प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

बालकहानी



 मिठास 

सुधा भार्गव




    
      एक जंगल में हरे-भर ,ऊंचे -ऊंचे पेड़ थे। एक बार टिपटिपिया हारा थका- पेड़ के नीचे आन बैठा। उसे भूख भी लगी थी। उसने पेड़ से एक फल तोड़ा,चखा और फेंक दिया।बुरा सा मुंह बनाकर दूसरे पेड़ का फल चखा।  नाक-भौं सकोड़ता हुआ उसने उसे और भी दूर फेंक दिया। उसकी फेंका फेंकी पर पेड़ों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
      बाबा समान एक बड़े बूढ़े पेड़ ने पूछा-“भाई तुम हमारे फल खाते भी हो और  दूर फेंककर उनका अपमान भी कर देते हो। भला हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है!”
     “मेरे मुंह का सारा स्वाद बिगाड़ दिया और पूछते हो क्या बिगाड़ा है।तुम लंबे-चौड़े पेड़ों से क्या फायदा,जब तुम्हारे फल किसी की भूख ही न मिटा सकें। सारे के सारे फल कड़वे हैं कड़वे!”
     “कड़वे!” एक चीख निकली और पूरे जंगल में गूंज गई। पेड़ों ने अपने लिए इतना भद्दा शब्द आज तक न सुना था।
      “हमारा तो जीवन ही व्यर्थ हो गया,जब किसी की भलाई ही न कर पाए।” एक पेड़ दुखी होकर बोला।
मीठा कैसे बनें! इसी उधेड़बुन में कई महीने गुजर गए। न पेड़ जी खोलकर हंस पाए न ठीक से सो सके।हमेशा उनकी आँखें रास्ते पर बिछी रहती –काश कोई हमें ऐसा मिल जाए जो मीठा बनने का गुर सिखा दे।
     भरी दोपहरी में एक दिन उड़ते-उड़ते काली कोयल उस जंगल में पेड़ की टहनी पर आ बैठी और कुहू---कुहू करके मिश्री सा गाना कानों में उड़ेलने लगी। सारे पेड़ खुशी से झूमने लगे। गरमी की तपत भूलकर बहुत दिनों बाद मुस्कराए।
      अचानक थू—थू की आवाज सुनकर वे मुसकराना भूल गए।उन्होंने सुना, “हाय रे!मेरा मुंह तो कड़वा हो गया। लगता है कड़वाहट यहाँ की हवा में घुली है। उफ,गाया भी नहीं जा रहा। थोड़ी देर और यहाँ रुकी तो मेरा गला ही बैठ जाएगा। उड़ूँ यहाँ से--- तो ही अच्छा है।”
      उसने नीले आकाश में उड़ने को पंख फड़फड़ाए ही थे कि सारे पेड़ हाथ जोड़कर खड़े हो गए,टपटप आँसू बहाने लगे। बोले-“कोयल बहन ,हमें छोडकर मत जाओ। हम तुमसे मीठा होना सीखेंगे।”
      “तुम सब बहुत कड़वे हो। तुम्हारे साथ रहकर मैं भी कड़वी हो जाऊँगी। भूल जाऊँगी मधुर बोल।”
     “यह भी तो हो सकता है,तुम्हारा साथ पाकर हमारे फलों में मिठास पैदा हो जाए। जो भी हमारा फल खाता है,बुरा-भला कहता कोसों दूर चला जाता है।”
     “हाँ,तुम्हारी बात सच भी हो सकती है!तो ठीक है कुछ दिन यहीं टिक जाती हूँ।” कोयल पर उनको  दया आ गई।
     सबेरे-सबेरे कोयल ने गाना शुरू किया। ठंडी हवा बहने लगी,आने जाने वालों के कानों में मधुर घंटियाँ बजने लगीं। फलों की रंगत बदल गई। हरे से पीले हुए गालों पर गुलाबीपन छा गया। रसीले फलों से डालियाँ झुक गईं। उनकी खूबसूरती को देखकर छोटे-बड़े हाथ उन्हें छूने और सहलाने को मचलने लगे। एक फल खाते दूसरा तोड़ने की सोचते। आंधी आई तो टपाटप फल नीचे गिरने लगे। बच्चे बूढ़े टोकरी लेकर दौड़े। खाते-बांटते कहते-ऐसा शहद सा मीठा फल कभी न देखा न चखा। पेड़ अपने फलों की तारीफ सुनकर नाचने लगे। पत्तियाँ हिल हिलकर कहतीं-
     
     आओ रे भैया 
     आओ रे  
     जी भर 
     आप खाओ रे
     
सुनने वालों ने समझा- जी भर आम खाओ।
      तब से उन रसीले फलों को आम कहा जाने लगा-कोयलिया के गले की मिठास से फल मीठे हो गए और उनकी सुगंध हवा में घुल गई।कोयल को गाने में अब आनंद आने लगा। वह उन पेड़ों को छोडकर कहीं नहीं गई। आजतक कोयल आम के पेड़ पर बैठकर ही अपने मधुर गान की तान छेड़ना पसंद करती है।

समाप्त  

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

अंधविश्वास की दुनिया

    


