प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

शनिवार, 6 नवंबर 2021

बालकहानी- पायस ऑनलाइन डिजिटल मासिक बालपत्रिका


अनोखे दीपक 

सुधा भार्गव 


    "अरे सिट्टू कल दीवाली है।  सबके चेहरे गुलाब की तरह खिले हैं  और तू -तू इतना उदास ?तेरी माँ ने डांट पिला दी है क्या ? कर रहा होगा कोई शैतानी।वह भी क्या करे ! है भी तो तू एक नंबर का उधमबाज ।" 

     "ओह दादू !न जाने क्या बोलते जा रहे हो । मेरी  तो सुनो।" 

     "मेरा सिट्टू तो आज बड़ा सीरिअस है। चल बता तेरे दिमाग में क्या तूफान उठ रहा है?"

     "दादू इस बार दीवाली कैसे मनाऊँगा । माँ ने चीनी लाईट खरीदने को मना कर दिया है और पापा --उन्होंने तो वह झालर भी  कूड़ेदान में फेंक दी जो पिछले साल खुद ही बड़े शौक से खरीदकर लाये थे। न जाने उनको अचानक क्या हो गया है।"  

     "बेटा ,दीवाली पर दूसरे देश की बनी लाइट ,झालर,पटाखे  हम खूब खरीदते हैं। इससे हमारा पैसा विदेशों  में चला जाता है । इसे तो रोकना होगा। 

     "पर बिना उनके दीवाली की रौनक तो गई। " 

      "कैसे चली गई। फुलझड़ी ,झालर हमारे देश में भी तो बनती हैं। उनको खरीदकर घर का पैसा घर में ही रहेगा।अपने देश के बने मिट्टी के दिये जलाकर अंधेरे को भागा देंगे ।एकदम स्वदेशी दीवाली मनेगी स्वदेशी दीवाली। टन टनाटन टन दीयों की बारात सजी होगी । उसमें शामिल होने को लक्ष्मी जी भी भागी चली आएगी।" दादू भी सिट्टू के साथ दूसरे सिट्टू लगने लगे। 

     "हमारे घर में भी ---। तब तो हम मालमाल हो जाएँगे। पर बिजली की लाइट तो बहुत रोशनी देती है। उतनी रोशनी करने के लिए तो हजारों दिये चाहिए । इतने दीये आएंगे कहाँ से दादू। '' 

   "हूँ --बात तो तुम्हारी ठीक है।  इस वर्ष तो हजारों  दीपक की माँग होगी। अरे वो देखो मनमौजी कुम्हार  आ रहा है । चलो इसी से  पूछते हैं।"  

     दादू और सिट्टू को देखते ही मनमौजी  गदगद हो उठा । बोला---"भैया हमारे तो दिन फिर गए। लो मुंह  मीठा करो। शुद्ध घी के हैं।  घरवाली  ने बनाए हैं। इस बार तो हजारों दीये बनाने पड़ेंगे । दो जगह से  हजार -हजार के दो ऑर्डर भी मिल गए । चमत्कार हो गया। लक्ष्मी की किरपा समझ लो।"

     "हाँ मनमौजी  अब तो हर दीवाली पर तुम खुशकिस्मती का दिया जलाओगे। तुम्हारे कारण ही हम भी स्वदेशी दीवाली धूमधाम से माना पाएंगे । मेरे पोते को तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि बिना विदेशी पटाखों और दीयों के दिवाली भी मन सकती है।"      

     "मनमौजी काका  लाखों दीये कैसे बनाओगे? दो दिन बाद ही तो दीवाली है।मुझे तो बड़ी चिंता हो रही है। दीये नहीं मिले तो हमारी दीवाली भी गोल ही समझो। "परेशान सा सिट्टू बोला। 

     "अरे बिटुआ  हमने तो दो माह पहले से ही तैयारी शुरू कर दी है । देखते जाओ  हम  मिट्टी के ऐसे सुंदर- सुंदर दीये बनाएँगे कि मन ललच ललच जाएगा। मैं तो सोच रहा हूँ इस बार  मिट्टी के साथ गोबर मिलाकर दीये बनाऊँ।" 

    "छीं छीं --गोबर की बदबू ही बदबू फैल जाएगी। कौन खरीदने आयेगा ?मेरा तो सुनते ही जी मिचला रहा है।"सिट्टू ने नाक कसकर बंद कर ली।  

     "वह तो मैंने तुम्हें बता दिया वरना  बनने के बाद तो पता ही नहीं चलता कि गोबर के बने हैं। इससे मिट्टी की बचत भी हो जाएगी और दीवाली के बाद ये खाद बनाने के काम आ जाएँगे। इनको गमलों में या किचिन गार्डन में डाल सकते हैं।" 

     "अरे वाह ये तो जादू के दीये हो गए। तब तो मैं अपने कमरे से बाहर रखे गुलाब -चमेली के गमले में दीये रख दूंगा। उनके जादू से गुलाब बड़े बड़े हो जाएँगे। "सिट्टू एकाएक चहक उठा। 

     "यह तो मनमौजी तुमने पते की बात कही। न किसी तरह की गंदगी न प्रदूषण । गोबर के दीये तो एक तरह से इकोफ्रेंडली हुये। पर तुम इन्हें बनाओगे कैसे। तुम्हारा बेटा तो काम में हाथ बँटाना ही नहीं चाहता।"  

