प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

देवपुत्र अंक नवंबर 2017 में प्रकाशित



निशानेबाज 
    एक गाँव में गेंदाराम रहता था |वह निशाना लगाने में बहुत चतुर था।  सुबह उठते ही बहुत से पत्थर बटोर लेता और कुँए की तरफ गुलेल लेकर निकल जाता।  
   उस समय लड़कियां और औरतें कुएं से पानी खींचकर घड़े भरतीं ,फिर उन्हें सिर पर उठाकर घर की ओर धीरे –धीरे कदम बढ़ातींगेंदाराम दूर से भरे घड़े पर निशाना लगाकर उन्हें फोड़ देता और खिलखिलाता----
   हा-हा हो गया छेद 
   फूट गया मटका 
   पानी टप-टपका
    ज़ोर से लगा झटका
    हा - - हा - -हा !
  
   गाँव वाले बड़े परेशान! सब उसे छेदाराम-छेदाराम कहकर चिढ़ाने  लगे। चिढ़कर तो वह और भी तेजी से घड़े फोड़ता। बच्चे-बड़े पानी के लिए तरसने लगे।
   उस गाँव में एक बार दाढ़ी वाले  साधुबाबा आये |परेशान गांववाले उनके पैरों पर गिर गये और चिल्लाये -महाराज,बचाओ ---बचाओ --इस छेदीराम ने घड़ों में छेद कर- करके  हमारा जीना हराम कर दिया है।”
   “क्यों छेदीराम !क्यों सताते हो इन लोगों  को ?साधुबाबा ने पूछा।
   “मेरा नाम छेदीराम नहीं गेंदाराम है। इन्होंने मेरा नाम बिगाड़ दिया है। मैं भी गुस्से में आकर इनके घड़ों की शक्लें बिगाड़ देता हूँ।”
   “तुम्हें जितना गुस्सा करना है करो ,जितने घड़े फोड़ने हैं  फोड़ो ,पर एक शर्त है!”
   “साधुबाबा ,आप  तो बहुत अच्छे हैं। घड़े फोड़ने को मना भी नहीं किया! आपकी हर शर्त मानने को तैयार हूँ।”
   “सुनो,जितने घड़े तुम फोड़ोगे,उतने तुम्हें  बाजार से खरीदने होंगे। फिर उन्हें भरकर घर-घर पहुँचाओगे।”
   “यह तो मेरा चुटकियों का काम है दीये तो मुझे बनाने आते ही हैं घड़े भी बना लूंगा, फिर पानी भरने में क्या देर!वह इतराता हुआ बोला।”
   अब तो वह पेड़ की ऊंची सी डाली पर बैठकर खूब निशाना लगातारात घड़े बनाने में गुजर जाती और दिन में उन्हें भर-भरकर घर-घर पहुँचाता रहता
   गाँव वाले बड़े खुश! पुराने घड़ों की जगह उन्हें नये घड़े मिलने लगे। औरतें खुश! बिना मेहनत के पानी भरे घड़े उनके घर पहुँच रहे थे। गेंदाराम भी खुश! निशानेबाजी के शौक को जी भरकर पूरा कर रहा था। पर उसका यह शौक कुछ दिनों तक ही पूरा  हो सका।
   रात -दिन के जागने से और पानी की ठंडक ने गेंदराम को बुखार ने आन दबोचा। घड़े बनाने से जो आमदनी होती थी वह कम होने लगी क्योंकि बने-बनाए घड़े तो बाजार की जगह गांववालों के घरों में पहुँच जाते।  
   धीरे -धीरे घड़ों पर निशाना लगाना उसका कम हो गया। एक दिन ऐसा आया जब न ही उसने किसी के घड़े पर निशाना लगाया और न छेदीलाल कहने से चिढ़ा।
   औरतें परेशान हो उठीं ---। री बहना, इसे क्या हो गया है --न घड़े फोड़ता है और न चिढ़ता है।हमें सारा पानी भरना पड़ रहा है। इस ढोया-ढाई से तो हमारे कंधे दुखने लगे।”
   “अब वह समझदार हो गया है।” एक औरत  बोली।
   गेंदाराम  हँसकर बोला –“सच में मैं समझदार हो गया हूँ। अब न मैं अपने लिए गड्ढा खोदूंगा और न ही उसमें जाकर पड़ूँगा।” 

