प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

बालकिरण पत्रिका में प्रकाशित

बालकहानी 

गंगा सुंदरी  

सुधा भार्गव


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       एक ऊँची चट्टान पर बड़ा सा महल था ।न जाने  कहाँ से आकर एक राक्षस उसमें रहने  लगा ।बड़ा मोटा -ताजा था । सारे  शरीर पर लम्बे लम्बे कांटे ,जीभ पर भी  काँटे।  दस सींगों  वाले राक्षस की नाक बांस सी लम्बी --हाथी  की सूँड सी ।एक -एक बार में ४-४ जानवरों का शिकार करता। सब उसके पेट में समा जाते । जानवरों  का मांस खाते -खाते  जब  वह उकता  गया तो उसने सोचा -क्यों न गाँव चला जाय ! हो सकता है वहां कुछ ज्यादा स्वादिष्ट खाने  को मिल जाय । 

      अगले दिन वह गाँव चला ।  जिस जिसने उसका भयानक चेहरा  देखा , बेहोश हो गया । उनमें से  एक आदमी को वह सर पर रख  चलते बना ।  राक्षस  को  उसका  माँस  बहुत  जायकेदार  लगा । अब तो उसकी जीभ खूब लपलपाने लगी । हिम्मत भी कुछ ज्यादा ही आ गई । गाँव से शहर की तरफ साँप की तरह फुंफकारता हुआ बढ़ने लगा । चारों  तरफ खलबली  मच गई-राक्षस आया --राक्षस आया।  ।लोगों ने घर से निकलना बंद कर दिया इस डर से कि न जाने वह कब किसको निगल ले।          

      शहर में कुछ लोग पढ़े -लिखे थे । वे बुद्धिमान  समझे  जाते थे । कोई भी मुसीबत के समय लोग उन्हीं के पास  जाते । इस बार भी ऐसा ही हुआ । एक ने  बताया कि  राक्षस की आँखों  से ऎसी   रोशनी निकलती हैं जिससे आदमी का दम घुटने लगता है।  सांसें रुक जाती हैं। इसकी कोई दवा खोजनी होगी ।जब तक इसकी खोज  नहीं  होती  तब  तक लोग घर से न निकलें ।शहर में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। सारे काम रुक गए।  लोगों को जिन्दा रहने के लिए घर में रहना पड़ा ।

       चकोर कक्षा में पढता था ।शुरू -शुरू में चकोर को घर में रहना बड़ा अच्छा  लगा ।सोचता - हा --हा  -खाओ- पीयो -मौज उड़ाओ-अच्छे दिन आ गए रे भैया ।पर जल्दी ही उक्ता  गया ।बात करे तो किससे  करे ।मम्मी-पापा  तो अपने -अपने कामों में लगे रहते ।कहानी की किताबें दो- दो बार पढ़ डालीं। टी. वी.के चैनल बदलते -बदलते सर दर्द होने लगा ।मन बहलाने को बालकनी में खड़ा हो जाता । उसे वे दिन याद आते जब वह नदी किनारे टहलने जाया करता था और मछलियों को देखते ही उनके सामने धीरे से  आटे  की गोल- गोल गोलियाँ  डाल देता  कि  कहीं डरकर भाग न जाएँ ।उसे रंगबिरंगी मछलियां बहुत  अच्छी लगती थीं । 

      एक दिन उसकी नींद जल्दी खुल गई ।मम्मी - पापा सोये हुये थे ।  बिना शब्द लिए उसने बालकनी खोली ।सामने  ही नदी की मचलती -उछलती  लहरों को दौड़ लगाते देख उसका मन भी चंचल हो  उठा।'काश! बालकनी से कूदकर एक ही छलांग  में लहरों पर अपने पैर  टिका दूँ ।अरे यह क्या !लहरों पर तो एक लड़की भी बैठी झूल रही है । अब तो उसके पास बतियाने  जरूर ही जाऊँगा ।'जैसे ही यह बात उसके दिमाग में आई उसे लगा वह उस लड़की की ओर  खिंचा  चला जा रहा है ।कुछ ही पलों में उसके पैर रेत  पर टिक गए।

"ए लड़की ,तुम कौन हो ?मैंने तो पहले तुम्हें  कभी देखा नहीं । पर हो बहुत सुन्दर ।उसने अपनी बड़ी बड़ी आँखें झपझपाते लहरों पर झूलने वाली लड़की से पूछा। 

 "तुम यह सब पूछने वाले कौन होते हो?पहले अपना नाम बताओ। ''लड़की बिगड़ पड़ी। 

"मेरा नाम चकोर हैं।'' 

      “ओह चकोर !नाम तो बड़ा अच्छा है। मेरा नाम गंगा है ।मैं यहाँ बहुत दिनों बाद  आई हूँ । कुछ दिनों पहले यहाँ गंदगी ही गंदगी रहती थी ।मुझे तो साँस लेने में भी तकलीफ होती थी।

       “तब  तो जल्दी निकलो --तुम्हारा दम  घुट जाएगा !

