प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

धूप की खिड़कियां

 


नया संदेश कृति प्रकाशन

साथियों ,नया वर्ष नया संदेश लेकर आया। मेरा धूप की खिड़कियां बाल कहानी संग्रह छपकर आया। इसके लिए अद्विक पब्लिकेशन व उसकी पूरी टीम का बहुत-बहुत धन्यवाद। इसमें कुल 12 कहानियां है जो वास्तव में धूप की खिड़कियां हैं ।उन्हें खोलते ही ताजी स्वच्छ हवा बच्चों को अपने आगोश में ले लेगी और रोशनी की किरणें उनके दिलों दिमाग पर छा जाएंगी।पुस्तक सज्जा व आंतरिक चित्र सजा आकर्षक है। यह पुस्तक अमेजॉन पर उपलब्ध है।https://amzn.eu/d/5Heskpq





मेरी गुड़िया की शादी

 पोती के वैवाहिक समारोह  के सुनहरे पल   

उसके प्रति  दादी के उद्गार ***

मेरी गुड़िया की शादी 

      बहुत समय बाद पोस्ट डाल रही हूँ। वह भी अपनी पोती के बारे में । जो बच्ची नहीं रही, उसकी  तो  शादी  हो गई है। नाम तो उसका अनुष्का है पर मेरे लिए  पहली जैसी ही प्यारी  चुक्की है। शादियाँ तो मैंने जीवन में बहुत देखीं पर यह एक कलाकार की  शादी थी। हवा में संगीत सा कंपन  था। क्या घराती .. क्या बराती! पाँवों में थिरकन ,चेहरे पर फूल सी हंसी ,आँखों में चंचलता लिए ---हर कोई गुनगुनाता नजर आता था।शादी का एक एक  सुनहरा पल मुझसे जुड़  गया  । 

 16 जनवरी,2024 को मेरी पोती अनुष्का व चिरंजीवी श्रेयस विवाह के अटूट बंधन में बंध चुके हैं। यह वैवाहिक समारोह देवी रत्न होटल जयपुर में सम्पन्न हुआ।  

लगता है कल की ही  बात है ....जब वह राजकुमारी सी 

आंखों में समाई

होठों से मुस्कुराती

छोड़कर जाने लगी  

पैरों के निशान 

दिल की दहलीज पर।


शहनाई से गूंज उठी  थी रात

रिश्ते में बंध गया था प्यार

  तारों भरी नगरी को लगा  

निकल आए हैं दो  चांद। 

 मेरे सामने बैठी थी दुल्हन ---

पिता का नूर ,मां की जान 




उनका मान  उनका अभिमान 

भरे नयन चेहरे पर मुस्कान ।    



वह तो है  ----

सरगम की पुकार 

घुंघरूओं की झंकार 

लहराती नृत्य करती 

एक खूबसूरत कलाकार ।

जिस नन्ही सी जान को 

गोदी में झुलाया 

प्यार से गले लगाया 

एक दिन  बोली  -

    अम्मा,आप उसी  तरह से मेरे लिए भी लिखोगी ना जैसे दीदी की शादी में लिखा था।

उसने तो बड़े सहज भाव से कह दिया।  लेकिन मेरे तो आंसुओं की झड़ी लग गई।दिल में कचोट सी हुई शायद  वह  दूर जा रही है।लेकिन जो दिल की गलियों में उतर जाते हैं वे दूर कहाँ होते हैं!

    लिखना तो था ही। लिखने बैठी … शब्द ही नहीं मिले।जैसे -तैसे  लिखती  आंसू टपक पड़ता…. शब्द मिट जाता। कागज का पन्ना कोरा का कोरा ।अब मैं उससे कैसे कहती जिसे जितना प्यार किया जाता है उसे व्यक्त करने के लिए उतने ही कम शब्द मिलते हैं। 

