अनहद कृति अंतर्जाल पत्रिका अंक 11 में प्रकाशित
http://www.anhadkriti.com/sudha-bhargava-story-dev-daanav
देव दानव /सुधा भार्गव
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देव दानव /सुधा भार्गव
यह
कहानी उन बच्चों की कहानी है जो घर से भाग जाते हैं या चुरा लिए जाते हैं। कुछ
अभागों को उनके माँ- बाप ही बेच देते हैं और फिर खुल जाता है एक नया अध्याय उनके
नारकीय जीवन का। - लेखिका
एक प्यारा-सा बच्चा था। उसका नाम डमरू था । वह अपने साथियों के साथ शाम को पार्क में घूमने–खेलने जाया करता। माँ का कहना था अंधरे से पहले ही घर आ जाना जिस दिन ज़रा-सीभी देरी हो जाती उसे मुर्गा बनना पड़ता। छोटी बहन किननी हँसकर बोलती –मुर्गे भाई ,बोलो कुकड़ू कूं। डमरू सब कूछ भूल-भालकर बहन को मारने दौड़ता। फिर शुरू होता चूहा भाग–बिल्ली आई का खेल। डाइनिंग टेबिल के चारों ओर आगे–आगे किननी पीछे-पीछे डमरू उसका पीछा करता हुआ दौड़ लगाता। पकड़कर ही वह दम लेता और कोमल-सी पीठ पर ज़ोर से दो धौल लगा देता। पाँच वर्ष की किननी रो-रोकर घर सिर पर उठा लेती। माँ के आते ही वह उसे पुचकारने लगता। मोटे–मोटे आंसुओं को गिरते देख उसे पछतावा भी होने लगता –उसने बहन को क्यों मारा।" इस शैतानी पर उसे डांट भी ख़ूब पड़ती पर उसे बुरा न लगता , बुरा तो तब लगता जब माँ उसे ज़्यादा बाहर न खेलने देती। वह तो चाहता था आज़ाद पंछी की तरह आकाश में उड़े। एक शाम घूमते -घूमते वह अपने साथियो से दूर चला गया। उसे पता ही न चला कि साथी कब लौट गए?
एकांत देख एक आदमी उसके पास आया और बोला –बेटा तुम भूखे लगते हो। घर जाकर तुम्हें दूध पीना अच्छा नहीं लगता इसलिए बड़ी-सी चाकलेट खाकर जाओ।
चॉकलेट का तो वह शौकीन, मुंह में पानी भर आया।
-अंकल क्या आपके पास बहुत-सी चाकलेटें हैं।"
-चाकलेट बनाने का मेरा कारख़ाना है।"
-तब तो एक दिन मैं उसे देखने चलूँगा।"
-आज ही क्यों नहीं चलते!"
-माँ कनपकड़ी करेगी।"
-तुम चलो तो ,तुम्हारी माँ को मैं समझा दूंगा। वे गुस्सा नहीं होंगी।"
डमरू चाकलेट पाने की इच्छा से उस अजनबी के साथ हो लिया। कुछ दूर ही जा पाया था कि उसका माथा चकराने लगा और बेहोश होकर गिर पड़ा। घंटों इस अवस्था में रहा। जब उसे होश आया तो अपने को एक तंग कोठरी में लेटे पाया। ज़मीन पर गंदी-सी फटीपुरानी दरी बिछी थी। उसके पास ही तीन चार लड़के और सोये थे। तन को ढकने के नाम पर उनके शरीर पर कमीज़ मात्र थी। चार छेदों वाली वे नेकर पहने हुए थे।
प्यास से डमरू का कंठ सूखा जा रहा था। बड़ी कठिनाई से बोला –अंकल –अंकल मैं कहाँ हूँ ?" तभी एक अजनबी कोठरी में घुसा, कड़कते हुए बोला –खा-खाकर चमड़ी मोटी हो गई है । सुबह के 6बजने को आए पर किसी कमबख्त ने उठने का नाम नहीं लिया। उठते हो या लगाऊँ दो थप्पड़।" धड़-धड़ करके लड़के खड़े हो गए। डमरू का सिर भारी था। उससे उठा ही नहीं गया ।
-ओ छोरे तुझे क्या हुआ ?" अजनबी घुर्राया
-मुझे पानी चाहिए।"
-पानी! यहाँ क्या तेरी माँ बैठी है जो पानी लाएगी। उठ और बाहर जाकर पानी पी आ। खेत पर चलना है।"
अजनबी का असभ्य व्यवहार देखकर डमरू सकते में आ गया। कल और आज वाले अंकल में ज़मीन–आसमान का अंतर।उसका वश चलता तो वह उसे कच्चा चबा जाता।
फरवरी की ठंड। नक्कू, कक्कू, छक्कू बुरी तरह काँप रहे थे। सब के सब गाय–भैंस की तरह खेतों की ओर लताड़ दिए गए। नंगे पैर भागते–भागते कम से कम दो किलोमीटर का फासला तय किया। यदि किसी बच्चे की चाल धीमी हो जाती या सुस्ताने पत्थर पर बैठ जाता तो सड़ाक से छड़ी उसके पैरों पर पड़ती। मार से बचने के लिए वह तेज़ी से भागने लगता।
खेतों पर पहुँचते ही अजनबी ने आदेश दिया–खेत को साफ़ करके रखना। मैं अभी नहा–धोकर, खा पीकर आता हूँ।"
उसके जाते ही डमरू बोला –मेरी माँ सुबह उठते ही दूध पिलाती थी। अंकल तो खाने चले गए, हम क्या भूखे ही रहेंगे?