      "अरे बाबू हम बोले न !हमारे तो भाग जग गए।  अब तो मेरा सारा परिवार इसमें लग गया है। सबके दिमाग में नई नई बातें उमड़ घुमड़ रही हैं। सुरगू की तो क्या कहूँ !कहाँ उसे मिट्टी छूने से चिढ़ थी और अब शहर न जाने की कसम खा ली है । एक दिन बोला- -बापू तेरे साथ रहकर अपने दादा-परदादा के धंधे को आगे बढ़ाऊंगा। 

    "हमारे लिए तो गोबर के दीये नई बात है। हमने तो कभी सुना नहीं!"दादू बोले। 

     "जरूरत पड़ने पर तरकीब अपने आप ही जन्म ले लेवे हैं। हमारे पास गोबर का पहाड़ है पर उसकी कीमत कभी समझी ही नहीं। "

     "काका गोबर से दीपक बनाते कैसे हो?जल्दी बताओ। फिर मैं अपने दोस्तों को बताकर उन्हें हैरान कर दूंगा।"सिट्टू बहुत कुछ जानने को उतावला था।  

    "अरे बड़ा सरल है बनाना बच्चे । सूखे गोबर को पहले महीन पीस लेवे हैं। फिर उसमें मिट्टी  मिलाकर गूँथना पड़े  हैं। मेरी  दोनों बिटियाँ तो छोटे छोटे हाथों से बड़े अच्छे दिये बनावे हैं। बनाती चली जाएंगी --बनाती चली जाएंगी। थकती भी नहीं। ऐसा जुनून छाया हुआ है सब पर दीपक बनाने का।  2-3 दिनों तक धूप में सूखने के बाद तुम्हारी काकी बहुत से रंगों से उनपर चित्रकारी कर देती है।


मैं तो गोबर में कपूर भी थोड़ी सी डाल दूँ हूँ  जिससे हवा खुशबू से भर जाये।"  

    "पहले के दीयों से  गोबर के दीये   तो  एकदम अलग है।हीरो है हीरो ।क्यों दादू ठीक कह रहा हूँ न !"

    "इसकी एक बड़ी खासियत है । यह  तेल नहीं सोखता दूसरे जलते समय इसमें घी और कपूर की खुशबू भी आती है। "मनमौजी बोला। 

    "अरे वाह !यह नया दीया तो  कमाल का है! जब मैं छोटा था दीवाली पर बहुत सारे मिट्टी के दिये खरीदे जाते थे। पहले पानी में कई घंटों के लिए डूबा देते थे। फिर  हम भाई बहन  उन्हें निकाल एक पेपर पर फैला देते या धूप में रख देते। माँ कहा करती ऐसा करने से दीये ज्यादा तेल नहीं पीते। गोबर के दीये से तो तेल भी बच गया और पानी में भिगोने का झंझट भी खतम । ऐसे नए नए विचार तुम्हें कब से सूझने लगे !"दद्दू उत्साहित से बोले। 

    'पहले कभी दिमाग में आया ही नहीं बाबू कि लोग बदल रहे हैं समय बदल रहा है ।लोगों की पसंद बदल रही है । उसके अनुसार अपने काम करने के तरीके में में बदलाब लाना चाहिए।  उठने की तो कोशिश की नहीं ,अपना काम छोटा है हम छोटे हैं यह सोचकर अपने को अपनी ही आँखों में गिरने लगे। आत्मनिर्भर भारत की पुकार से हम  जाग गए । नतीजा आपके सामने है।" 

     "मनमौजी ,दीपक रोशनी ही नहीं करता बल्कि हमारे अंदर के अंधकार को भी मिटाता है। सच्चे अर्थों में तो इस दीवाली पर तुमने ही दीपक जलाया है।" मनमौजी अपनी तारीफ सुनकर फूला न समाया । 

    "काका अब तो मेरा दोस्त कक्कू भी दीवाली मना लेगा ।  मैं अभी उसे जाकर बताता हूँ  कि गोबर के दीये कम तेल पीते हैं।  बड़ा खुश होगा। उसकी माँ के पास बहुत कम पैसे रहते हैं न । वह ज्यादा तेल  नहीं खरीद पाती।" 

     "अरे बेटा दीवाली के समय खाली हाथ न जा। ये ले दस गोबर के दीये । उसे मेरी  तरफ से दे दीजो।"

     मनमौजी तुमने गोबर से दीये बनाकर  जैसे बड़ा काम किया है वैसे ही तुम्हारा दिल भी बड़ा है। मेरे लिए भी 100 दीये रख देना ।  लो ये रुपए एडवांस में।" 

"अरे बाबू इतनी जल्दी क्यों?। बाद में ले लूँगा।" 

"न मनमौजी !आई लक्ष्मी वापस नहीं करते ।मुस्कुरा कर उसने रुपए ले लिए।"

    मनमौजी का अंग अंग खुशी से  गुनगुना रहा था। उसका सारा परिवार बड़े उत्साह से अनोखे दीये बनाने में जुट गया।

समाप्त 

शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

उत्सवों का आकाश

  भाई दूजोत्सव

न्यारी प्यारी दुनिया

सुधा भार्गव

भोर ही चिड़ियों की चहचहाट सुन घूघर का मन नाच उठा । कहने को तो वह दो बच्चों की माँ हो गई थी। लेकिन आज भाईदूज के दिन  बचपन की उस चौखट पर जाकर खड़ी हो गई जहां भाई का हाथ पकड़ जिद किया करती थी मुझे क्लिप चाहिए,मुझे तो चूड़ियाँ चाहिए पर आज तो उसे कुछ और ही चाहिए था भाई से नहीं भगवान से। यही कि हे भगवान मेरे भाई की लंबी उम्र करो। वह खूब खुश रहे।

जल्दी से घर के कामों को निबटाने लगी साथ ही कुछ गुनगुनाती भी जाती। अपने बेटे गुलाल को देखते ही बोली-"अरे जल्दी नहा धोले। अपनी बहन को भी जगादे ।

" अरे परसों ही तो जल्दी जल्दी नहाया था। दीवाली फिर आ गई क्या!"