    यादों की गलियों से गुजरने लगी … मम्मी घर की डोर सँभाले थी , पापा अपना भविष्य बुन रहे थे।वह गुलाब की पंखुरी सी मेरी जिंदगी में समा गई। आंखें चलाती भौं चढ़ाती.बात करती …. ! भोली  मूरत  पर आंखें अटक -अटक  जातीं । जरा  सा चेहरा मुरझाया देखती तो इसकी मम्मी   के पीछे पड़ जातीतुम उस पर ध्यान नहीं देती ।वह भूखी है ।किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाओ जिससे इसकी सेहत  बन जाय। अब तो सोच कर हंसी आती है भला कौन मां बच्चे का ध्यान नहीं रखती।लेकिन  भावनाओं की भीड़ में मजबूर थी । 

    दिखाई नहीं देती  तो  मेरी आँखें ढूँढने लगतीं ।  पता लगा कमरे में गुड़ियों के बीच एक और गुड़िया खड़ी है।  लिपस्टिक काजल थोप ,नकली चुटैया लगाये सिर पर दुपट्टा ओढ़े  शीशे के सामने खड़ी मटक रही है । हंसते हंसते लोटपोट हो जातीं .।

   मुझे भी गुड़ियों  का बड़ा शौक ।   बस हो गया उसके साथ गुड़िया का खेल शुरू।  लेकिन उस  समय मेरी गुड़िया कोई और ही थी।  अपनी  इस नन्ही को कहानियां बना -बनाकर  सुनातीखेलती ,उसके मन की बात सुनती। वह भी तो अपना दिल खोलकर रख देती। असल में चुक्की(अनुष्का) के बालमन की गहराई में उतरने के बाद ही मुझमें एक कहानीकार  का जन्म हुआ और बच्चों के लिए कहानी लिखने की शुरुआत हुई। अंगूठाचूस व एक कमी है -कहानियां इस संदर्भ में विशेष है। 

   इसकी गुड़ियों की  नगरी में कुछ दिन बाद एक गुड्डा भी आ गया बड़ा  खूबसूरत । वह बात बिल्कुल नहीं करता था पर आँखें बोलती थीं। चुक्की  को तो  ऐसा भाया कि मजाल कोई उसे छू तो ले।  यह ‘गुड़ियों की नगरीही  मेरे  बाल उपन्यास ‘बुलबुल की नगरी’ की आधार शिला है। 

   लंदन गई तो वहां भी गुड्डा इसके साथ । अरे अब तो वह गुड्डा  छूट गया है उसकी जगह तो प्रिय श्रेयस ने ले ली है। एक दिल में दो तो रह नहीं सकते!

  विश्वास है मेरी नन्ही सी गुड़िया चहकती रहेगी महकती रहेगी और दूसरों को महकाती रहेगी। जब याद करूंगी दौड़ी- दौड़ी आएगी वरना विदेश में बैठी वाट्सएप पर ही बोल उठेगी 'अम्मा' !मैं तो तब भी निहाल हो जाऊँगी। 

दादी माँ  


गुरुवार, 25 मई 2023

बाल उपन्यास

बुलबुल की नगरी'- बच्चों के खेल-खिलौने और गुड़ियों की दुनिया से रूबरू कराता बाल-उपन्यास, प्रसिद्ध लेखिका सुधा भार्गव ने रचा है।

https://twitter.com/DPD_India/status/1661603249093480448?t=VVIC7HERk4sGbqoua8ypAw&s=08 

बुलबुल की नगरी -विडिओ 




गुरुवार, 30 मार्च 2023

समीक्षा

 

वरिष्ठ साहित्यकार    -संजीव जायसवाल ‘संजय’ जी को जैसे ही मैंने यादों की रिमझिम बरसात पुस्तक भेजी उन्होंने उसकी समीक्षा करके मेरा मनोबल बढ़ाया। उनकी तत्परता,सूक्ष्म निरीक्षणता व गहनता की  हमेशा आभारी रहूँगी। 