॥3॥ बालों का जंगल 

सुधा भार्गव

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     ताराचंद पढ़ी-लिखी बहू पाकर फूले नहीं समा रहे थे। सोचा करते, “ बेटा बुद्धिमान , तो बहू भी उससे कम नहीं। मेरे पोता -पोती तो इनसे भी बढ़कर निकलेंगे।”
     एक दिन हँसते हुए पत्नी से बोले –“जंगल बड़ा घना उग आया  है। इसे मैं कटवाने जा रहा हूँ।”
    घना जंगल’?
    अरे देख न रही ये मेरे सिर पर ---बालों का जंगल !”
    पत्नी भी उनकी इस विनोदप्रियता पर मुसकाए बिना न रही।
    अचानक बहू का स्वर उभरा- “बाबू जी आज तो मंगलवार है, बाल न कटवाओ ।”  
    “क्यों बहू----?” आश्चर्य से वे बहू नीलू  को देखते रह गए। उनके चेहरे का हास्य कपूर की तरह उड़ गया।
    “इससे अपशकुन ही अपशकुन होता है।”
    “अपशकुन---! यह बात तुमसे किसने कही?”
    “मेरी दादी कहा करती थीं।इसलिए भैया और पिताजी कोई भी मंगलवार को बाल नहीं कटवाता।”
    “तुमने इसका  कारण तो पूछा होगा उनसे।”
    “पहले तो मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लगी----हिम्मत करके पूछा भी तो बड़ी ज़ोर से डांट पीने को मिली , “छोरी दो अक्षर क्या पढ़ गई बड़ी कानूनबाजी करने लगी है। बाप ने तो एक बार न पूछी। कान खोलकर सुन ले ---यह रिवाज  हमारे घर में दादा—परदादा के समय से चला  आ रहा  हैं ----तुझे भी मानना होगा।”
      “उसके बाद तो कुछ पूछने का साहस ही नहीं हुआ। धीरे- धीरे यह सुनने और देखने की आदत सी पड़ गई। विश्वास भी होने लगा है कि मंगलवार को बाल कटवाने से कुछ अनहोनी जरूर हो जाएगी  
    “बिना कारण पता किए इस रिवाज पर कैसे विश्वास कर लिया! एक अनपढ़ , सड़ी-गली रीति-रिवाजों के अनुसार चले तब भी ठीक है। पर तुम –ओह तुम बिना तर्क किए कैसे इस विचार की अनुयायी हो गईं। इसी को तो कहते हैं अंधविश्वास। पढ़े-लिखे भी इतने अंधविश्वासी!” ताराचंद इस झटके से कराह उठे।
नीलू का शर्म से सिर झुक गया और इस अंधविश्वास की जड़ तक पहुँचने की उसने ठान ली।  दिमाग पर ज़ोर डालते हुए बोली- बाबू जी कोई बात तो जरूर हुई होगी जिससे लोगों के दिमाग में आया कि मंगलवार को बाल नहीं कटवाने चाहिए।”
    “तुम ठीक कह रही हो नीलू। अब तुमने अपने दिमाग से काम लिया। बहुत पहले हमारे देश  में 75% लोग  गांवों में रहते थे जो किसान थे।  हमारे तुम्हारे पूर्वजों में से कोई न कोई गाँव में रहकर खेती जरूर करता होगा । पूरे हफ्ते कड़ी मेहनत के बाद किसानों को सोमवार का दिन ही आराम करने को मिलता था। वे उस दिन घर की सफाई करते, ढाढ़ी बनवाते, बाल कटवाते। नाई भी सारे दिन व्यस्त रहता। मंगलवार को इक्का-दुक्का ही उसकी दुकान पर जाता। वह भी सोचता होगा दो जन को कौन दुकान खोले। इसलिए उस दिन वह  उसे बंद ही  रखता। कोई नाई से बाल कटवाने की सोचता भी तो लोग कहते -भैया---मंगल को बाल न कट सकें। यह वाक्य इतना प्रचलित हो गया कि मंगल को बाल न कटवाने की प्रथा ही बन गई है। तुम जैसे शिक्षित लोगों को भी इस अंधविश्वास ने अपने  जाल में जकड़ रखा है। अब मैं क्या बोलूँ –बोलूँगा तो बोलोगी –बाबू जी ऐसा बोलते हैं---तुम्हारी तरह उनके मन में भी डर समा गया है कि मंगल को बाल कटवाने से जरूर कोई अमंगल होगा। होगा। कारण कोई जानना  ही नहीं चाहता है।
    “आप ठीक कह रहे हैं । रीति-रिवाजों की गहराई में उतरने की मैंने ही कब चेष्टा की!”
    “अब तो पहले और आज के रहन सहन में जमीन-आसमान का अंतर है। जगह- जगह सैलून खुल गए हैं। शहरी सभ्यता गांवों में भी पैर पसार रही है। आँखें खुली होने पर भी लकीर के फकीर होना क्या ठीक है!”
    “बाबू जी ,आप बड़े है। आप कुछ बताएँगे  हमारे भले के लिए ही तो बताएँगे ।अब से किसी प्रथा को मानते समय मैं अपनी आँखें हमेशा खुली रखूंगी।”
समाप्त