं,
मैं उनकी इस पुस्तक की भी सफलता
के मंगलकामना करता हूँ. इस सजिल्द पुस्तक का प्रकाशन ‘साहित्यसागर’ प्रकाशन जयपुर
ने किया है और इसकी कीमत २५० रुपये है.
-संजीव
जायसवाल ‘संजय’
कहानी प्रतियोगिता सम्मान
ताबड़तोड़ बड़ा ही नटखटिया था। कोई भी औटोमेटिक खिलौना उसके हाथ लग गया तो समझो उसकी खैर नहीं। एक बार उसके पापा छोटी सी कार लाए जो पिछले दो पहियों के ज़मीन पर रगड़ने से चुहिया की तरह भागने लगती थी। दो दिन तो उसको खूब दौड़ाया फिर गौर से उलटपलट कर देखने लगा। कहीं से स्क्रू ड्राइवर भी ढूँढ निकाला और पुर्ज़ा -पुर्ज़ा ढीलाकर उसका दम ही निकाल दिया।
“बेटा यह क्या किया?”
“पापा देख रहा था यह कैसे दौड़ती है?”
पापा उसकी नादानी देख मुस्करा दिए। तो ऐसा था वह बड़ी -बड़ी आँखों वाला नन्हा मुन्ना। उसकी इस आदत के कारण उसका नाम भी पड़ गया ताबड़तोड़।
ताबड़तोड़ जहां रहता था वहाँ पास -पास बड़े -बड़े बंगले थे।हर बंगला रंगबिरंगे खिलखिलाते फूलों से ढका था।सड़क के किनारे पेड़ों पर अमरूद,अनार ,आम झूमते दिखाई देते। ताबड़तोड़ इस हंसती प्रकृति में खोया हुआ अक्सर घूमने निकल जाता ।
एक दिन उसने एक घर के बाहर बिल्ली की पेंटिंग लगी देखी। उसे वह बहुत प्यारी लगी। दूसरे दिन घूमने निकला तो वह बिल्ली वाले घर की ओर मुड़े बिना न रहा। । फ़्रेम में क़ैद बिल्ली की पेंटिंग को देख उसे लगा जैसे वह अभी बोल पड़ेगी। तभी दरवाज़ा से दो बिल्ली के बच्चे उसे घूरते निकले। दोनों की पूँछें हवा में लहरा रही थीं मानो उछलकर वे ताबड़तोड़ से टकराना चाहती हों। अब उसकी समझ में आया है यह बिल्लियों का घर है। वह उनका घर देखने को उत्सुक हो उठा। जैसे ही उसने उधर कदम बढ़ाया टिम्मी बिल्ली रास्ता रोककर खड़ी हो गई। पंजे दिखाते बोली-“ख़बरदार जो एक कदम भी आगे बढ़ाया। टमटमाटे भागोगे।”
दूसरी बिल्ली पम्मी को उसकी बात अच्छी नहीं लगी। वह अपने स्वर को कोमल बनाते बोली-“छोटे बच्चे ,तुम हमारे भाई -बहनों को पकड़कर ले जाते हो। हम उनकी याद में रोते रहते हैं । इसलिए तुम इस घर में नहीं घुस सकते।”
शोरशराबा सुन एक बूढ़ी बिल्ली भी आँखों पर चश्मा चढ़ाये आ गई । हाथ में बेलन भी था ताकि कोई दुश्मन हो तो उसकी मरम्मत कर दे। पर भोले से बच्चे को खड़ा देख उसे उस पर प्यार आ गया। टिम्मी- पम्मी को लताड़ते बोली -“क्यों नाहक इस बच्चे को परेशान कर रही हो। देख नहीं रही हो कितना मासूम लगता है।”
फिर वह ताबड़तोड़ से बोली “बेटे तुम्हें क्या चाहिए। भूखे हो क्या ? अंदर आ जाओ। दूध रोटी खाने को मिलेगी ।”उसने मीठी आवाज़ में कहा।
“बिल्ली मौसी भूख भी लगी है और मैं तुम्हारा घर भी देखना चाहता ही। घर तो बहुत देखे पर बिल्लियों का घर !पहले कभी नहीं सुना।”
“तुम्हारा नाम क्या है बच्चे ?”