उनके शब्दों में --

    हाल ही में वरिष्ठ रचनाकार सुधा भार्गव जी का बाल कहानी संग्रह ‘यादों की रिमझिम बारिश’ पढ़ने का अवसर मिला. वास्तव में ये कहानियों का संग्रह न होकर एक आईना है जिसमें झांकते हुए हम उतरते जाते हैं एक अनोखी दुनिया में. जहाँ हमारा बचपन हैं और हैं हमारी नटखट शरारतें और मासूम हरकतें. जो इस आईने में देखेगा उसे अपना ही अक्श नज़र आएगा और मन के किसी कोने से आवाज़ आयेगी ‘अरे, यह सब तो हमने भी किया है. लगता है किसी ने मेरे बचपन की यादों को चुरा कर उन्हें कहानी का रूप दे दिया है.’ जी हाँ लेखिका भी स्वीकार करती हैं कि ये उनकी ‘आत्मकहानियाँ’ है. अर्थात अपनी आत्मकथा के बचपन वाले भाग को उन्होंने कहानियों का रूप देकर बहुत खूबसूरती के साथ पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.

            अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बचपन कमोवेश सभी का एक ही तरह का होता है. मां-बाप की आँखों का तारा. अलमस्त जिन्दगी, दूध पीने के लिए नखरा, लट्टू चलाने की उमंग, छुप-छुपाकर बर्फ का गोला खाना, बन्दर-भालू का नाच देखने के लिए दौड़ लगाना, बरसात में भीगते हुए कागज़ की नाव चलाना, होली का हुडदंग. इस पुस्तक में यह सब कुछ देखने को मिलेगा लेकिन लेखिका की यादों की चाशनी में लिपटी हुई कहनियों के रूप में. सुधा जी ने जिस खूबसूरती से अपनी बचपन की यादों को एक माला के रूप में पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है. 

            सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने इन कहानियों के माध्यम से देश-समाज में हो रहे बदलावों और प्रगति को भी झलकाया है. पहली कहानी ‘जादू का तमंचा’ इसकी एक बानगी है. भाई दिन भर लकड़ी के लट्टू में डोरी बाँध कर नचाया करता है और छोटी बहन उसे देख कर ललचाया करती है. उन दिनों ऐसे ही टट्टू मिलते थे. बाद में पिता दिल्ली से तमंचे की शक्ल वाला खिलौना ला देते है जिससे बटन दबाने पर लट्टू निकलकर नाचने लगता है. उन दिनों केवल बड़े शहरों में ही ऐसे खिलोने मिलते थे और बड़े बुजुर्ग उन्हें लाकर बच्चों को बदलाव की झलक दिखलाया करते थे. एक और कहानी है ‘जादुई मुर्गी’ जो दबाने पर पेट से अंडा निकालने वाली प्लास्टिक की मुर्गी के उपर आधारित है. हम सभी ने इस खिलौने के साथ खूब खेला है. ऐसी कई कहानियां हैं जो बचपन की याद देला देती हैं किन्तु कहानी ‘बाल लीला’ सबसे मजेदार लगी. इसमें स्कूल में ‘कृष्णलीला’ का नाटक होना था. किन्तु यशोदा की भूमिका निभा रही बच्ची गलती से कृष्ण से कह बैठती है ‘क्यों रे बलराम आज तूने फिर मटकी से माखन चुराया’ यह बात कृष्ण बनी बच्ची को, जो लेखिका खुद थीं, नागवार गुजरती है और वह मंच पर ही चिल्ला कर कहती है,’ अरे यह तो गलत बोल रही है अब मैं क्या करूँ.’’

            मंच के पीछे खडी टीचर चिल्लाकर बच्चों को अपना-अपना संवाद बोलने के लिए कहती है लेकिन बाल हाठ तो बाल हठ. कृष्ण भी गुस्से से कहते है.” मैया तू तो मेरा नाम ही भूल गई. जब तक मुझे कृष्ण नहीं कहोगी मैं तुमसे बात नहीं करूंगा.’ उसके बाद हंसी के ठहाकों के बीच बच्चों ने अपनी त्वरित बुद्धी से जिस तरह नाटक को संभाला उसके लिए बाद में प्रिंसिपल मैडम ने भी बच्चों की पीठ थपथपाई. 

            भुत-भूतनी का अस्तित्व नहीं होता है लेकिन उनको लेकर बच्चों को अक्सर डरवाया जाता है. इस विषय को भी लेकर एक मजेदार कहानी है ‘भूत भुतला की चिपटनबाजी’ जो फोथों पर मुस्कान ले आती है.