“तू ठीक कह रहा है । आज मेरे मन की दीवाली है। मेरा मन तो तेरे मामा में ही अटका रहता है। बड़ा प्यारा भाई है। दोपहर को तेरा मामा मुझसे टीका करवाने आने वाला है। खाना भी उसका यही हैं।"

"अच्छा! मामा के आप टीका करोगी!"

"अरे इसमें हैरत की क्या बात है। जैसे तेरी बहन तुझे टीका लगाएगी वैसे ही मैं अपने भाई के लगाऊँगी।जब मैं छोटी थी तब से टीका करती आई हूँ।" 

"ओह आपके समय भी भाई दूज होती थी!" भोले भण्डारी गुलाल ने पूछा। 

बेटे की मासूमियत पर घूघर ज़ोर से खिलखिला उठी । प्यार से उसे बाहों में लेती  बोली - "बेटा इस त्यौहार का सम्बंध तो भाई बहन से है । सुनते हैं बहुत पहले दो भाई -बहन थे। बहन का नाम यमुना और भाई का नाम यम। दोनों में बड़ा प्यार । यमुना बहुत सरल स्वभाव की थी । सब उससे मिलना चाहते। पर यम को तो देखते ही लोग इधर उधर दुबकने लगते। वह उनके प्राण लेने आया करता था। यमुना यह देख बड़ी परेशान हो जाती। 

"यमुना कैसी बहन थी !उसने अपने भाई को इतना गंदा काम करने को मना भी  नहीं किया !"

"अरे वह तो बड़ी चतुर थी। दूसरों के भाइयों को बचाने की तरकीब निकाल ही ली उसने।" 

"क्या तरकीब निकाली माँ?" वह जानने को उतावला हो उठा। 

"एक बार उसने यम भाई को दीवाली के दो दिन बाद दूज के दिन  घर बुलाया । उसके लिए बड़ा स्वादिष्ट भोजन बनाया और अपने हाथों से भाई को खिलाया। यम बड़ा खुश हुआ और बोला- "बहन तुझे क्या चाहिए?"

"भैया मुझे न रुपया पैसा चाहिए और न हीरे मोती । बस तुम इसी तरह हर साल आज के दिन मेरे पास आते रहना। लेकिन एक इच्छा है।" 

"जल्दी बता तेरी क्या इच्छा है। मैं चुटकी बजाते ही उसे पूरा कर दूंगा।"

"भैया, अगर मेरी तरह कोई बहन आज के दिन अपने भाई को घर बुलाकर टीका करे और उसे खाना खिलाए तो उसे तुम्हारा कोई डर न रहे।इस बात का मुझसे वायदा करो। 

यमराज ने यमुना की बात मान ली। तभी से दूज के दिन बहन भाई की रक्षा के लिए टीका करती चली आ रही है। नाम भी इसका भाईदूज पड़ गया।" 

"माँ भाईदूज की कोई कहानी सुनाओ न ।" गुलाब बोला। 

"अरे अभी समय कहाँ?पहले नहा- धोकर तुम दोनों भाई - बहन तैयार हो जाओ। जब तेरी बहन टीका करेगी तब सुना दूँगी।" 

दोनों भाई बहन कहानी सुनने के लालच में नए- नए कपड़े पहनकर जल्दी ही हाज़िर हो गए। अब तो माँ को कहानी सुनानी ही पड़ी।उसने शुरू की कहानी -


चटपटी चाट



सुनो गुलाल और मेरी गुलबानो

 भाई दौज का त्योहार आने वाला था । भाइयों की मंडली बातों में मगन थी।कोई कहता—मैं तो अपनी बहन को घड़ी दूंगा ---अरे मैं तो उसे बातूनी गुड़िया दूंगा –ऊह--मेरी बहन के पास तो गुड़ियाँ बहुत हैं उसे पैन देना ठीक रहेगा,पढ़ाई में काम आएगा। । गूगल खड़ा सोच रहा था –"मैं अपनी बहन चंपी को क्या दूँ? मैं तो इनकी तरह पैन -घड़ी दे भी नहीं सकता लेकिन उसे बहुत प्यार करता हूँ और कुछ न कुछ  जरूर दूंगा।" 

घर जाकर अपनी गुल्लक उलट- पुलट की । बड़ी बेचैनी  से सिक्के गिनने शुरू किए –एक –दो ---तीन । अरे ये तो 20 रुपए ही हुए।सब तो खर्च नहीं कर सकता । दादा जी हमेशा कहते हैं गुल्लक को कभी खाली नहीं छोड़ना चाहिए इसलिए 10 रुपए मैं इसी में रख देता हूँ। गुल्लक बंद करके दिमागी घोड़े दौड़ाने लगा –कान  के कुंडल तो दस रुपए में आ ही जाएंगे पर उसके तो कान ही नहीं छिदे हैं।  पहनेगी कैसे?गले की माला कैसी रहेगी? न बाबा उसे नहीं ख़रीदूँगा। कोई चोर गले से खींचकर ले गया तो --। दस रुपयों की तो बहुत सी टॉफियाँ आ जाएंगी पर उन्हें तो वह मिनटों में चबा जाएगी । अच्छा किताब खरीद लेता हूँ । पहले मैं पढ़ लूँगा फिर वह पढ़ लेगी । हम दोनों के ही काम आ जाएगी। 