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

बालकहानी




वनभोज/सुधा भार्गव
      धनिया –पोधीना दो मित्र थे। उनके खेतों में सब्जियों की बहार थी। हरे-भरे पालक ,मेथी, बथुआ हवा के साथ लहराते रहते। लाल टमाटर सिर उठाए अठखेलियाँ करते। टमाटर- मूली -गाजर तो सब समय बतियाते और बैगन राजा उनपर हुकुम चलाते।
     सुबह ही धनिया –पोधीना ताजी-ताजी खिलखिलाती सब्जियों को सावधानी से तोड़कर टोकरी में रखते और उन्हें बेचने सब्जी बाजार चल देते। उस दिन भी बाजार ही जा रहे थे कि बादल घड़घड़ा उठे और बरसने लगे धड़-धड़ । सब्जी मंडी पहुँचते-पहुँचते पूरी तरह भीग गए। काफी समय बैठे रहे पर मुश्किल से 3-4 खरीदार ही आए।
    “धनिया ,मुझे तो लगे अब कोई न खरीदने आएगा। इन सब्जियों का  क्या होगा?पानी से बुरी तरह गीली हो गई है। जल्दी ही सड़ जाएंगी।”
    “कैसे सड़ेंगी?मैं इन्हें सड़ने ही न दूंगा। पोधीना तू तो नाहक चिंता कर रहा है।” धनिये ने बड़े इतमीनान से कहा।
    “कैसे बचाएगा इन्हें नष्ट होने से—मैं भी तो जरा सुनूँ।”
    “इसमें कहने-सुनने की क्या बात है?अपने पड़ोसियों में बाँट देंगे। जो पैसा दे दे ठीक है न दे तो भी ठीक । कम से कम किसी के पेट में तो जाएंगी।”
    “तेरी सूझ तो अच्छी है।”  
    घर पहुँचकर यह बात दोनों ने अपनी पत्नियों से कहा। धनिया  की पत्नी धन्नो  इस बात के लिए राजी नहीं हुई और बोली- “कच्ची सब्जी क्या देना। इन्हें पकाकर पड़ोसियों के घर पहुंचा दूँगी।”
    “तू अकेली कैसे करेगी मेरी धन्नो ?”
    “यह सब मुझ पर छोड़ दो। मेरी सहेलियाँ बुलाते ही मदद को दौड़ी-दौड़ी आएंगी।”
    “ठीक है तू सब्जी पकाने का इंतजाम कर । मैं और पोधीना उसे घर -घर पहुंचा देंगे।”
    पड़ोसियों को जब यह मालूम हुआ तो बहुत  खुश हुए। एक बुजुर्ग महिला बोली –“सब्जियाँ तो बनकर आ ही रही हैं,क्यों न कुछ मिलकर पूरी -पराँठे बना लें और खेतों के पास पेड़ों के नीचे बैठ सब मिलकर आनंद से खाये।”
    सबको यह सुझाव पसंद आया। दोपहर के एक बजते -बजते औरत, मर्द और बच्चे पेड़ों के नीचे इखट्टे होने लगे।रोटी-सब्जी के अलावा जो जिससे बना अपने साथ ला रहा था। कोई गन्ने के रस की खीर लाया तो कोई गुड़-आटे की बर्फी। कोई आम-नींबू का आचार तो कोई पापड़ और मसालेदार मिर्ची । चमन तो अपने खेतों से गन्ने के गन्ने ही तोड़ लाया कि भोजन के बाद इनको चूसकर दाँत मजबूत करेंगे।
    गुदगुदी हरी घास पर सबने अपना डेरा जमाया। बच्चे कहाँ बैठने वाले। उन्होंने तो पहुँचते ही हुल्लड़ मचाना शुरू कर दिया।
   
    अक्कड़ बक्कड़ बंबे  भौं
    अस्सी नब्बे पूरे सौ
    सौ पर पड़ा डाका
    डाकू निकल कर भागा।
    डाकू को पकड़ जकड़ लो  
    माफी मांगे तो छोड़ो -छोड़ो ।
  
कुछ तेजी से कबड्डी खेलने चल दिए। धूम मच गई --
   
   छल कबड्डी छल कबड्डी
   बाप तेरा बुड्ढा
   माई तेरी लंगड़ी ,
   पकड़ ले बेटा टँगड़ी।
   छल कबड्डी छल कबड्डी
   चल खेल कबड्डी ।
    