            ऐसे कई और मजेदार प्रसंग है इस संग्रह की कहानियों में जो डिजटल युग के आधुनिक बच्चों को अपनी विरासत से परिचित करवाएंगी और बतायेंगी कि उनके माता-पिता और दादा-दादी का बचपन कैसा होता था. इस द्रष्टिकोण से यह पुस्तक बच्चों का मनोरंजन तो करेगी ही, अभिभावकों को भी उनके बचपन की एक बार फिर से सैर करायेगी. अतः यह पुस्तक हर पीढ़ी के पाठकों के पढने के योग्य है. लेखिका ने संग्रह का शीर्षक ‘यादों के रिमझिम बरसात’ उसके विषय वस्तु के बिलकुल अनुकूल रखा है. सुधा जी की कई पुस्तकें पहले भी आकर चर्चित हो चुकी हैं, मैं उनकी इस पुस्तक की भी सफलता के मंगलकामना करता हूँ. इस सजिल्द पुस्तक का प्रकाशन ‘साहित्यसागर’ प्रकाशन जयपुर ने किया है और इसकी कीमत २५० रुपये है.

                                                       

   -संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

 


मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

यादों की रिमझिम बरसात ;समीक्षा -वरिष्ठ साहित्यकार संजीव जयसवाल संजय




बचपन की सौगात 

हाल ही में वरिष्ठ रचनाकार सुधा भार्गव जी का बाल कहानी संग्रह ‘यादों की रिमझिम बारिश’ पढ़ने का अवसर मिला. वास्तव में ये कहानियों का संग्रह न होकर एक आईना है जिसमें झांकते हुए हम उतरते जाते हैं एक अनोखी दुनिया में. जहाँ हमारा बचपन हैं और हैं हमारी नटखट शरारतें और मासूम हरकतें. जो इस आईने में देखेगा उसे अपना ही अक्श नज़र आएगा और मन के किसी कोने से आवाज़ आयेगी ‘अरे, यह सब तो हमने भी किया है. लगता है किसी ने मेरे बचपन की यादों को चुरा कर उन्हें कहानी का रूप दे दिया है.’ जी हाँ लेखिका भी स्वीकार करती हैं कि ये उनकी ‘आत्मकहानियाँ’ है. अर्थात अपनी आत्मकथा के बचपन वाले भाग को उन्होंने कहानियों का रूप देकर बहुत खूबसूरती के साथ पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.

            अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बचपन कमोवेश सभी का एक ही तरह का होता है. मां-बाप की आँखों का तारा. अलमस्त जिन्दगी, दूध पीने के लिए नखरा, लट्टू चलाने की उमंग, छुप-छुपाकर बर्फ का गोला खाना, बन्दर-भालू का नाच देखने के लिए दौड़ लगाना, बरसात में भीगते हुए कागज़ की नाव चलाना, होली का हुडदंग. इस पुस्तक में यह सब कुछ देखने को मिलेगा लेकिन लेखिका की यादों की चाशनी में लिपटी हुई कहनियों के रूप में. सुधा जी ने जिस खूबसूरती से अपनी बचपन की यादों को एक माला के रूप में पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है. 

            सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने इन कहानियों के माध्यम से देश-समाज में हो रहे बदलावों और प्रगति को भी झलकाया है. पहली कहानी ‘जादू का तमंचा’ इसकी एक बानगी है. भाई दिन भर लकड़ी के लट्टू में डोरी बाँध कर नचाया करता है और छोटी बहन उसे देख कर ललचाया करती है. उन दिनों ऐसे ही टट्टू मिलते थे. बाद में पिता दिल्ली से तमंचे की शक्ल वाला खिलौना ला देते है जिससे बटन दबाने पर लट्टू निकलकर नाचने लगता है. उन दिनों केवल बड़े शहरों में ही ऐसे खिलोने मिलते थे और बड़े बुजुर्ग उन्हें लाकर बच्चों को बदलाव की झलक दिखलाया करते थे. एक और कहानी है ‘जादुई मुर्गी’ जो दबाने पर पेट से अंडा निकालने वाली प्लास्टिक की मुर्गी के उपर आधारित है. हम सभी ने इस खिलौने के साथ खूब खेला है. ऐसी कई कहानियां हैं जो बचपन की याद देला देती हैं किन्तु कहानी ‘बाल लीला’ सबसे मजेदार लगी. इसमें स्कूल में ‘कृष्णलीला’ का नाटक होना था. किन्तु यशोदा की भूमिका निभा रही बच्ची गलती से कृष्ण से कह बैठती है ‘क्यों रे बलराम आज तूने फिर मटकी से माखन चुराया’ यह बात कृष्ण बनी बच्ची को, जो लेखिका खुद थीं, नागवार गुजरती है और वह मंच पर ही चिल्ला कर कहती है,’ अरे यह तो गलत बोल रही है अब मैं क्या करूँ.’’