“ताबड़तोड़।”
" ऐं,क्या कहा ! ताबड़तोड़! तोड़फोड़ करने वाला।”वह चौंक गई।
“मौसी मैं कोई नुक़सान नहीं करूँगा ,कुछ नहीं छूऊँगा। मेरा विश्वास करो।” वह गिड़गिड़ाने लगा।
“ठीक है, ठीक है । आ जाओ अंदर।”
घुसते ही वह तो आश्चर्य के समुंदर में डूबता चला गया। एक तरफ़ डाइनिंग टेबल पर बैठे सफ़ेद भूरी आँखों वाले बच्चे दूध रोटी खा रहे थे। नीचे चटाई पर बिल्ली मास्टरनी दो बच्चों को कुछ पढ़ा रही थी। किताबें उनके सामने खुली थीं। दूसरी चटाई पर दो शैतान कैरम खेल रहे थे। बात बात पर नोकझोंक भी चल रही थी।
"मौसी यहाँ तो सब अपने काम में लगे है। कोई लड़झगड़ भी नहीं रहा। लगता है चतुरजंगी नगरी में आ गया हूँ।
"बेटा तुम भी कम चतुर नहीं । एक मिनट में ही ही सब भाँप लिया। मैं अभी तुम्हारे लिए खीर और मुलायम रोटी लाती हूँ। पहले खा लो और वो देखो …मेरी बहन सल्लो,बड़ा अच्छा पढ़ाती है। बच्चे भी बहुत मन से पढ़ते हैं। "
ताबड़तोड़ जितना सुनता उसका आश्चर्य उतना ही बढ़ता जाता ।
"अरे इतने हैरान क्यों होते हो! यह सब करामात तो डाक्टर चावला की है। एक- एक चावल उन्होंने हमारे नाम कर रखा है।”
“मुझे भी जल्दी से वह चावल दिलवा दो मौसी।”
“नादान बच्चे वह चावल हमारे पास कहाँ!चावल नन्हा सा तो है । इधर -उधर लुढ़क न जाए इस डर से उन्होंने उस चावल को हमारे दिमाग़ में फिट कर दिया है।
“ओहो तुम ब्रेन चिप की बात तो नहीं कर रहीं।”
“हाँ हाँ वो ही।”
“कुछ दिन पहले टी वी में देखा था ना ..। एक बंदर कम्प्यूटर पर काम कर रहा था । उसके दिमाग़ में भी तो यही ब्रेन चिप लगा दी थी।मैं तो उसको देख डर गया। कहीं हमारे घर आन धमके और मेरे आई पेड में कुछ गड़बड़ कर दे। ”
“अरे हाँ! हाँ !वही …।”
“हुर्रे! मेरा तो काम बन गया।”
“भई क्या काम बन गया ,हमें भी तो बताओ।” दूसरे कमरे से निकलते डॉक्टर चावला ने पूछा ।
“डाक्टर चावला यह बच्चा आपसे मिलना चाहता है।” मौसी बोली।
“चावला अंकल ,मेरे दिमाग़ में भी एक चावल फ़िट कर दो।तभी तो मेरा काम बनेगा। ” ताबड़तोड़ ने बेसब्री से कहा।
“तुम्हें ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी। तुम तो भगवान के घर से बहुत बुद्धि लेकर आए हो।”
“ओह अंकल आप नहीं जानते मैं कितना परेशान हो जाता हूँ। पढ़ता हूँ तो भूल- भूल जाता हूँ। मास्टर जी की डाँट खाता हूँ। दौड़ता हूँ तो पीछे रह जाता हूँ, दोस्त कसकर मेरी हँसी उड़ाते हैं। लिखता हूँ तो कक्षा कार्य पूरा ही नहीं कर पता। वो कट्टो तो कक्षा में हमेशा मुझे लेटलतीफ कहकर खी- खी कर उठती है।”वह एक ही साँस में कह गया।
“रे -रे तुमने तो बहुत सी परेशानियाँ मोल ले रखी हैं। पर अभी तो तुम्हें चावल चिप मिल नहीं सकती ।”
“क्यों .. क्यों अंकल ?”
“वह इसलिए कि उसके पैदा होने में अभी समय लगेगा। पर एक वायदा कर सकता हूँ । जब भी चिप तैयार होगी सबसे पहले तुम्हारा नम्बर आएगा।”
“उफ़ तब तक मेरा क्या होगा?”