औरतें एक तरफ बैठ गईं और मर्द दूसरी तरफ। दोनों के बीच तालियों की ताल पर गूंज उठे भजन-
    
    शंकर जी भोले भाले
    गले में नाग डाले
    जटा के बाल काले
    हम पर दया करो ।
    
तभी एक छोटा सा बच्चा रोने लगा । उसकी माँ उठकर उसे मनाने लगी ---     
   
   लल्ला लल्ला लोरी
   दूध की कटोरी
   दूध में बताशा
   मुन्ना करे तमाशा
   
    कुछ देर में ही बच्चा हंसने लगा । माँ का उदास चेहरा भी गुलाब की तरह खिल गया।  
बच्चों की टोली भी खेलते खेलते थक गई थी।
 एक बोला-
    भूख लगी भूख लगी।
दूसरे शैतान लड़के ने जोड़ दिया 
    खाले बेटा मूँगफली
तीसरी आवाज आई-
    मूँगफली में दाना नहीं
चौथी आवाज हंसी
    आज से तू मेरा मामा नहीं।
     
     अनगिनत हंसी के फब्बारे छूटने लगे। साथ ही खाने के कटोरदान और डिब्बे खुलने लगे। घी और मसालों की महक से भूख और बढ़ गई। पहले बुजुर्गों और बच्चों को खिलाया गया। बाद में महिलाओं ने खाया।
    आनंद की घड़ियों में सारी दोपहरिया कैसे बीत गई पता ही न चला। पर घर तो जाना ही था--।  
     एक बोला –“भैया, इसी तरह का वृक्ष भोज अब कब होगा? मन तो किसी का भी जाने को नहीं कर रहा।”
    “दादू, अगले महीने ठीक रहेगा।”
    “हाँ रे सुक्खू, महीने में एक बार तो होना ही चाहिए। साथ - साथ खाने,उठने-बैठने ,एक दूसरे के दुख -दर्द बांटने से प्यार बढ़े ही है। मुझे तो ऐसा  लगा  जैसे कोई त्यौहार मना रहे हों।”
    तब से उस गाँव में हर माह वृक्ष भोज होने लगा। बाद में इसे वन भोज कहने लगे जो ग्रामवासियों के लिए वनमहोत्सव से कम नहीं था।  

समाप्त 

मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

देवपुत्र अंक जुलाई 2017 में प्रकाशित





विश्व का सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक देवपुत्र अंक जुलाई 2017 में प्रकाशित मेरी कहानी 
आनन्द