     “अरे नहीं---पहले की बात और थी। अब की बात और है। उस समय तो  मेरे पानी में  जीवनदायिनी ऑक्सीजन  की कमी हो गई थी । आजकल तो मेरे सुनहरे दिन चल रहे हैं।   आह! मेरे चारों तरफ का पानी कितना चमक रहा है ।देखो चकोर ,लहरें चांदी की लग रही हैं ।

    “ गंगा तुम्हारा घर भी है क्या !” 

    “बुद्धू ,घर तो सबका होता  है ।  मेरा  भी घर है ।  वो देखो हिमालय --उसी की गोद  में  पली  हूँ । उसकी बर्फीली चोटियां कैसी चमचम कर रही हैं । मैं तो हिमालय को देखने को तरस  गई थी ।लगता है कार ,बस के न चलने से धूल,धक्कड़ और धुआँ  भी भाग गया है।  हवा एकदम  साफ  हो  गई है--तभी तो हिमालय  दिखाई दे रहा  है 

   “ अरे तुम भी तो गोरी -गोरी लग रही हो। ।

     “हा --हा--तुमने आकर तो  मेरी खुशी और बढ़ा दी चकोर ।  बहुत दिनों  के बाद मुझे  किसी ने गोरी गंगा कहकर  पुकारा  है ।वरना हर कोई यही कहता था मैली गंगा मैला  पानी, ना पीओ इसका काला पानी । अपनी दुर्दशा पर रात-दिन आंसू बहाती  थी ।जबकि मेरा  कोई कसूर  नहीं ।” 

     “तब किसका कसूर है गंगा!

    “इस दुनिया में लालची और मतलबी  लोगों की कमी नहीं हैं चकोर ।उन्होंने  मेरे पानी से खूब फायदा उठाया ,खूब पैसा कमाया।  उसके बदले मुझे क्या मिला ---उनके शरीर की  गंदगी,उनके घर की गंदगी।  ! iइसने मुझे काली कलूटी बना दिया  ”  गंगा रुआंसी सी हो गई। 

     गंगा को दुखी देखकर चकोर भी सुस्त  हो गया ।बोला -गंगा तुम्हारी उदासी अच्छी नहीं लगती  ।तुम मुझे उनके नाम तो बताओ जिन्हों ने तुम्हें कूड़ेदान  बनाया । मैं अभी तुम्हारे पास उनका  कान पकड़कर ले आता हूँ। फिर तुम उन सबको मुर्गा बना देना।’’

     गंगा हँस पड़ी -चकोर तुम तो बहुत प्यारी   बातें करते हो ।अभी तो वे वैसे ही मुर्गा बने घर में  कुकड़ूँ कुकड़ूँ कर रहे हैं लॉक डाउन में हैं न !

      “हाँ--हाँ वो राक्षस  जो आ गया है।लेकिन तुम इतनी खुश क्यों हो । मैं तो बड़ा परेशान हूँ।

      “  जिन्होंने मुझे कष्ट दिया वे क्या सुखी रह सकते हैं!  तुम्हीं बताओ अगर कोई अपने घर का सारा कचरा तुम्हारे घर में फ़ेंक दे तो तुम्हें कैसा लगेगा? सबसे बड़े दुश्मन तो मेरे कल-कारखाने हैं। उनके मालिक लाखों कमाते हैं पर यह नहीं कि  फैक्टरी का कचरा फेंकने के लिए कहीं और जगह ढूँढे--उसमें  उनका पैसा जो लगेगा ।बस अंधों की तरह शीशा-लोहे- लकड़ी के टुकड़े,तेल,न जाने क्या -क्या मुझमें डलवा देंगे। i इनके बंद  होने से ही तो  मैं इतनी चमक रही हूँ एकदम शीशे की तरह ।अच्छा है बंद ही रहें

    चकोर कुछ समझ नहीं पा रहा था ।उसे लॉकडाउन अच्छा नहीं लग रहा था पर गंगा उसे चाहती थी। वह बेचैन हो गया।गला सूखता सा लगा। उसे तर करने के लिए बोला -

गंगा मुझे  तो प्यास  लगी है ।” 

     “मेरा पानी पी लो बिना किसी हिचक के । अब तो यह एक दम शुद्ध है । ।एक समय था जब मेरा पानी अमृत समझा जाता  था।क्या तुम्हारी माँ पूजा करती  हैं ?”