किताब कैसी दी जाए ?वह फिर उलझ गया । कहानी की किताब तो उसे देना बेकार है पहले से ही उसके पास किताबों का ढेर लगा है । तब क्या दूँ?चुटकुलों की किताब ठीक रहेगी । पढ़ते –पढ़ते खुद भी  हँसेगी और दूसरों को सुनाएगी तो उन्हें भी गुदगुदी होने लगेगी । अपने दिमाग की खेती पर वह मंद-मंद मुस्कराने लगा जैसे बहुत बड़ा तीर मार लिया हो। दस रुपए उसने जेब के हवाले किए और इठलाता हुआ बाजार चल दिया । तभी चंपा  दरवाजा रोककर खड़ी हो गई –"क्यों भैया, इस बार भी क्या रुपए देकर टरका दोगे। वैसे तुम बहुत सयाने हो।पिछली बार पाँच रुपए का नोट दिया था । अगले दिन वापस भी ले लिया। बड़े प्यार से बोले थे-ला छोटी बहना पाँच का नोट,तुझसे खो जाएगा। इस बार तुम्हारे झांसे में नहीं आने वाली।" 

"मेरी चंपा  ,इस बार रुपये तो नहीं दूंगा पर जो भी दूंगा उसमें मेरा भी थोड़ा हिस्सा रहेगा।" 

"जाओ मैं तुमसे नहीं बोलती। मीनू-छीनू के भाई बहुत अच्छे हैं। वे उन्हें गुड़ियाँ देते हैं,बिंदी-चूड़ी देते हैं और तुम –तुम ही एक ऐसे भाई हो जो देकर ले लेते हो या उसमें हिस्सा-बाँट करने की  सोचते हो। 

"तूने भी तो घर में आकर  मेरे हिस्से का प्यार बाँट लिया। अकेला होता तो मम्मी-पापा का सारा प्यार मैं लूटता। न जाने क्या सोचकर माँ ने तुझे कल्लो भंगिन से पाँच किलो नमक के बदले ले लिया।" 

चंपा खिसियाकर रो पड़ी। "माँ—माँ—देखो ग़ुगलू मुझे तंग कर रहा है।" 

माँ के आने से पहले ही वह वहाँ से खिसक गया। जानता था,हर बार की तरह माँ उसे ही डांटेगी। 

गूगल  बड़ी शान से किताबों की दुकान पर जा पहुंचा कि बन जाएगा उसका काम चंद मिन्टों में। वहाँ जाकर तो उसका दिमाग घूम गया जब उसने देखा किताबों का पहाड़!कहीं लिखा था इतिहास ,कहीं भूगोल,कहीं संगीत तो कहीं चित्रकला। मन ललचाने लगा-यह भी ले लूँ—वह भी ले लूँ पर जेब में थे केवल 10 रुपए। अचानक उसकी निगाहें एक किताब से जा टकराईं जिसका नाम था ‘चटपटी चाट’। उसकी जीभ चटकारे लेने लगी। उसने तुरंत उसे खरीद लिया और रंगबिरंगे कागजों से सजाकर बीच में भोले मुखड़ेवाली चम्पा की फोटो चिपकाई । नीचे लिखा था –

दो चुटइया वाली चम्पी को /भइया की चटपटी चाट 

भाईदूज के दिन चम्पा ने बड़े उत्साह से अपने भैया को टीका किया । बेचैनी से इधर उधर तांक-झांक भी कर रही थी–देखें क्या देता है गुगलू  उसे। 

गूगल  ने चम्पा के  हाथों  में किताब थमा दी पर यह क्या---वह तो चम्पा की जगह चंपी लिखा देख तुनक पड़ी—"नहीं लेती तुम्हारी किताब –लो वापस लो –अभी लो। मेरा नाम ही बदल दिया !क्यों बदला बोलो –बोलो।" 

"अरी बहन इसे खोल तो। इसमें चाट -पापड़ी ,गोलगप्पे,समोसे भरे हुए हैं।'' 

"यह जादू की किताब है क्या जो खोलते ही पानी से भरे गोलगप्पे प्लेट में सजे धजे हाजिर हो जाएंगे और कहेंगे-हुजूर हमें खाइये।" उसने झुककर ऐसी अदा से कहा की गुल्लू  को हंसी आ गई। 

"हाँ—हाँ –आ जाएंगे पर इन्हें बनाने में कुछ मेहनत तो करनी पड़ेगी।" 

"कौन बनाएगा?"

"मेरी बहना और कौन?" गुटक्कू ने उसे खिजाने की कोशिश की। 

"मुझे तो खाना आता है बनाना नहीं।" मासूम चम्पा बोली। 

"कोई बात नहीं। बड़ी होने पर बना देना। मैं इंतजार कर लूँगा।" 

"मैं बड़ी कब होऊँगी?"

"यह तो मुझे भी नहीं मालूम। चलो माँ से पूछते हैं।" 

तभी गुल्लू  के दोस्तों ने खेलने के लिए आवाज लगा दी। वह तो वो गया वो गया। रह गई चम्पा। माँ को खोजती आँगन में आई। 

''माँ-माँ मैं कब बड़ी होऊँगी?"