    आज तो हमारे लिए बड़ी खुशी का दिन है। हमारे बेटे आनंद का शिशु वाटिका में दाखिला हो गया है । अरे राधा तुम किस सोच में पड़ गईं?” कुश ने कहा ।  
    “ हम दोनों के कार्यालय जाने का समय और शाला की बस के आने का समय एक ही है । दोनों के रास्ते अलग –अलग हैं । बस स्टॉप तक आनंद  को  कौन छोड़ने जाएगा । अकेला तो वह जा नहीं सकता।’’ 
    “अरे चिंता न करो, माँ जी सब सम्हाल लेंगी ।”
  “कैसे ?वे तो खुद छड़ी के सहारे चलती हैं । लगता है बच्चे के लिए एक नौकरानी रखनी पड़ेगी।  
    “हाँ ,इसके अलावा कोई चारा नहीं । पर उसके शाला जाने के पहले दिन तो छुट्टी ले लो। शायद तुम्हारी उसे जरूरत पड़ जाए।
    “कैसे ले लूँ । बैंक की नौकरी लगे एक माह ही तो हुआ है।”
    अनमने से आनंद के पिता कुश चुप हो गए।
    जल्दी ही हैपी की देखभाल के लिए चन्दा मिल गई जो उनके माली की बहन थी ।  आनंद को एक सप्ताह  बाद स्कूल जाना था पर उल्लास उसके अंग –अंग में फूट पड़ता था ।जिससे भी मिलता कहता –क्या तुम्हें मालूम हैं मैं शाला  जाने वाला हूँ । दादी के पास बैठा तो अपने सपनों का जाल बुनता रहता । दादी कहती –“बच्चे,तुझे स्कूल जाकर ,पढ़लिखकर बहुत बड़ा आदमी बनना है।” 
    “हाँ –हाँ दादी ,घबराओ नहीं ! मैं पेड़ की तरह बहुत बड़ा बनूँगा । फिर तुम मेरी  टहनियों पर बैठकर झूले की तरह झूलना।”
    “अरे बच्चे, जरा सोच तो -मैं टहनियों तक कैसे पहुँचूँगी ?”
    “ओहो ! दादी माँ देखो मैं इतना झुक जाऊंगा।” आनंद उनके पैरो को छूकर कहता।  
    दादी माँ तो निहाल हो जाती।
    “तू ओर क्या करेगा रे मेरे लिए।”
    “मैं –मैं बड़ा होकर एक बड़ी सी चिड़िया बनाऊँगा।”
    “चिड़िया !चिड़िया का मैं क्या करूंगी ?”
    “ओह सुनो तो –उस पर मेरी दादी माँ बैठकर जहां चाहेगी उड़ जाएगी फिर इस छड़ी की जरूरत नहीं पड़ेगी।”
     “हा –हा –खूब कहा !वह तो  मेरा उड़नखटोला हो गया।”
    दादी –पोते की बातें खतम ही न होतीं अगर राधा आकर उन्हें न टोकती-“ आनंद ,कल तो तुम्हें स्कूल जाना है । जल्दी सोना भी है।”  
    बिना आनाकानी किए वह माँ के साथ सोने चल दिया ।
    अगले दिन राधा जल्दी उठी । बेटे को तैयार कर उसने उसकी मनपसंद के पकौड़े बनाए और टिफिन लगा दिया । इतने में चन्दा आ गई ।
    “चन्दा तू समय  पर आ गई ।शाला की बस भी आती होगी ।आनंद को छोड़ने जा।”
    आनंद ठिठक गया और लगा माँ को घूरने।
   “क्या हो गया। शाला क्यों नहीं जाता । अभी तो तू खुश नजर आ रहा था।”
    “मैं नहीं जाऊंगा।”
    “क्यों नहीं जाएगा?”
    “आप छोड़ने चलो।”
    “मैं –मैं कैसे जा सकती हूँ । मुझे कार्यालय जाना  है। देरी हो जाएगी । चंदा के साथ ही तुम्हें जाना होगा।”
    चंदा उसका हाथ पकड़े बाहर निकली और खींचती हुई ले जाने लगी । वह डरी हुई थी कि कहीं बस न छूट जाए । आनंद का शाला जाने का सारा उत्साह फीका पड़ गया । पहली बार वह इस तरह काफी देर के लिए माँ –बाप से अलग हो रहा था। चाहता था माँ से नमस्ते करते हुए बस में चढ़े और माँ उसकी चुम्बी ले। वह  अपने को किसी तरह बस की ओर घसीट रहा था ,लग रहा था मानो दोनों पैरों से 1-1 किलो के पत्थर लटक रहे हैं।  
    बस स्टॉप पर आनंद  ने देखा - कोई दोस्त अपनी माँ के साथ आ रहा है तो कोई बतियाते हुये अपने बाबा का हाथ थामे हुये हैं । उसके दिल में कुछ चुभ सा गया और उदासी की परतें गहरी हो गईं । । वह बस में बैठ तो गया लेकिन जैसे ही बस चली उसकी रुलाई फूट पड़ी ।