     “हाँ ---हाँ पिछले महीने तो माँ ने सत्यनारायण की कथा कही थी ।

     “क्या चरणामृत भी बनाया  था ?”

     “वही चरणामृत जिसमें दही शहद ,विसलरी  वाटर  --न जाने क्या क्या डाला जाता है ।

    “हाँ ,पर पहले विस्लरी वाटर नहीं मुझ गंगा का पानी डाला जाता था। मैं थी ही इतनी पवित्र !

     “तुम तो मुझे बहुत नई नई बातें बताती हो ।क्या तुम यहाँ बहुत दिनों से बहती हो?”

     “बहुत दिनों से नहीं वर्ष--वर्ष--बहुत वर्षों  से। मैंने अच्छे दिन भी देखे  हैं और बुरे भी।

      “मुझे तो अच्छे दिनों की अच्छी बातें बताओ । तुम्हें भी बताने में खुशी मिलेगी और  मुझे सुनने में ।” 

     “मेरी बातें तो तभी समझोगे जब अपने देश का कुछ इतिहास जानते हो !

     “अरे मैं तो बहुत जानता हूँ।पहले हमारे देश पर मुसलमानों का राज्य था ।फिर अंग्रेजों के गुलाम  हो गए पर हमने उन्हें भगा दिया ।अब तो  देश हमारा है । हम इस देश के वासी है --हिन्दुस्तान हमारा है ।

    “अरे---रे --रे  तुम तो बहुत कुछ जानते हो ।लगते तो तुम बड़े छुटके से बड़े भोले से ।” 

अच्छा तो बताती हूँ ।एक मुसलमान राजा  था ।उसका नाम था अकबर ।वह मेरा पानी ही पीता था।  कहता था-गंगे का पानी मीठा ,शीतल और साफ है । मैं तो अपनी तारीफ  सुन इठलाने लगती । और अंग्रेजों की बात बताऊँ ?”

      “हाँ--हाँ --बताओ --न ।

     “अंग्रेज घोड़े पर सवार होकर  आते और मेरा पानी अपनी बोतलों में  भर कर  ले जाते ।

     “इस पानी से क्या वे नहाते थे?

      “नहाते नहीं --पीते थे।

    “घर में उनके पीने को पानी नहीं था क्या?

     “था क्यों नहीं!पर नल का पानी दो दिन तक ठीक रहता हैं। उससे ज्यादा दिन का बासी पानी पीना ठीक नहीं।उसमें बीमारी के कीटाणु पैदा हो सकते हैं। अंग्रेज जब अपने देश जाते थे तो वहां पहुँचने में कई दिन लग जाते थे ।ऐसे में मेरा पानी बहुत उपयोगी रहता। गंगाजल बहुत दिनों तक शुद्ध रहता है इसलिए उसे पीते रहते।  अंग्रेज  लाख बुरे  थे पर मेरा  तो कभी बुरा न चाहा।भूल से एक तिनका नहीं  डालते थे ।मेरा बहुत ध्यान रखते  थे ।

     “मेरी दादी कह  रही थी -कि एक बार  हैजा हुआ था ।तुम्हारा पानी पीने से बहुत से लोग ठीक हो गए ।क्या तुम्हारे पानी में कोई जादू है ?”