माँ ऐसे प्रश्न के लिए तैयार न थी। एक पल बेटी का मुख ताकती रही फिर दुलारती बोली-"मेरे बेटी को बड़ी होने की क्या जरूरत आन पड़ी। तू छोटी ही ठीक है।'' 

"भैया चटपटी चाट की किताब लाया है । समझ नहीं आता उसके लिए कैसे बनाऊँ?वह कह रहा था बड़ी होने पर मुझे सब आ जाएगा।" 

"मैं किसी दिन चाट बना दूँगी। खिला देना अपने चटटू भैया को । अपने मतलब के लिए यह किताब खरीद लाया है।" 

"ऐसे न बोलो । मेरा भैया बहुत अच्छा है। माँ आज ही उसके लिए कुछ बना दो।" चम्पा गिड़गिड़ाते हुए बोली। 

माँ उसका दिल नहीं दुखाना चाहती थी इसलिए चाट पापड़ी बनाने को तैयार हो गई। एक तरह से वह इन भाई-बहन के स्नेह को देख खुश भी थी। आखिर गुल्लू अपनी बचत के पैसों से बहन के लिए उपहार लेकर आया था। इस त्याग का मूल्य किताब से कहीं—कहीं ज्यादा था। 

खेलने के बाद गुल्लू की भूख चौगुनी हो जाया करती थी। हाथ-पैर-मुंह धोकर चटपट रसोई की तरफ जाने लगा । भुने जीरे की खुशबू से उसकी नाक कुछ ज्यादा ही मटकने लगी। उसी समय चम्पा प्लेट लेकर आई-"गूगल चाट- पापड़ी खाएगा? 

"भला चाट कैसे छोड़ सकता हूँ?मगर इतनी जल्दी बन कैसे गई!" 

"माँ ने कहा कि मेरे बड़े होने से पहले भी चाट बन सकती है। मैं माँ को देख कुछ कुछ सीख रही हूँ। माँ ने तो जादू से कुछ मिनटों में ही चाट बना दी।" 

"जुग जुग जीओ मेरी छोटी बहना!अब तू जल्दी जल्दी सीखती जा और मैं जल्दी जल्दी खाता जाऊं। हे भगवान  हर जनम में चंपा को ही मेरी बहन बनाना।"   

'चम्पा को तंग न कर। अभी उसके खाना बनाने के दिन नहीं। खेलने-खाने के दिन हैं।" 

"ओह माँ,मगर मेरे तो खाने के दिन हैं। फिर मैंने उसे खेलने को मना तो नहीं किया। मैं तो बस यह चाहता हूँ कि रोज कुछ चटर-पटर चटपटा मिल जाए। आज आलू की चाट तो कल आलू की टिक्की—आह तो परसों पानी से भरे मटके की तरह फूले गोलगप्पे ।" 

"बस बस बंद कर पेट का राग अलापना। मैं सब जानती हूँ स्कूल से आकर तुझे दूध पीना तो पसंद नहीं इसी कारण यह किताब उठा लाया।" 

"ओह माँ, भैया को डांटो मत। यह किताब तो सबके काम आने वाली  है। हाँ याद आया -- मुझे भी तो गुगलू  को कुछ देना होगा। 

'मुझे तो उपहार मिल गया—दुनिया का सबसे अच्छा --।"गूगल हवा में हाथ हिलाते बोला।  

"किसने दिया?"चम्पा हैरान थी। 

"माँ ने।" 

"मुझे भी तो दिखाओ।" 

"चल दिखाता हूँ।"  

गुगल  ने उसे शीशे के सामने ला खड़ा किया। 

"दिखाई दिया?/" 

"क्या दिखाई दिया--! इसमें तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा । बस मैं ही मैं दीख रही हूँ ।" 

"यही तो हैं मेरा प्यारा सा उपहार जो मुझे माँ ने दिया है।" 

चम्पा खुशी की लहरों में डूब सी गई जिसमें उसे गुगल  का चेहरा ही नजर आ रहा था,वह तो उसके लिए दुनिया का सबसे अच्छा भाई था।

***

लो बच्चों कहानी खतम हुई। कैसी लगी?"माँ बोली । 

"इतनी अच्छी !"गुलबानो ने अपने दोनों हाथ फैलाते हुए कहा। 

"मां मैं भी गूगल की तरह अपनी बहन को इतना इतना प्यार करूंगा।" गुलाल ने  भी पूरी शक्ति लगाकर दोनों हाथ दो दिशाओं की ओर तान दिये।

"अच्छा अब चलूँ ,मेरा भाई भी आने वाला है।"घूघर ने अपने बच्चों से कहा। 

गुलाल अपनी माँ को जाता देख सोच रहा था -'यमुना अपने भाई को प्यार करती थी ,गूगल अपनी बहन को प्यार करता था ,मैं अपनी बहन को प्यार करता हूँ ,माँ भी अपने भाई को बहुत प्यार  करती है! 

यह भाई बहन की दुनिया सच में बड़ी न्यारी है और प्यारी भी है!'   



 

  


मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

बालकहानी

 

    नटखट नोटबुक 

सुधा भार्गव 

      सुररी अपनी किताबों से खूब काम लेता। कभी पन्ने पलटता हुआ पढ़ता ,कभी उन्हें देख प्रश्नों के उत्तर लिखता। काम खतम होने पर उन्हें इधर-उधर पटक देता। एक बार डिक्शनरी झुँझला उठी- यह लड़का एकदम मतलबी है ! काम निकलते ही हमें बेदर्दी से फेंक देता है । कल मुझे इतने झटके से रखा कि पूरी  कमर की कमर दर्द कर रही है।

  “दीदी ,तुम ठीक कह रही हो। यह दुष्ट मुझे तो घुमाते हुए मेज पर इतनी ज़ोर से पटकियाँ खिलाता है कि मेरी खाल जगह - जगह से छिल गई है । देखो न कैसी लग रही हूँ –एकदम बदसूरत। एक दिन ऐसी गायब हो जाऊँगी कि ढूँढे से न मिलूँ। बच्चू को दिन में ही तारे नजर आने लगेंगे। स्कूल में भी खूब डांट पड़ेगी।’’नोटबुक बोली। 