            मंच के पीछे खडी टीचर चिल्लाकर बच्चों को अपना-अपना संवाद बोलने के लिए कहती है लेकिन बाल हाठ तो बाल हठ. कृष्ण भी गुस्से से कहते है.” मैया तू तो मेरा नाम ही भूल गई. जब तक मुझे कृष्ण नहीं कहोगी मैं तुमसे बात नहीं करूंगा.’ उसके बाद हंसी के ठहाकों के बीच बच्चों ने अपनी त्वरित बुद्धी से जिस तरह नाटक को संभाला उसके लिए बाद में प्रिंसिपल मैडम ने भी बच्चों की पीठ थपथपाई. 

            भुत-भूतनी का अस्तित्व नहीं होता है लेकिन उनको लेकर बच्चों को अक्सर डरवाया जाता है. इस विषय को भी लेकर एक मजेदार कहानी है ‘भूत भुतला की चिपटनबाजी’ जो फोथों पर मुस्कान ले आती है.

            ऐसे कई और मजेदार प्रसंग है इस संग्रह की कहानियों में जो डिजटल युग के आधुनिक बच्चों को अपनी विरासत से परिचित करवाएंगी और बतायेंगी कि उनके माता-पिता और दादा-दादी का बचपन कैसा होता था. इस द्रष्टिकोण से यह पुस्तक बच्चों का मनोरंजन तो करेगी ही, अभिभावकों को भी उनके बचपन की एक बार फिर से सैर करायेगी. अतः यह पुस्तक हर पीढ़ी के पाठकों के पढने के योग्य है. लेखिका ने संग्रह का शीर्षक ‘यादों के रिमझिम बरसात’ उसके विषय वस्तु के बिलकुल अनुकूल रखा है. सुधा जी की कई पुस्तकें पहले भी आकर चर्चित हो चुकी हैं, मैं उनकी इस पुस्तक की भी सफलता के मंगलकामना करता हूँ. इस सजिल्द पुस्तक का प्रकाशन ‘साहित्यसागर’ प्रकाशन जयपुर ने किया है और इसकी कीमत २५० रुपये है.

                                                                        -संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

 

 

 






मिश्री मौसी का मटका की समीक्षा -साहित्यकार हरिसुमन बिष्ट

       पिछले दिनों मुझे साहित्य और संस्कृति की द्विमासिक पत्रिका -पुस्तक संस्कृति मिली। 2022 के आरंभ में ही 'मिश्री मौसी का मटका' - पुस्तक नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई थी। 2022 के अंत होते होते वरिष्ठ साहित्यकार हरि सुमन बिष्ट की समीक्षा भी इस  पत्रिका में पढ़ने को  मिल गई। जिसे उन्होंने बड़े जतन -मनन के साथ लिखा है। पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा। लेखनी को शक्ति मिली। मैं उनकी बहुत बहुत आभारी हूँ । 










 

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

आज का दिन शुभ

 कहानी प्रतियोगिता सम्मान 


 
डॉ  चावला का चावल

सुधा भार्गव

     

 ताबड़तोड़ बड़ा ही नटखटिया था। कोई भी औटोमेटिक खिलौना उसके हाथ लग गया तो समझो उसकी खैर नहीं। एक बार उसके पापा छोटी सी कार  लाए जो पिछले दो पहियों के ज़मीन पर रगड़ने से चुहिया की तरह  भागने लगती थी। दो दिन तो उसको खूब दौड़ाया  फिर गौर से उलटपलट कर देखने लगा। कहीं से स्क्रू ड्राइवर भी ढूँढ निकाला और पुर्ज़ा -पुर्ज़ा ढीलाकर उसका दम ही निकाल दिया। 

     “बेटा यह  क्या किया?”