     “जादू ही समझो ।मैं जब हिमालय की गोद  से  नीचे उतरती हूँ तो अपने  साथ कई तरह  की मिट्टी ,जड़ी -बूटियाँ लाती हूँ ।ये सब पानी में मिलकर मेरी तलहटी  में बैठ जाती हैं । दूसरे मैं  ऑक्सीजन  भी बहुत लेती  हूँ ।इन सब कारणों से मैं सारी गंदगी पचा जाती हूँ ।आजकल तो मेरा पानी एकदम शुद्ध और मीठा है।

     “अरे  इतनी सारी मछलियाँ तुम्हारे पानी में !लाल,नीली।,पीली ,--वह तो एकदम सोने जैसी है ।सोन मछली तुम कहाँ थीं?मैंने  तो  इससे पहले यहाँ तुम्हें देखा  भी नहीं !चकित हो चकोर ने पूछा ।

       “उँह मैं क्या करती यहाँ आकर  --पानी इतना जहरीला हो  गया था कि उसे पीने  से उल्टी  आती थी। 

आज तो मैं गंगा से मिलने  आई हूँ ।लो उड़ते -उड़ते हंस भी आ गए। आह गंगा इनके आने से तुम्हारी शोभा दुगुनी हो गई है । किनारे बैठे कमल से उजले हंस  कितने खूबसूरत लग रहे हैं !

        “सच में सोनू मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि दुबारा मेरे पुराने दिन लौटेंगे । हैं!राक्षस  के जाते  ही न जाने मेरा क्या हाल होगा! फिर से खुदगर्ज इंसान की मर्जी  का गुलाम बनना पड़ेगा ।मेरे सीने पर बैठी गंदगी मेरा उपहास करेगी ।मैं  उसका  कुछ नहीं बिगाड़  पाऊँगी ।गंगा खिन्न हो उठी। 

गंगा  ऐसा   न कहो। मैं  अपने दोस्तों की एक  टीम बनाऊंगा । घर घर यह टीम जाएगी और कहेगी -- 

 

गंगा हमारी शान है

गंगा  हमारा मान है  

इसे मैला करने वाला 

हर हाल  में दोषी है 

उसे सजा दिलाएंगे 

अपनी प्यारी गंगा को 

पूरा न्याय दिलाएंगे ।

       गंगा  के   चेहरे पर  मीठी सी हँसी आ गई ।बोली-चकोर तुम जितने अच्छे हो उतनी ही तुम्हारी बातें अच्छी हैं। जो बात आज तक किसी ने न कही वह तुमने कह दी।  तुम बच्चों से मैंने बहुत उम्मीद लगा रखी  है।

      “गंगा चिंता न करो। मैं किसी को नदी में कूड़ा नहीं फेंकने दूँगा । तुम इसी तरह सुन्दर चमचमाती  रहोगी।  मैं रोज तुमसे मिलने आऊँगा।  मछलियों  को  आटे  की  गोली  लाऊंगा । तुम  नई- नई  बातें  बताना ।  अच्छा  मैं चलूँ ।” 

       अचानक  उसे  लगा वह बालकनी  की ओर  खिंचा  चला जा  रहा  है ।  घर पहुंचकर भी उसे बार बार गंगा से किया वायदा याद आने लगा। उसने ठान  लिया है कि  राक्षस के जाते ही वह वायदा पूरा करने में लग जाएगा।

समाप्त 

रचना समय -2021 

 


       

सोमवार, 26 जुलाई 2021

देवपुत्र मई मास 2021 में प्रकाशित


मिठास 

सुधा भार्गव

  एक जंगल में हरे-भर ,ऊंचे -ऊंचे पेड़ थे। एक बार टिपटिपिया हारा थका- पेड़ के नीचे आन बैठा। उसे भूख भी लगी थी। उसने पेड़ से एक फल तोड़ा,चखा और फेंक दिया।बुरा सा मुंह बनाकर दूसरे पेड़ का फल चखा। नाक-भौं सकोड़ता हुआ उसने उसे और भी दूर फेंक दिया। उसकी फेंका फेंकी पर पेड़ों को बड़ा आश्चर्य हुआ।

बाबा समान एक बड़े बूढ़े पेड़ ने पूछा-“भाई तुम हमारे फल खाते भी हो और दूर फेंककर उनका अपमान भी कर देते हो। भला हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है!”

मेरे मुंह का सारा स्वाद बिगाड़ दिया और पूछते हो क्या बिगाड़ा है।तुम लंबे-चौड़े पेड़ों से क्या फायदा,जब तुम्हारे फल किसी की भूख ही न मिटा सकें। सारे के सारे फल कड़वे हैं कड़वे!”