    बच्चों का ध्यान रखने के लिए बस में हमेशा कुंती रहती थी। उसने कुछ देर तक तो फुसलाया –“बेटा चुप हो जा शाला  में तुझे सब बहुत प्यार करेंगे।” लेकिन जब आनंद  ने चुप होने का नाम नहीं लिया तो गुर्रा पड़ी –“अरे चुप हो जा वरना अभी बस से नीचे उतार दूँगी।”
    आनंद भयभीत हो चुप तो हो गया पर स्कूल तक सिसकियां भरता रहा ।
    शाला में कुछ बच्चे माँ से अलग होने के कारण दुखी थे,कुछ नए वातावरण से घबराए हुए थे पर आनंद  तो कुछ और ही कारण उदास था।वह सोचने लगा –माँ उसे प्यार नहीं करती । इसीलिए तो वह बस तक नहीं छोडने आई। माँ की मजबूरी समझने के लायक उसकी उम्र न थी। बस उसे तो चन्दा की जगह माँ चाहिए थी ।
    कक्षा में शिक्षिका ने हँस-हँस कर नन्हें –मुन्नों का स्वागत किया । एक –दूसरे की तरफ दोस्ती के कोमल हाथ बढ्ने लगे । कुछ देर के लिए आनंद  सब कुछ भूलकर नए साथियों में मग्न हो गया ।
    टिफिन का समय होने पर आवाज लगी –बच्चों नैपकिन निकालकर अपना –अपना टिफिन खाओ। कुछ ने अपना टिफिन बॉक्स खोला ,कुछ की मदद की गई पर आनंद  गुम सा बैठा रहा । पास बैठी एक छोटी बच्ची ने अपने टिफिन में से सेव का एक टुकड़ा उठाया और आनंद की ओर बढ़ाते हुए मैना की सी आवाज में बोली-“भैया ,खा लो ,भूख लगेगी।”आनंद  ने उसके स्नेह को देख झट से मुँह खोल दिया और माँ की मीठी –मीठी याद आने लगी ।
    इतने में घंटी बज गई और आनंद  भूखा ही रह गया ।
    शाला की छुट्टी होने पर,माँ  मिलने की खुशी में बच्चों के चेहरे कमल की तरह खिले हुए थे। बस स्टॉप आने से पहले ही आनंद  माँ की एक झलक पाने को खिड़की से झाँक -झाँक कर देख रहा था । माँ की जगह चन्दा को खड़ा देख वह मन ही मन उबल पड़ा ।
    बस रुकने पर बोला –“मैं नहीं उतरूँगा।”बस की आया ने उसे जबर्दस्ती उतारा और चन्दा एक हाथ पकड़कर उसे बाहर की ओर खींचने लगी । इस खींचातानी में उसके कंधे में झटका लगा और वह दर्द से चीख पड़ा । नौकरानी ने उसे गोद में लेना चाहा पर वह तो  रोता हुआ उसके हाथों से सरककर भाग निकला । आगे –आगे आनंद  पीछे –पीछे चन्दा । बच्चे की तरह तो वह क्या भागती –हाँ भागते –भागते हाँफने जरूर लगी ।
    पोते के रोने की आवाज सुन दादी माँ तड़प उठी ।
    “दादी –दादी मेरे हाथ में बहुत दर्द हो रहा है। कहकर उससे चिपट गया मानो एक अरसे के बाद मिला हो । प्यार की गरमाई पा वह दादी के बिछौने पर भूखा ही सो गया ।
    चन्दा भी आनंद के दर्द को देख परेशान थी । उसे अपनी नौकरी खतरे में नजर आई। उस समय तो उसने जल्दी से जल्दी वहाँ से निकल जाना ठीक समझा। आनंद के माँ-पिता के आते ही बोली –“मुझे थोड़ा जल्दी घर जाना है।” 
    “ठीक है ,मैं तो आ ही गई हूँ पर कल समय से आ जाना।
    राधा की हाँ में हाँ मिलाते हुए चंदा तो वहाँ से खिसक गई ।
  कुछ देर बाद आनंद  सोकर उठा । पिता  ने प्यार से उठाना चाहा पर वह तड़प उठा –पिता जी  बहुत दर्द ---।
    राधा भागी –भागी आई –“क्या हुआ बेटा !”
    “चन्दा ने मेरा हाथ बहुत ज़ोर से खींचा । माँ तुम बस स्टॉप पर मुझे लेने आ जाती तों ऐसा नहीं होता । आप मुझे प्यार नहीं करती हो इसीलिए तो नहीं आईं। माँ ,कल मुझे छोड़ने चलोगी ---बोलो न माँ ।” आनंद  का गला भर्रा उठा ।
    बेटे के दुख से भरी आवाज सुन राधा व्याकुल हो उठी और आनंद को कलेजे से चिपकाते हुए बोली –“हाँ बेटा जरूर चलूँगी।”
    “मज़ाक करती हो !कैसे छोडने जाओगी ?अभी –अभी तो कार्यालय जाना शुरू किया है । नहीं गईं तो अधिकारी  नाराज हो जाएँगे।”आनंद  के पिता  ने मुस्कुराते हुए चुटकी ली।  