 तू छोटी सी है पर है बड़ी खोटी।   कोई शरारत करने की जरूरत नहीं।” एटलस ने उसे समझाने की कोशिश की। उस समय तो नोटबुक चुप हो गई पर उसे सबक सिखाने की ताक में रहने लगी।  

   रात में सुररी ने गणित के कुछ सवाल किए और निबंध लिखा। आदतन किताबों को लापरवाही से फेंक पैर पसार कर सो गया। नोट बुक को मौका मिल गया। वह धीरे-धीरे सरकती हुई मोटी डिक्शनरी के पीछे छिप गई।  

   सुबह स्कूल जाते समय सुररी हड़बड़ाकर चिल्लाया-माँ—माँ मेरी नोट बुक नहीं मिल रही।”  

   “देख वहीं कहीं होगी। कितनी बार कहा है अपनी किताबें जगह पर रखा कर पर नहीं--- जहां काम किया वहीं छोड़ दिया।’’ 

   “ओह बहू यह बड़बड़ाने का समय नहीं । सुररी की मदद कर दे वरना बस छूट जाएगी। बस तो तेरे बेटे की छूटेगी पर हो जाएगी कवायद मेरे बेटे की। ऑफिस जाने से पहले उसे स्कूल छोड़ने जाना पड़ेगा।’’ दादी हँसते हुए बोली। 

   माँ को सुररी की मदद करने जाना ही पड़ा । उसके जाने के बाद  उसने एक गहरी सांस ली। 

   “इतनी लंबी सांस लेने की क्या जरूरत पड़ गई।’’ बाथरूम से निकलते हुए सुररी के पिता ने पूछा।   

   “न लूँ तो क्या करूँ। अब चैन जाकर मिला है। आपका बेटा तो कोई काम करता नहीं।’’ 

   “पहले उसे सिखाओ तो—तभी तो करना सीखेगा। उसकी अलमारी देखी है-- धूल से पटी! एकदम कबाड़खाना। एक बार इसमें किताब गई फिर तो खोजते ही रह जाओ। बेचारी किताबें भी अपनी किस्मत को रोती होंगी। आज तुम उसके सामने अलमारी साफ करके किताबें ठीक से लगाना। फिर वह अपनी किताबों की देखरेख खुद करने लगेगा।’’ 

   “करने से रहा। महाआलसी है।’’ 

   “न करे तो कोई बात नही! कुछ दिन तक तुम रोज किताबों की अलमारी की साज-सज्जा करो। देखना--- एक दिन उसपर जरूर असर होगा।पर मुझे एक बात का शक है!” 

   “शक! कैसा शक?”

   “यही कि तुम्हें किताब लगानी आती है या नहीं!

   “क्योंउसमें है ही क्या?”

   “मुझे मालूम है तुम कर सकती हो पर मैंने ऐसे ही पूछ लिया। तुमको न ही कभी उसकी अलमारी झाड़ते देखा और न ही लुढ़कती रबर-पेंसिल को उठाते देखा। जहां बेटा किताब छोड़ जाता है वही बेचारी लावारिस की तरह पड़ी रहती है।’’   

   ‘हूँ--किताबें लगाना बड़े झमेले  का काम है।  उन्हें ठीक करने के नाम से मेरा जी मिचलाने लगता है।’’

   “तब तुम्हारा यह काम कौन करता था!

   “मेरी माँ और कौन!” 

   “ओह अब पता लगा बेटे मेँ किसका असर आया है।’’ 

   “किसका असर आया?”माँ तुनक उठी। 

   “तुम्हारा और किसका !

   “आप तो बस मेरे दोष ही ढूंढते रहते हैं।

   “उफ नाराज हो गई। अच्छा बाबा माफ करो। मैं ही उसकी किताबें ठीक से रख देता हूँ। मैंने तो हमेशा से अपनी कॉपी-किताबें सावधानी से रखीं। तभी तो पुरानी होकर भी नई सी चमकती रहती हैं।’’   

   “अरे कहाँ चली महारानी --। थोड़ा इस काम में दिलचस्पी लो। वरना बेटे को कैसे बताओगी?  

    “मुझसे अच्छी तरह तो आप ही सिखा दोगे। मैं अभी आपके लिए गरम-गरम समोसे बना कर लाती हूँ। और हाँ,आज आपको एक ज्यादा मिलेगा।’’सुररी की मम्मी ने मीठी सी  मुस्कान बिखेरते हुए कहा। 

   “यह मेहरबानी क्यों!” 

   “स्वच्छता अभियान छेड़ कर आपने मुझे खुश कर दिया । अब आपको खुश करने की मेरी बारी है।’’

   “समोसे के नाम से तो मेरे मुंह में पानी आ गया। अब तो  मुझे ही किताबों के साथ कवायद करनी पड़ेगी।’’ सुररी के पिता भी हँस दिये। 

   किताबों की खुशी का तो ठिकाना ही न था। आपस में फुसफुसाने लगीं-“आज से तो हमारे अच्छे दिन आ गए। साफ सुथरे घर में पैर पसारेंगे और आनंद से रहेंगे।कितना अच्छा हो यदि सुररी भी अपने पिता की तरह सफाई पसंद बच्चा बन जाय। यदि वह हमारा ध्यान रखेगा तो हम भी उसका ध्यान रखेंगे।” 