     “पापा देख रहा था यह कैसे दौड़ती है?”

      पापा उसकी नादानी देख मुस्करा दिए। तो ऐसा था वह बड़ी -बड़ी आँखों वाला नन्हा मुन्ना। उसकी इस आदत के कारण उसका नाम भी पड़ गया ताबड़तोड़। 

      ताबड़तोड़ जहां रहता था वहाँ पास -पास बड़े -बड़े बंगले थे।हर बंगला रंगबिरंगे खिलखिलाते फूलों से ढका था।सड़क के किनारे पेड़ों पर अमरूद,अनार ,आम  झूमते दिखाई देते। ताबड़तोड़ इस हंसती प्रकृति में खोया हुआ अक्सर घूमने निकल जाता । 


एक दिन उसने एक घर के बाहर बिल्ली की पेंटिंग लगी देखी।  उसे वह बहुत प्यारी लगी। दूसरे दिन  घूमने निकला तो वह बिल्ली वाले घर की ओर मुड़े बिना न रहा। । फ़्रेम में क़ैद बिल्ली की पेंटिंग को देख उसे लगा जैसे वह अभी बोल पड़ेगी। तभी दरवाज़ा से दो बिल्ली के बच्चे उसे घूरते निकले। दोनों की पूँछें हवा में लहरा  रही थीं मानो उछलकर वे ताबड़तोड़ से टकराना चाहती हों। अब उसकी समझ में आया है यह बिल्लियों का घर है। वह उनका घर देखने को उत्सुक हो उठा। जैसे ही उसने उधर कदम बढ़ाया टिम्मी बिल्ली रास्ता रोककर खड़ी हो गई। पंजे दिखाते बोली-“ख़बरदार जो एक कदम भी आगे बढ़ाया। टमटमाटे भागोगे।” 

दूसरी  बिल्ली पम्मी को उसकी बात अच्छी नहीं लगी। वह अपने स्वर को कोमल बनाते बोली-“छोटे बच्चे ,तुम  हमारे भाई -बहनों को पकड़कर ले जाते हो। हम उनकी याद में रोते रहते हैं । इसलिए तुम इस घर में नहीं घुस सकते।” 

     शोरशराबा सुन एक बूढ़ी बिल्ली भी आँखों पर चश्मा चढ़ाये आ गई । हाथ में बेलन भी था  ताकि कोई दुश्मन हो तो उसकी मरम्मत कर दे। पर भोले से बच्चे  को खड़ा देख उसे उस   पर प्यार आ गया। टिम्मी- पम्मी को लताड़ते बोली -“क्यों नाहक इस बच्चे को परेशान कर रही हो। देख नहीं रही हो कितना मासूम लगता है।” 

       फिर वह ताबड़तोड़ से बोली “बेटे तुम्हें क्या चाहिए। भूखे हो क्या ? अंदर आ जाओ। दूध रोटी खाने को मिलेगी ।”उसने मीठी आवाज़ में कहा।  

     “बिल्ली मौसी भूख भी लगी है और मैं तुम्हारा घर भी देखना चाहता ही। घर तो बहुत देखे पर बिल्लियों का घर !पहले कभी नहीं सुना।”

    “तुम्हारा नाम क्या है बच्चे  ?”