    “नाराज होने दो । मुझे उसकी चिंता नहीं !चिंता है अपने आनंद की । उसके लिए मैं कुछ भी कर सकती हूँ।” वाक्य पूरा होते ही खुशियाँ घर की देहली पार कर अंदर आ गईं।  




सोमवार, 13 मार्च 2017

प्रकाशित -बाल किलकारी पत्रिका


बाल कहानी
प्यार की भूख 


एक हाथी था जिसका नाम था मंगलू | उसकी कुछ अलग ही शान थी। शान तो होनी ही थी राजा का हाथी जो ठहरा। मंगलू को अच्छी किस्म के भरपूर चावल दिए जाते।वैसे चावल दूसरे हाथियों की तकदीर में न थे। उन्हें खा-खाकर वह मोटा और ताकतवर हो गया।
उसकी आदत हो गई थी कि खाते समय अपने चारों तरफ चावल छिटकाता और बड़ी मस्ती से झूमता उन्हें चबाता । उन चावलों की खुशबू हवा में घुल - घुल जाती। एक दिन वह खुशबू कुत्ते की नाक से जा टकराई।
-अरे वाह!क्या चावल है। खाने वाले की तो किस्मत ही खुल गई होगी । जरा देखूँ तो वो कौन भाग्यवान है?
यह सोचकर वह सूंघते-सूंघते हाथीशाला तक आ पहुंचा। मोती से दमकते सफेद चावलों को देख उसकी तो लार टपकने लगी।
-आह!आज तक ऐसा महक वाला चावल न देखा और न खाया। एक  मिनट में ही जमीन के सारे चावल सफाचट कर देता हूँ।
पालक झपकते ही चावलों को वह सपासप खा गया। चावल उसे इतने अच्छे लगे कि उनके लालच में अब वह हाथीशाला रोज आने लगा। जो भी चावल के दाने वहाँ बिखरे होते उन्हीं को खाकर बस अपना गुजारा करता। भूखा रहने पर भी वह  दूसरी जगह जाकर नहीं खाता था क्योंकि वहाँ के चावल उसे इतने स्वादिष्ट नहीं लगते थे।
अपनी शाला में कुत्ते को देखकर हाथी बड़ा खुश होता । अकेले –अकेले रहते वह उकता जाता था। कुछ ही दिनों में दोनों की अच्छी खासी दोस्ती हो गयी। इस दोस्ती पर प्यार का रंग ऐसा चढ़ा कि एक मिनट अलग रहना भी उनके लिए मुश्किल हो गया। कुत्ते को देखकर हाथी उसे सूड़ से बार –बार छूता और वह भी हाथी की सूड़ को इधर –उधर कर उससे खेलता। उसे प्यार से चाटता।
अब तो हाथी आप जानकर ज्यादा से चावल सूंड़ से इधर -उधर फैला देता ताकि कुत्ते को कम न पड़ जाएँ और वह भूखा न रहे। पेट भर खाने से कुत्ते की सेहत भी अच्छी हो गई।  उसके बाल मक्खन की तरह चिकने और चमकदार दिखाई देने लगे।     
एक दिन शहर से हाथीवान का रिश्तेदार बांगड़ू आया। कुत्ते को देख वह उस पर रीझ गया और बोला –चाचा,कुत्ते को मुझे दे दो। बड़ा ही प्यारा है।इसका हाथीशाला में क्या काम।
-अरे लल्ला, यह राजा के हाथी का दोस्त है। सारे दिन इखट्टे रहते हैं। इसे तो तुझे मैं नहीं दे सकता।
-मैं इसके बदले तुम्हें खूब सारा पैसा दूँ तो भी न दोगे ?
पैसे के नाम उसका मन डोल गया।
-अच्छा चल अपने प्यारे भीतीजे की ही बात मान लेता हूँ।
बाँगड़ू अच्छी -खासी कीमत देकर कुत्ते को अपने साथ ले गयाकुत्ता जाते हुए पीछे मुड़मुड़कर देखने लगा।शायद हाथीवान को उस पर दया आ जाए। पर उस बेदर्दी ने कुत्ते का दर्द समझते हुए भी अंजान बनने की कोशिश की। बाँगड़ू बड़ी बेदर्दी से आगे की तरफ खींचता चला जा रहा था।
कुत्ते के बिना हाथी बड़ा ही दुखी हुआ और ज़ोर ज़ोर से चिंघाड़ने लगा। ऐसा लगा मानो वह रो रोकर कुत्ते को पुकार रहा हो। उसने खाना -पीना ,-नहाना सब छोड़ दिया।बुझी -बुझी ,गीली आँखें साफ बता रही थीं कि वह किसी कष्ट में है। 
 लोगों ने राजा को इसकी खबर दी । राजा घबरा गया।  उसने तुरंत अपने मंत्री को बुलाया और कहा – मंत्री जी ,हमारे प्यारे हाथी ने खाना -पीना छोड़ दिया है इससे तो वह कमजोर हो जाएगा। उसकी परेशानी का कारण  जल्दी ही पता कीजिये। वरना हमें चैन न मिलेगा।
मंत्री ने हाथी की अच्छी तरह जांच –पड़ताल की पर उन्हें उसके शरीर में कोई बीमारी न दिखाई दी
उन्होंने हाथीवानों से पूछा – हाथी किसी को प्यार करता था क्या ?इससे इसका कोई प्रिय तो नहीं बिछुड़ गया ?कहीं उसी के गम में दुखी हो।
-हाँ मालिक !इसकी एक कुत्ते से बहुत दोस्ती थी ।दोनों घंटों खेला करते थे। कुछ दिनों पहले उसे एक आदमी ले गया है । तभी से यह हाथी बेचैन है। एक हाथीवान बोला।
मंत्री को उसकी बात जंच गई ।
उसने राजा को बताया –महाराज,हाथी अपने दोस्त कुत्ते से बिछुड़ जाने के कारण बहुत दुखी है। इसी से सब कुछ त्याग  बैठा है। राज्य में घोषणा करवा दीजिए कि जिसके घर में हाथी का मित्र  पाया जाएगा उसे आप सजा देंगे।
राजा ने घोषणा करवा दी। । इस समाचार को सुनकर बाँगड़ू घबरा गया और उसने कुत्ते को तुरंत छोड़ दिया।
कुत्ता सरपट दौड़ता हुआ आया और हाथी से चिपट गया जैसे वर्षों बाद मिला हो। उसकी आँखों से तो बहते हुए खुशी के आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
हाथी ने  दोस्त को सूड़ से बड़े प्रेम से खाना खिलाया ,बाद में खुद ने खाया।बहुत दिनों के बाद दोस्तों ने भरपेट चावल के दानों का स्वाद लिया।