-बच्चू अभी नया–नया आया है। कुछ दिनों में जीभ के साथ–साथ पेट भी चुप हो जाएगा। तू तो पढ़ा लिखा लगता है। यहाँ कैसे आ गया?" कक्कू ने पूछा।
-मुझे चॉकलेट का लालच आ गया। अंकल ने बहुत-सी चाकलेट देने का वायदा किया था और माँ ज़्यादा खाने नहीं देती थी सो फंस गया। इनकी दी चाकलेट खाकर न जाने क्या हुआ। जब नींद खुली तो यहाँ पाया। अब मैं क्या करूं। पिता जी को कैसे बताऊँ? अच्छा तू कुछ अपने बारे में बता।"
-मैं जब तीन साल का था तभी एक दुष्ट दाढ़ी वाले बाबा ने मुझे घर के आँगन से चुरा लिया। आठ साल का होने पर उसने मुझे बाजार में बेच दिया। मुझे तो अपने माँ –बाप के बारे में कुछ पता ही नहीं। चुराने वाला भी मुझे भूखा रखता था और तेरा राक्षस अंकल भी भूखा रखता है। दस दिन पहले ही तो इसने मुझे 100 रुपए में खरीदा है। इससे मिल, यह है नक्कू।"
-मेरे बाप ने तो मुझे 50 रुपए में ही बेच दिया। उसे शराब पीने को पैसा चाहिए था। बाप होते हुए भी न के बराबर है। माँ तो उसे पहले ही छोड़ कर भाग गई। बस उसे मारता रहता था। कौन रहता उस के पास।"
-अरे बात ही करते रहोगे या काम भी करोगे। जल्दी से सूखे पत्ते और कंकड़ बीन लो वरना शैतान ने देख लिया तो हमारी एक रोटी भी बंद हो जाएगी।" छक्कू बोला।
बच्चे भयभीत हो उठे। डमरू नन्हें हाथों से पौधों में पानी देने लगा।
नक्कू ने कंकड़ पत्थर से भरा टोकरा अपने सिर पर रखा और लड़खड़ाते हुए सड़क के किनारे फेंकने लगा। तभी उसके पैर में काँटा चुभ गया। छककू ने उसे जल्दी से खींच लिया। खून की धार बह निकली।
-रे रे कितना खून बह रहा है? यदि मैं इसे चूस लू तो मेरा खून बढ़ जाएगा। देख न मैं कितना पतला हो गया हूँ।" डमरू की इस बात पर मुरझाए चेहरों पर भी हंसी रेंग गई।
धीमी और कमजोर आवाज़ में नक्कू बोला –डमरू, मालिक किसी भी समय पहुँच सकता है और काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है।"
-क्या काम है मुझे बता।"
-ज़मीन खोदनी है।"
डमरू की नाजुक उँगलियों ने खुरपी थाम ली। ज़मीन खोदते हुए हथेलियाँ लाल हो गई। खून सा झलक आया। जलन मिटाने के लिए ठंडे पानी की धार के नीचे हथेली रख दी। उसी हथेली से चुल्लू भर पानी पीकर पेट की ज्वाला मिटाई।
करीब दो घंटे बीत गए, पल–पल बच्चों को लग रहा था –आया राक्षस आया।" मन ही मन डर की गुफ़ा में भटक रहे थे। तभी दिल दहलाने वाली एक कर्कश आवाज़ सुनाई दी –
-क्या सांठ--गांठ चल रही है। अगर किसी ने भागने की कोशिश की तो गाजर-मूली की तरह काट दिए जाओगे। फिर बोरे में भरकर नदी मेँ बहा दूंगा। बोटी-बोटी मगरमच्छ खा जाएंगे।"
उस ज़ालिम ने बच्चों के दिल मेँ दहशत की ऐसी दीवार चुनवा देनी चाही कि वे कठपुतली बने उसके इशारों पर नाचते रहें।
मालिक ने खेत का पूरा मुआयना किया। सूखे पत्ते कोने मेँ घुसे गुए थे। उन पर आँख पड़ते ही वह भुनभुना उठा–ओबे नक्कू के बच्चे, तेरी आँख फूट गई है क्या? ये पत्ते दिखाई नहीं दिये। चल उठा इन्हें।" नक्कू लंगड़ाता हुआ आया। इससे देरी हो गई। मालिक को भला यह कैसे सहन होता। लगाई उसमें दो–तीन लातें। बेचारा उछलकर दूर जा पड़ा। बड़ी मुश्किल से तलुए से बहता रक्त बंद हुआ था पर बेचारे के उसी जख्म मेँ फिर से नुकीला पत्थर चुभ गया। दर्द की छटपटाहट से वह वहीं अपना पैर पकड़ कर बैठ गया।
-तेरी नाटकबाज़ी तो अभी बंद करता हूँ। इतना कहकर उसने नक्कू के बाल पकड़कर ऊपर उठाया और झटके से छोड़ दिया। इससे नक्कू का शरीर जगह–जगह से छिल गया पर सताने वाले पर इसका कोई असर न था।