    “ताबड़तोड़।”

    " ऐं,क्या कहा ! ताबड़तोड़! तोड़फोड़ करने वाला।”वह चौंक गई।

    “मौसी मैं कोई नुक़सान नहीं करूँगा ,कुछ नहीं छूऊँगा। मेरा विश्वास करो।” वह गिड़गिड़ाने लगा। 

     “ठीक है, ठीक है । आ जाओ अंदर।”

       घुसते ही वह तो  आश्चर्य के समुंदर में डूबता चला गया। एक तरफ़ डाइनिंग टेबल पर बैठे सफ़ेद भूरी आँखों वाले बच्चे दूध रोटी खा रहे थे। नीचे चटाई पर बिल्ली मास्टरनी दो बच्चों को कुछ पढ़ा रही थी। किताबें उनके सामने खुली थीं। दूसरी चटाई पर दो शैतान कैरम खेल रहे थे। बात बात पर नोकझोंक भी चल रही थी। 

      "मौसी यहाँ तो सब अपने काम में लगे है। कोई लड़झगड़ भी नहीं रहा। लगता है चतुरजंगी  नगरी में आ गया हूँ। 

      "बेटा तुम भी कम चतुर नहीं ।  एक मिनट में ही ही सब भाँप लिया। मैं अभी तुम्हारे लिए खीर और मुलायम रोटी लाती  हूँ। पहले  खा लो और वो देखो …मेरी बहन सल्लो,बड़ा अच्छा पढ़ाती है। बच्चे भी बहुत मन से पढ़ते हैं। "

     ताबड़तोड़ जितना सुनता उसका आश्चर्य उतना ही बढ़ता  जाता । 

    "अरे इतने हैरान क्यों होते हो! यह सब करामात तो डाक्टर चावला की है। एक- एक चावल उन्होंने हमारे नाम कर रखा है।”

     “मुझे भी जल्दी से वह चावल दिलवा दो मौसी।”

    “नादान बच्चे वह चावल हमारे पास कहाँ!चावल नन्हा सा तो है । इधर -उधर लुढ़क न जाए इस डर से उन्होंने उस चावल को हमारे दिमाग़ में फिट कर दिया है। 

     “ओहो तुम ब्रेन चिप की बात तो नहीं कर रहीं।” 

     “हाँ हाँ वो ही।” 

     “कुछ दिन पहले टी वी में देखा था ना ..। एक बंदर कम्प्यूटर पर काम  कर रहा  था । उसके दिमाग़ में भी तो यही ब्रेन चिप लगा दी थी।मैं तो उसको  देख डर गया। कहीं हमारे घर आन धमके और मेरे आई पेड में कुछ गड़बड़ कर दे। ” 

     “अरे हाँ! हाँ !वही …।”

    “हुर्रे! मेरा तो काम बन गया।”

     “भई क्या काम बन गया ,हमें भी तो बताओ।” दूसरे कमरे से निकलते डॉक्टर चावला ने पूछा । 

      “डाक्टर चावला यह बच्चा आपसे मिलना चाहता है।” मौसी बोली। 

     “चावला अंकल ,मेरे दिमाग़ में भी एक चावल फ़िट कर दो।तभी तो मेरा काम बनेगा। ” ताबड़तोड़ ने बेसब्री से कहा।

     “तुम्हें ऐसी क्या ज़रूरत आन  पड़ी। तुम तो भगवान के घर से बहुत बुद्धि लेकर आए हो।”

    “ओह अंकल आप नहीं जानते मैं कितना परेशान हो जाता हूँ। पढ़ता हूँ तो भूल- भूल जाता हूँ। मास्टर जी की डाँट खाता हूँ। दौड़ता हूँ तो पीछे रह जाता हूँ, दोस्त कसकर मेरी हँसी उड़ाते हैं। लिखता हूँ तो कक्षा कार्य पूरा ही नहीं कर पता। वो कट्टो तो कक्षा में हमेशा मुझे लेटलतीफ कहकर खी- खी कर उठती है।”वह एक ही साँस में कह गया।  

     “रे -रे तुमने तो  बहुत सी परेशानियाँ मोल ले रखी हैं। पर अभी तो तुम्हें चावल चिप मिल नहीं सकती ।” 

     “क्यों .. क्यों अंकल ?”

    “वह इसलिए कि उसके पैदा होने में अभी समय लगेगा। पर एक वायदा कर सकता हूँ । जब भी चिप तैयार होगी सबसे पहले तुम्हारा नम्बर आएगा।” 

     “उफ़ तब तक मेरा क्या होगा?”