 वहाँ खड़े लोग उनकी दोस्ती को  दे चकित थे और पहली बार उन्होंने जाना कि पशु भी प्यारभरी हवा मेँ सांस लेना चाहते हैं।

शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

देवपुत्र पत्रिका में प्रकाशित -वीर सिपाही



                              देवपुत्र पत्रिका 
            (ऊपर क्लिक करने से आप पत्रिका में भी यह कहानी पढ़ सकते हैं।)     

वीर सिपाही/सुधा भार्गव 

सूरज से दमकते चन्दन बाबू के घर में उमड़ते घुमड़ते काले बादलों का साया छा  जाना चाहता था। एक पल खामोश न रहने वाली उनकी लाड़ली आज खामोशी के जंगल में दिखाई दे रही थी।  उसके लिए तो चुप रहना उतना ही कठिन था जैसे बादलों में छलांग लगाना। उसका उदास चेहरा माँ-बाप की बेचैनी ही बढ़ा रहा था। वे तो उसे कल की वही शैतान चंचल पारो देखना चाहते थे।

विद्यालय  से आते ही न उसने खाया न पूरे विद्यालय की चकल्लस सुन माँ ने कानों में उँगलियाँ ठूँसी। बस बिस्तर पर लोटन कबूतर हो गई।
घर में घुसते ही पर्वत ने अपनी बहन को असमय लेटे देखा तो उछल पड़ा –ए पारो –कोपभवन में कैसे लेटी है?एकदम फुल्ले फुल्ले गाल—बिलकुल कैकई लग रही है।माँ से कितनी बार कहा –तुझे दूरदर्शन की हिन्दी धारावाहिक न देखने दें । बिगड़ जाएगी ---बिगड़ जाएगी। बिगड़ गई न तू!
-देखो भैया ,मुझे छेड़ो मत –वरना बहुत बुरा होगा।
-बुरा तो हो ही रहा है। तेरी चुप्पी ने सिर दर्द कर दिया है। इससे बुरा अब क्या होगा! मेरी अच्छी बहना अपने  भाई को तो बता दे –तेरे दिमाग में क्या चल रहा है?
-भैया,विद्यालय की दीदी कह कह रही थीं –सेना में भर्ती हो रही है लड़कों के साथ लड़कियों की भी। मैं भी तुम्हारी तरह एन ॰सी ॰सी॰ की ट्रेनिंग लेना चाहती हूँ । सेना में भर्ती होकर देश का वीर सिपाही बनूँगी।पता नहीं मम्मी-पापा इसके लिए सहमत होंगे या नहीं। 
-तू पागल हो गई है क्या?अगर नहीं हुई है तो एन॰सी॰सी ॰की ट्रेनिंग के समय रात -दिन मेहनत करके पागल हो जाएगी। शिविर में तो सुबह ही जगा देते हैं । भोर की किरणों के साथ दौड़,व्यायाम और ऊंचाई पर चढ़ने का अभ्यास शुरू हो जाता है। अच्छे-अच्छे मुर्गे बन जाते हैं और कूकड़ू करते भाग जाते हैं । फिर तू किस खेत की मूली है।
-भैया देखो—तुम मुझे फिर चिढ़ा रहे हो। न जाने तुम मुझको अपने से कम क्यों समझते हो ? मैं तुम्हारी तरह यह सब कर सकती हूँ और हाँ, समय आने पर सीमा पर भी लड़ने जाऊँगी।