कड़वे!” एक चीख निकली और पूरे जंगल में गूंज गई। पेड़ों ने अपने लिए इतना भद्दा शब्द आज तक न सुना था।

हमारा तो जीवन ही व्यर्थ हो गया,जब किसी की भलाई ही न कर पाए।” एक पेड़ दुखी होकर बोला।

मीठा कैसे बनें!’ इसी उधेड़बुन में कई महीने गुजर गए। न पेड़ जी खोलकर हंस पाए न ठीक से सो सके।हमेशा उनकी आँखें रास्ते पर बिछी रहती –‘काश कोई हमें ऐसा मिल जाए जो मीठा बनने का गुर सिखा दे।’

भरी दोपहरी में एक दिन उड़ते-उड़ते काली कोयल उस जंगल में पेड़ की टहनी पर आ बैठी और कुहू---कुहू करके मिश्री सा गाना कानों में उड़ेलने लगी। सारे पेड़ खुशी से झूमने लगे। गरमी की तपत भूलकर बहुत दिनों बाद मुस्कराए।

अचानक थू—थू की आवाज सुनकर वे मुसकराना भूल गए।उन्होंने सुना, “हाय रे!मेरा मुंह तो कड़वा हो गया। लगता है कड़वाहट यहाँ की हवा में घुली है। उफ,गाया भी नहीं जा रहा। थोड़ी देर और यहाँ रुकी तो मेरा गला ही बैठ जाएगा। उड़ूँ यहाँ से--- तो ही अच्छा है।”

उसने नीले आकाश में उड़ने को पंख फड़फड़ाए ही थे कि सारे पेड़ हाथ जोड़कर खड़े हो गए,टपटप आँसू बहाने लगे। बोले-“कोयल बहन ,हमें छोडकर मत जाओ। हम तुमसे मीठा होना सीखेंगे।”

तुम सब बहुत कड़वे हो। तुम्हारे साथ रहकर मैं भी कड़वी हो जाऊँगी। भूल जाऊँगी मधुर बोल।”

यह भी तो हो सकता है,तुम्हारा साथ पाकर हमारे फलों में मिठास पैदा हो जाए। जो भी हमारा फल खाता है,बुरा-भला कहता कोसों दूर चला जाता है।”

हाँ,तुम्हारी बात सच भी हो सकती है!तो ठीक है कुछ दिन यहीं टिक जाती हूँ।” कोयल पर उनको दया आ गई।

सबेरे-सबेरे कोयल ने गाना शुरू किया। ठंडी हवा बहने लगी,आने जाने वालों के कानों में मधुर घंटियाँ बजने लगीं। फलों की रंगत बदल गई। हरे से पीले हुए गालों पर गुलाबीपन छा गया। रसीले फलों से डालियाँ झुक गईं। उनकी खूबसूरती को देखकर छोटे-बड़े हाथ उन्हें छूने और सहलाने को मचलने लगे। एक फल खाते दूसरा तोड़ने की सोचते। आंधी आई तो टपाटप फल नीचे गिरने लगे। बच्चे बूढ़े टोकरी लेकर दौड़े। खाते-बांटते कहते-ऐसा शहद सा मीठा फल कभी न देखा न चखा। पेड़ अपने फलों की तारीफ सुनकर नाचने लगे। पत्तियाँ हिल हिलकर कहतीं-

आओ रे भैया आओ रे

जी भर आप खाओ रे

सुनने वालों ने समझा- ‘जी भर आम खाओ।’

तब से उन रसीले फलों को आम कहा जाने लगा-कोयलिया के गले की मिठास से फल मीठे हो गए और उनकी सुगंध हवा में घुल गई।कोयल को गाने में अब आनंद आने लगा। वह उन पेड़ों को छोडकर कहीं नहीं गई। आजतक कोयल आम के पेड़ पर बैठकर ही अपने मधुर गान की तान छेड़ना पसंद करती है।

समाप्त 

 

कोरोना आया -7

 

जाना ही होगा

     सुधा भार्गव


 