“तुम खुद कोशिश कर सकते हो। किसी के इंतज़ार में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो तुम अपने साथियों से पीछे रह जाओगे।”
“हूँ ,अंकल पीछे तो मुझे हरगिज़ नहीं रहना ।”
“यह हुई शेरों सी बात ।”
“पर मुझे अपने करामाती दिमाग़ का कोई जादू तो बताओ।”
“अच्छा,ध्यान से सुनो। जब तुम कुछ लिखने बैठो तो लगातार अपने दिमाग़ से कहते रहो -मुझे लिखना है..लिखना है..जल्दी जल्दी लिखना है । इससे दिमाग़ ऐक्टिवेट होता रहेगा और तुम्हें ऐसा लगेगा कि हाथों में शक्ति आ गई है। तुम्हारी उँगलियाँ जल्दी जल्दी चलने लगेंगी। कक्षा कार्य समय से पहले ही खतम कर दोगे।”
“फिर तो मैं 'जल्दी बाबू' बन जाऊँगा।”
“हाँ ,और खेलते समय भी ध्यान रखना होगा कि---।”
डॉ चावला अपनी बात पूरी कर भी न पाये थे कि ताबड़तोड़ बोल पड़ा -
“समझ गया ..समझ गया । दौड़ में हिस्सा लेते समय भी इधर- उधर न देखूँगा और न कुछ सोचूँगा ।केवल एक संदेश दिमाग़ को भेजूँगा - भाग- भाग- भागमभाग, मुझे सबसे आगे निकलना है। बात ठीक भी है, दो बातें सोचने से बेचारा दिमाग़ घबरा जाएगा ,यह करूँ या वह करूँ।”
“लो बिना चिप लगाए ही तुम्हारा दिमाग़ ख़रगोश की तरह दौड़ने लगा।”
“लेकिन इस भूलने की बीमारी का क्या करूँ अंकल । घर से तो याद करके जाता हूँ पर मास्टर जी जब प्रश्न पूछते हैं तो हकलाने लगता हूँ। वह शैतान खोपड़ी की कट्टो तो मुझे अंकल, हकलुद्दीन भी कह देती है। डर है कहीं अपने घर का रास्ता भी न भूल जाऊँ।”
“अरे बड़ा सरल मंत्र बताता हूँ इसका। जब याद करने बैठो तो एक ही विषय चुनो और उसी पर विचार करते रहो -करते रहो।देखना उसकी यादें तुम्हारे दिमाग़ के एक कोने में जम कर बैठ जाएँगी। बीच -बीच में उन्हें खंगालते रहो। फिर तो दो दिन बाद भी ज़रूरत पड़ने पर दिमाग़ सक्रिय हो उठेगा और यादों का पिटारा खुल पड़ेगा । भूलने की शुरुआत तो तब होती हैं जब पाठ को बार बार दोहराया न जाए।”
“फिर तो मेरी याददाश्त हाथी की तरह तेज हो जाएगी । सर्र- सर्र प्रश्नों के जवाब दे दूँगा । कट्टो की हिम्मत भी नहीं पड़ेगी मुझे हकलुद्दीन कहने की। क्यों मैं ठीक कह रहा हूँ न अंकल।” ताबड़तोड़ खुशी से नाच उठा।
“तुम्हारा दिमाग़ तो बड़ी तेज़ी से काम कर रहा है। लगता है तुम्हारे हिस्से का चावल दाना तुम्हें मिल चुका है।”वे आँखें घुमाते बोले।
“हाँ अंकल यह सब आपका ही जादू है । मुझे तो लग रहा है बिना कोशिश किए ही मेरे दिमाग़ में चिप की सिलाई हो गई है। अब एक मिनट ख़राब नहीं कर सकता।”
उसने जल्दी -जल्दी जाने के लिए कदम बढ़ा दिए। डॉक्टर चावला अपनी सफलता पर मन ही मन मुस्कुराए। उन्हें लगा जैसे एक नए ऊर्जावान बच्चे का जन्म हो चुका है।
पुरस्कार व प्रमाणपत्र आयोजन
विजेताओं की खुशखबरी तो मुझे पहले ही मिल गई थी। पर कल श्री किरौला जी का संदेश मिला कि शुक्रवार 28 अक्टूबर 2022 सायं 7 बजे गूगल मीट पर आयोजित कहानी कार्यशाला में गंगा अधिकारी स्मृति कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार व प्रमाण पत्र दिए जाने हैं। इससे मेरी खुशी दुगुनी हो गई।
एक बार फिर शैलेंद्र जी, सुधा जुगरान जी, निधि जी, नीना जी, उषा जी, हरीश जी व डा लता जी आप सभी को बहुत बहुत बधाई। किरौला जी का बहुत बहुत शुक्रिया जिनके कारण बच्चों का चहुंमुखी विकास हो रहा है और बालसाहित्यकारों के उत्साह की सीमा नहीं।