   “उसे यह कौन समझाये कि हम उसके दोस्त हैं,दुश्मनों जैसा व्यवहार करना बंद करे। एक किताब ने गहरी सांस छोड़ी।

   “मैं समझा सकती हूँ।नोटबुक फिर मटकती सामने आई। 

   “तू तो उसे बहुत तंग करती है।

   “इस बार तो ऐसा तंग करूंगी कि सुररी को बदल कर रख दूँगी।बस पवन देवता मेरा साथ दे दें। वे इतनी तेजी से उड़ें कि मुझे भी अपने साथ उड़ा ले चलें।”  

   कहने भर की देर थी कि हवा वेग से बह चली। नोटबुक ने जानबूझकर अलमारी से बाहर छलाँग लगा दी। इस चक्कर में उसका एक पन्ना उससे अलग हो गया। हवा के झोंके उसे अपने साथ ले चले। सुररी ने देखा तो उसके गुम होने के डर से घबरा उठा। उसे पकड़ने पीछे-पीछे भागा। उस पन्ने पर बहुत सी खास बातें लिखी हुई थीं। हाँफते-हाँफते चिल्लाया-नोटबुक के पन्ने रुक जाओ –रुक जाओ। तुम्हारे बिना मैं स्कूल का काम कैसे करूंगा।?”

   “मैं नहीं रुकूँगा। तुम मेरा ध्यान नहीं रखते --फिर मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूँ!

   “एक बार रुक जाओ—मैं तुम्हारी हर बात मानूँगा।” 

    “मानोगे?”

    “हाँ –हाँ –मानूँगा।

   “क्या तुम मेरा और मेरे साथियों को अपना मित्र समझकर उसकी देखरेख करोगे?”

   “हाँ—हाँ करूंगा।’’

   हवा तुरंत मुसकुराती धीमी बहने लगी।नोटबुक का पन्ना दीवार से टकराकर रुक गया। सुररी की सांस में सांस आई। उसने बड़े अपनेपन से पन्ने को हाथ में थाम लिया। उस पर लगी मिट्टी को हटाकर तुरंत पन्ने को नोट बुक में गोंद से चिपकाया। नोटबुक अपनी जीत पर बड़ी खुश थी । अलमारी में बैठीं किताबें नटखट नोटबुक का लोहा मान गई। 



समाप्त 

सुधा भार्गव 

बैंगलोर 

 


 

 

 

 

 

बुधवार, 8 सितंबर 2021

बालकहानी -वेब पत्रिका उदन्ती कॉम


2021 सितंबर में प्रकाशित




चोरनी
सुधा भार्गव

 

   सुंदर सी  एक खंजन चिड़िया थी ।बड़ी रंगबिरंगी! काली ,सफेद ,भूरी । उसकी सुंदरता का रहस्य उसकी चंचल आँखें थीं। उसे  नदी- तालाब का किनारा बहुत अच्छा लगता। जब देखो वहाँ बैठी पूंछ हिलाती रहती। उसके चलने का तरीका भी अजीब था। फुदकती नहीं बल्कि दौड़कर चलती।  खेतों में खूब मस्ती से दौड़ लगाती , कीड़े -मकोड़े गपक गपक खाती । उसके डर से कीड़ों में भगदड़ मच जाती पर वह तो उड़ते कीड़ों को भी लपक लेती।  ठंडी हवा में उसकी लहराती उड़ान देखते ही बनती ।इतराती  हुई चिटचिट करती सुरीली आवाज में उसका स्वर गूँजता तो खंजन चिड़ा बड़ा खुश होता और उस पर ढेर सा  प्यार उमड़ पड़ता ।  

    फुर्सत में वह नदी के घाट पर उतर पड़ती जहां धोबिनें कपड़े धोतीं। वह मजे से उनके बीच टहलने लगती और छेड़ देती अपनी मधुर तान । बेचारा चिड़ा उसका इंतजार करता रहता । जब बहुत देर हो जाती तो झुँझलाकर चिल्लाता "अरे धो लिए बहुत कपड़े --अब आजा धोबिन।"  

   चिड़िया तुरंत उड़कर प्यालेनुमा घोसले में पहुँच जाती। जहां चिड़ा उसके इंतजार में आंखें बिछाये रहता।

     खंजन चिड़िया को गर्मी बहुत लगती थी। गरम हवा चलने पर वह बेचैन रहने लगी। 

एक दिन खंजन चिड़ा से बोली - "तू  मुझे बहुत प्यार करता है ?"

"हाँ इसमें पूछने की क्या बात है ?"

"जो मैं कहूँगी मेरे प्यार की खातिर करेगा ?"

"यह तिरवाचा क्यों भरवा रही है ?जो कहना है सीधी तरह बोल दे।" 

"मुझे तो कश्मीर जाना है। सुना है वहाँ फूलों से ढकी घाटियां हैं। खुशबू भरी हवा सब समय बहती है। बीच बीच में पानी के झरने फूट पड़ते हैं। तुझे तो मालूम ही है मुझे पानी का किनारा बहुत अच्छा लगता है। झरने के किनारे बैठकर उसका ठंडा  मीठा पानी पीऊंगी और पानी से भी मीठा गाना गाकर तुझे खुश कर दूँगी।" चिड़ा उसकी बात पर हंस पड़ा । 

    अगले  दिन सुबह ही दोनों कश्मीर की ओर उड़ चले। वहाँ पहुँचते ही खंजन चिड़ा ने सबसे पहले अपनी चिड़िया के लिए हरे भरे पेड़ पर सुंदर सा घोंसला बनाया । वह पेड़ एक झील के  किनारे था। झील की लहरें  जब पेड़ के लंबे मजबूत तने से टकरातीं तो  घोंसले में बैठी खंजन चिड़िया का  पंख फैला कर ठुमकने का मन होता।     