उसने पोटली खोलकर 2-2 रोटियाँ हर एक के सामने डाल दीं जिनपर नमक छिड़का हुआ था। ख़ुद स्टूल पर बैठ बीड़ी सुलगाने लगा। यहाँ तो बीड़ी सुलग रही थी पर डमरू का अंग–अंग उसके दुर्व्यवहार से झुलस रहा था। उसका वश चलता तो वह अत्याचारी का गला घोंट देता पर अकेला चना क्या भाँड़ झोंकता! हाँ, वह मौके की तलाश में रहने लगा इस नारकीय जीवन से छुटकारा पाने को और अपने साथियों को मुक्ति दिलाने के लिए।
डमरू सहसा कुछ ज़्यादा ही चुप रहने लगा। चार बार उससे कोई बात ज़ोर से पूछी जाती तब वह मुश्किल से जबाब देता। दूसरों ने सोचा उसे बोलने में कठिनाई होती है। एक बार नाराज़गी में मालिक ने उसकी कनपटी पर थप्पड़ मारा तो उसका माथा भनभना गया। तब से उसने बोलना बिलकुल ही बंद कर दिया। अब तो वह बहरा-गूंगा समझा जाने लगा। उसने अभिनय भी कमाल का किया और धीरे–धीरे उसे मालूम हुआ कि उसका मालिक ऐसे गिरोह से संबंध रखता है जिसका काम ही बच्चों का अपहरण व चुराकर उनका क्रय–विक्रय करना था।
एक दिन दोपहर मेँ वह दरवाज़ा खोल दबे पाँव भाग निकला और खोजते–खोजते पुलिस चौकी जा पहुंचा। वहाँ उसने गिरोह के मालिक के ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज कर दी। पहले तो थानेदार को बच्चे की बात का विश्वास नहीं हुआ पर अपना कर्त्तव्य समझ वह अपने सहकर्मियों सहित उसके पीछे चल दिया। अपराधियों का पता लगते ही उन्हें सींखचों के हवाले कर दिया और मासूम बच्चों को उनके चंगुल से छुड़ाया।
पुलिस ने बच्चों के माता–पिता का पता लगाने का प्रयत्न किया। वह केवल डमरू के माता–पिता को पा सकी। वह उनसे लिपटकर ख़ूब रोया। उसे देखकर नक्कू और छककू और कक्कू की आँखों मेँ बादल घिर आए।
-तुम रोओ नहीं, मैं तुमसे बीच-बीच मेँ मिलने आऊँगा।"
-आओगे कहाँ? न जाने मैं कहाँ जाऊँ? माँ का भी पता नहीं। पिता का पता मुझे मालूम है पर मैं उसके पास नहीं जाऊंगा। क्या पता वह फिर मुझे बेच दे।" कक्कू बोला ।
इन बेसहारा बच्चों की बात सुनकर डमरू के पिता का दिल व्यथा से हिल उठा और बोले –तुम कहीं मत जाओ मेरे साथ चलो। हम सब साथ–साथ रहेंगे।"
तीनों बच्चे डमरू के पिता के पैरों पर गिर पड़े और बोले आप जो कहेंगे, हम करेंगे, बस हमें घर से न निकालना अंकल वरना कहाँ रहेंगे?
-ठीक है ,पर मेरी एक शर्त है।"
-क्या ?बच्चे बेचैनी से बोले।"
-जो मैं माँगूँगा वह देना पड़ेगा, लेकिन चिंता न करो। जो तुम्हारे पास होगा, उसी में से लूँगा। बोलो दोगे।"
-हाँ अंकल देंगे, पर आपको चाहिए क्या?"
-बता देंगे–बता देंगे! मांगने का अभी समय नहीं आया है।" डमरू के पिता ने कहा ।
उन तीनों बच्चों के पालन-पोषण में भी बड़ी मेहनत की और वे उनके बड़े होने का इंतज़ार करने लगे। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। पढ़-लिखकर वे अपने पैरों पर खड़े हो गए।
मौका पाकर वे एक दिन बोले–मेरी शर्त पूरी करने का समय आ गया है बच्चों।
कक्कू ने आदर का भाव दिखते हुए कहा–आपने हमें नई ज़िंदगी दी है। हम पर आपका पूरा अधिकार है।
-बेटे,जिस तरह से मैंने तुम्हें सहारा दिया उसी तरह अपनी ज़िंदगी में यदि तुम किसी अनाथ या असहाय बच्चे के काम आ सको तो बहुत फलो –फूलोगे।
-अच्छे अंकल, हम आपकी राह ही अपनाएँगे।
अंकल की आंखों से अगाध स्नेह और हर्ष की फुलझड़ियाँ छूटने लगी। उनके बोए बीज से मीठे-मीठे फल झर रहे थे ।