     “तुम खुद कोशिश कर सकते हो। किसी के इंतज़ार में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो तुम अपने साथियों से पीछे रह जाओगे।” 

     “हूँ ,अंकल पीछे तो मुझे हरगिज़ नहीं रहना ।” 

      “यह हुई शेरों  सी बात ।”

    “पर मुझे अपने करामाती दिमाग़ का  कोई  जादू तो बताओ।” 

     “अच्छा,ध्यान से सुनो। जब तुम कुछ लिखने बैठो तो लगातार अपने दिमाग़ से कहते रहो -मुझे लिखना है..लिखना है..जल्दी जल्दी लिखना है । इससे दिमाग़ ऐक्टिवेट होता रहेगा और तुम्हें ऐसा लगेगा कि हाथों में शक्ति आ गई है।    तुम्हारी उँगलियाँ जल्दी जल्दी चलने लगेंगी। कक्षा कार्य समय से पहले ही खतम कर दोगे।” 

       “फिर तो मैं 'जल्दी बाबू' बन जाऊँगा।”

“हाँ ,और खेलते समय भी ध्यान रखना होगा कि---।”

डॉ चावला अपनी बात पूरी कर भी न पाये थे कि ताबड़तोड़ बोल पड़ा -

“समझ गया ..समझ गया । दौड़ में हिस्सा लेते समय भी इधर- उधर न देखूँगा और न कुछ सोचूँगा ।केवल एक संदेश दिमाग़ को भेजूँगा - भाग- भाग- भागमभाग, मुझे सबसे आगे निकलना है। बात ठीक भी है, दो बातें सोचने से बेचारा दिमाग़ घबरा जाएगा ,यह करूँ या वह करूँ।” 

      “लो  बिना चिप लगाए ही तुम्हारा दिमाग़ ख़रगोश की तरह दौड़ने लगा।” 

     “लेकिन इस भूलने की बीमारी का क्या करूँ अंकल । घर से तो याद करके जाता हूँ पर मास्टर जी जब प्रश्न पूछते हैं तो हकलाने लगता हूँ।  वह शैतान खोपड़ी  की कट्टो तो मुझे अंकल, हकलुद्दीन भी कह देती है।  डर है कहीं अपने घर का रास्ता भी न भूल जाऊँ।” 

“अरे बड़ा सरल मंत्र बताता हूँ इसका। जब याद करने बैठो तो एक ही विषय चुनो और उसी पर विचार करते रहो -करते रहो।देखना उसकी  यादें  तुम्हारे दिमाग़ के एक कोने में जम कर बैठ जाएँगी। बीच -बीच में उन्हें खंगालते रहो।  फिर तो दो दिन बाद भी ज़रूरत पड़ने पर  दिमाग़ सक्रिय हो उठेगा और यादों का पिटारा खुल पड़ेगा । भूलने की शुरुआत तो तब होती हैं जब पाठ को बार बार दोहराया न जाए।”

“फिर तो मेरी याददाश्त हाथी  की तरह तेज हो जाएगी । सर्र- सर्र प्रश्नों के जवाब दे दूँगा । कट्टो  की हिम्मत भी नहीं पड़ेगी मुझे  हकलुद्दीन कहने की। क्यों मैं ठीक कह रहा हूँ न अंकल।” ताबड़तोड़ खुशी से नाच उठा। 


“तुम्हारा  दिमाग़ तो बड़ी तेज़ी से काम  कर रहा है। लगता है तुम्हारे हिस्से का चावल दाना तुम्हें मिल चुका है।”वे आँखें घुमाते बोले।   

 “हाँ अंकल यह सब आपका ही जादू है । मुझे तो लग रहा है बिना कोशिश किए ही मेरे दिमाग़ में चिप की सिलाई हो गई है। अब  एक मिनट  ख़राब नहीं कर सकता।” 

उसने जल्दी -जल्दी जाने के लिए कदम बढ़ा दिए।  डॉक्टर चावला अपनी सफलता पर मन ही मन मुस्कुराए। उन्हें लगा जैसे एक नए ऊर्जावान बच्चे का जन्म हो चुका है।