    कुछ दिनों बाद खंजन चिड़िया सलोने से दो बच्चों की माँ बन गई। वे बड़े ही नाजुक थे। उनके पंख भी नहीं निकले थे। दोनों पीले थे। इसलिए एक का नाम निबुआ  और दूसरे का नाम पिलुआ  रख दिया । चिड़िया उनकी देखभाल करती और चिड़ा उनके लिए दाना लेने जाता।चिड़िया अपनी चोंच में दाना लेकर बच्चों की चोंच में डालने की कोशिश करती पर वे तो अपनी चोंच ठीक से खोल ही नहीं पाते थे। इसलिए दाना अंदर न जाकर  बार बार बाहर की ओर लुढ़क पड़ता । लेकिन चिड़िया अपनी कोशिश नहीं छोड़ती  । अपने प्यारे बच्चों को भूखा कैसे देख सकती थी!बच्चों का पेट भर जाता तब कहीं उसकी आँखों में चमक आती। 

   एक दिन खंजन चुग्गे की तलाश में गया । लौटते समय बरसते पानी में भीग गया। घोंसले में आते ही आंकची--आंकछी शुरू हो गई। सुबह देर से उसकी नींद खुली।  बुखार के कारण उसके सिर में  इतना दर्द कि उससे उठा ही नहीं गया। इधर -उधर आँख  घुमाई चिड़िया कहीं नजर न आई । समझ गया वह दाना लेने जा चुकी है।

   खंजन माँ  एक खेत में उतरी कुछ दाने खाकर अपना पेट भरा और कुछ दाने अपनी चोंच में भर लिए। वह उड़ने ही वाली थी कि एक किसान ने दूर से उस पर एक अंगोछा फेंक दिया । वह उसकी लपेट में  आ गई। अंगोछे को  उठाते हुए किसान चिहुँक पड़ा -"पकड़ लिया--पकड़ लिया  चोरनी को । न जाने कब से चोरी चोरी मेरा अनाज खा रही हैऔर ढेर सा चुराकर ले जाती है। आज तुझे नहीं छोडूंगा।" 

  चिड़िया गिड़गिड़ाई -"किसान भाई मेरे बच्चे भूखे होंगे। मुझे दाने ले जाने दे । उन्हें खिलाकर वापस आ जाऊँगी । तब चाहे तुम सजा दे देना । मैं सब भुगतने को तैयार हूँ।" 

   "मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो तुझे छोड़ दूँ। एक बार गई तो क्या लौटकर आने वाली है। चोरनी कहीं की।"उसने आँखें तरेरीं।   

   चिड़िया गुस्से से भर उठी और बोली-"देख किसान गाली तो दे मत।  मैं चोरनी किस बात की!तेरे खेत के कीड़े खा- खा कर फसल को बचाती हूँ । वरना वो कीड़े तेरी फसल को सफाचट कर के रख दें । एक तरह से तेरे खेत के लिए तो काम ही करती हूँ। उस मेहनत के बदले तू मुझे क्या देता है?इस फसल पर मेरा भी तो हक है। चोर तो तू है जो मेरा हक मारे बैठा है। मैंने चार दाने क्या खा लिए मुझे चोरनी कहता है। तू तो न जाने मेरे हिस्से का  कितना  अनाज  हजम कर चुका है । अब बता चोर तू है या मैं।" 

  "ज्यादा बढ़ बढ़कर मत बोल । मैंने कहा था क्या --मेरे खेत के कीड़े -मकोड़े साफ कर दे। कल से आने की जरूरत नहीं।" 

   चिड़िया की चीं-चीं और किसान की टै-टै सुन चिड़ियों के झुंड आकाश से उतर  पड़े और उन्हें घेर लिया। एक बूढ़ी समझदार चिड़िया आगे आकर बोली - "खंजन बिटिया चिंता न कर। हम सब तेरे साथ हैं। कल से कोई चिड़िया किसी खेत की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखेगी।और किसान तू भी सुन ले। जब तक तू और तेरे साथी हमें नहीं बुलाएंगे  हममें से कोई इधर झाँकेगा भी नहीं। "

     कुछ दिन किसान बड़े खुश रहे चलो चोरनियों से छुटकारा मिला। लेकिन ज्यादा दिनों तक यह खुशी न रही।  कुछ महीने में ही खेतों में छोटे -छोटे कीड़े रेंगने लगे।पत्तों में सफेद सफेद फुनगी सी जम गई। पत्ते काले से हो गए। वे बीमार नजर आने लगे। यह देख किसान घबरा गए। अब उन्होंने समझा कि चिड़ियाँ कीड़े -मकोड़े खाकर उनका कितना उपकार करती थी। 

    एक सुबह किसान के बच्चों का कोलाहल सुनाईं  दिया।  वे मुट्ठी भर  दाना बिखेरते हुए चिल्ला रहे थे --

आओ री चिड़िया  

चुग्गो री खेत 

खाओ री दाना 

भर -भर पेट 

जल्दी ही आकाश पंखों की सरसराहट से भर उठा ।भोले-भाले  बच्चों के बुलाने  पर चिड़ियाँ  अपने को रोक न सकीं। मन की सारी कड़वाहट घुल गई।  झुंड के झुंड चिड़ियों के धरती पर उतर पड़े। इस बार उन्हें कोई चोरनी कहने वाला न था। सारे किसान और बच्चे उनको चुगता देख बहुत आनंदित हो रहे थे। 

समाप्त 

2020