-हिन्द पाक की सीमा पर जब देखो दुश्मनों की फौज से मुठभेड़ होती रहती है। न बाबा !मैं अपनी इकलौती बहन को  सेना में भर्ती नहीं होने दूंगा। माँ तो जल्दी से लड़का खोजकर तेरी शादी करने की सोच रही है  फिर तू जाने और –हमारे जीजा जी जाने।
-ओह भैया !तुम कभी मेरी मदद नहीं कर सकते सिवाय खिल्ली उड़ाने के। जाओ तुमसे नहीं बोलती।

भाई की बातों से पारो का मन बुझ सा गया। । इतने में पिताजी आ गए। काफी देर से भाई-बहनों की तकरार सुन रहे थे। पापा को देख पारो बड़ी उम्मीद के साथ बोली—पिताजी, क्या आप भी चाहते हैं किमैं घर साफ करने ,खाना बनाने,फटे कपड़े सीने में ही गुजार दूँ। दुनिया कितनी आगे बढ़ रही है। घर के साथ -साथ मैं बाहरी दुनिया में भी तो कदम रख सकती हूँ। मुझे आप घर की चारदीवारी में ही बंद क्यों रखना चाहते हैं---बोलिए न पिताजी?
-बेटी ! तुम गलत समझ रही हो। हम तो तुम्हें इतना आराम और प्यार देना चाहते हैं कि हमेशा गुलाब की तरह खिली रहो।
-पिताजी ,ऐसा प्यार,आराम किस काम का जो मुझे  अपाहिज बना दे।अपने काम के लिए हमेशा दूसरों का मुँह ताकूँ। ।  मुसीबत आने पर मैं बेचारी नहीं बनना चाहती। नहीं चाहिए किसी की दया ।
-बिटिया,तुम्हें दूसरों की जरूरत पड़ेगी । क्या अपनी रक्षा खुद कर पाओगी?
-मैं बंदूक चलना सीखूंगी –जूड़ो कराटे सीखूंगी। केवल अपनी ही नहीं देश की भी रक्षा करूंगी।
-पारो की माँ!सुन रही हो अपनी बेटी की बातें । लगता है हमारे घर में झांसी की रानी ने दुबारा जन्म ले लिया है। चन्दन बाबू अपनी बेटी के साहस और देशभक्ति की भावना को  देख बहुत खुश थे।
-आप भी किसकी बातों में आ गए। भला यह सीख पाएगी।
-सीखने के लिए लगन होनी चाहिए। यह लगन हमारी बेटी में है। वसंत कुंज में रहनेवाली भारत की पहली महिला आकाश गोताखोर (स्काई ड्राइवर )रीचल थॉमस ने तो नानी-दादी बनने के बाद नॉर्थ पोल से छ्लांग लगा दी। लगन के कारण न जाने कब से अभ्यास कर रही होंगी। देखना –हमारी बेटी भी एक दिन देश का नाम ऊंचा करेगी। और हाँ पारो जब तुम्हें एन॰सी॰सी ॰की ट्रेनिंग लेनी ही है तो देरी किस बात की है। कल ही विद्यालय से आवेदन पत्र ले आओ। चन्दन बाबू उसकी ओर देख मुस्कुरा उठे।  
-ओह मेरे अच्छे पिताजी !कहकर वह उनके गले लग गई।
पारो के चेहरे ए उदासी का घाना कोहरा छंटचुका था। वह कमर कसकर वीर सिपाही बनने का अपना सपना सच करने में लग गई।