“‘उठो ,क्या कर रहे हो ?”उसने बाहर खड़े ही बंद खिड़की को थपथपाया ।
“उँह सोने दो । मैं उठकर करूँगा क्या । कोई काम है ही नहीं ।” गिन्नी झुंझलाया
“अरे उठो न--धूप चढ़ आई । धूप चढ़े सोने से स्वास्थ्य खराब हो जाता है। “
“एक बार की कही बात तुम्हारी समझ में नहीं आती । तुम हो कौन उपदेश देने वाले ?”
‘वही जो सात समुन्दर पार कर तुम्हारे देश में आया हैं । चलो मेरे साथ मैदान में खेलने । मेरा मन नहीं लग रहा लगता है मेरा नाम सुनते ही सब घर में छिपकर बैठ गए हैं ।”
“ओह! वही --जो किसी को देखते ही खाने दौड़ता है और जहरीले दांत उसके शरीर में गड़ा देता है। तुमसे बचने के लिए ही तो मेरे दोस्त शन्नू ,टिन्नू और बन्नो ने घर में रहने का निश्चय कर लिया है ।”
“तो तुम और तुम्हारे साथी डरपोक हैं । “
“हम डरपोक नहीं समझदार हैं । घर में रहने से तुम हमें छू भी न सकोगे ।तुम हमें दिखाई तो देते नहीं हो ।भूले से भी तुम पर हमारी उंगली टिक गई बस छोड़ दोगे अपना जहर जो बीमारी के कीटाणुओं से भरा होगा।न बाबा --न !तुम से दोस्ती ठीक नहीं!”गिन्नी ने अपने कान पकड़े।
“तुम बेकार डर रहे हो ।यदि मेरे से लड़ने की शक्ति तुममें होगी तो मैं तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाऊँगा । ”
“वह शक्ति ही तो घर में जुटा रहा हूँ ।”
”तुम तो बड़े चतुर लगते हो । मैं भी तो सुनूँ --तुम क्या कर रहे हो ?”
“साबुन से ८-१० बार तो साबुन से हाथ धो ही लेता हूँ ।सुना है साबुन से तुम फिसल-फिसल जाते हो।बाहर निकलने से पहले मास्क लगा लेता हूँ । तुम्हारा क्या भरोसा कहीं तुम नाक में ही न घुस जाओ।फिर खूब दौड़ लगाता हूँ --घोड़े की तरह से ठक --ठक --ठक। तुम भी मुझे नहीं हरा सकते ।”
“हूँ ! तुम्हारी बात सुनकर तो ऐसा ही लगता है ।”
“और सुनो --सबसे थोड़ा अलग अलग रहते हैं ।खाते समय तो--बात करते समय तो --यहाँ तक कि चलते समय तो ।पहले तो बड़ा अजीब लगता था। अब तो आदत हो गई है ”
‘ऐसा हो ही नहीं सकता ।तुम मुझे चला रहे हो । तुम मां से कैसे दूर रहते होंगे ।हमेशा माँ के आँचल से तो चिपके रहते हो।”
“तुम क्या जानो माँ के आँचल की बात --वह तो जादू का आँचल होता हैं। जहाँ सर्दी लगी माँ झट से बच्चे को गोदी में ले अपना आँचल ओढ़ा देती है।यह पानी की बौछारों से बचाता है। गरमी लगने पर माँ इससे पंखे का काम लेती है। आँचल में छिपकर बच्चा अपना सारा दुःख भूल जाता है। कई बार तो इसी आँचल ने मुझे पापा की मार ने बचाया है।मैं भी किससे कह रहा हूँ। तुम क्या जानो प्यार किसे कहते हैं? बस प्यार करने वालों को अलग अलग करने में लगे हो। माँ से बच्चा छीन लेते हो --बहन से उसका प्यारा भाई। तुम्हारे कारण मेरे दोस्त के डॉ. पापा कई दिन से अस्पताल से घर नहीं आये हैं। तुमने इतने लोगों को बीमार कर दिया है कि अस्पताल भरा पड़ा है। उनका इलाज ख़तम ही नहीं होता ।मेरा दोस्त अपने पापा की याद में रोता रहता है ।तुम बहुत बुरे हो ।चले जाओ --मैं तुमसे बात भी नहीं करना चाहता ।” गिन्नी ने दूसरी तरफ देखते कहा।
“तुम्हारी माँ जरूर अच्छी होगी तभी तुम इतने अच्छे हो ।मैं तो यही नहीं जानता कि किसने मुझे जन्म दिया और कहाँ से तुम्हारे देश में आया ।पर मेरी माँ जरूर बुरी होगी तभी मैं बुरा हूँ और सबका बुरा ही चाहता हूँ।मैं हूँ ही इसी लायक कि कोई मुझे पसंद न करे ।तुम सब मुझसे लड़ने के लिए तैयार बैठे हो।लगता हैं मैं इस लड़ाई में हार जाऊँगा । मुझे जल्दी ही जाना पड़ेगा ।लो मैं अभी चला ---।तभी हवा में सरसराहट हुई लगा कोई तेजी से जा रहा है ।
समाप्त
2021