मिठास
सुधा भार्गव
एक जंगल
में हरे-भर ,ऊंचे -ऊंचे पेड़ थे। एक बार टिपटिपिया
हारा थका- पेड़ के नीचे आन बैठा। उसे भूख भी लगी थी। उसने पेड़ से एक फल तोड़ा,चखा और फेंक दिया।बुरा सा मुंह बनाकर दूसरे पेड़ का फल चखा। नाक-भौं सकोड़ता हुआ उसने उसे और भी दूर फेंक दिया। उसकी फेंका फेंकी पर पेड़ों
को बड़ा आश्चर्य हुआ।
बाबा
समान एक बड़े बूढ़े पेड़ ने पूछा-“भाई तुम हमारे फल खाते भी हो और दूर फेंककर उनका अपमान भी कर देते हो। भला हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है!”
“मेरे मुंह का सारा स्वाद बिगाड़ दिया और पूछते हो क्या बिगाड़ा है।तुम
लंबे-चौड़े पेड़ों से क्या फायदा,जब तुम्हारे फल किसी की भूख ही न मिटा
सकें। सारे के सारे फल कड़वे हैं कड़वे!”
“कड़वे!” एक चीख निकली और पूरे जंगल में गूंज गई। पेड़ों ने अपने लिए इतना
भद्दा शब्द आज तक न सुना था।
“हमारा तो जीवन ही व्यर्थ हो गया,जब किसी
की भलाई ही न कर पाए।” एक पेड़ दुखी होकर बोला।
‘मीठा कैसे बनें!’ इसी उधेड़बुन में कई महीने गुजर गए। न पेड़ जी खोलकर हंस
पाए न ठीक से सो सके।हमेशा उनकी आँखें रास्ते पर बिछी रहती –‘काश कोई हमें ऐसा मिल
जाए जो मीठा बनने का गुर सिखा दे।’
भरी
दोपहरी में एक दिन उड़ते-उड़ते काली कोयल उस जंगल में पेड़ की टहनी पर आ बैठी और
कुहू---कुहू करके मिश्री सा गाना कानों में उड़ेलने लगी। सारे पेड़ खुशी से झूमने
लगे। गरमी की तपत भूलकर बहुत दिनों बाद मुस्कराए।
अचानक
थू—थू की आवाज सुनकर वे मुसकराना भूल गए।उन्होंने सुना, “हाय रे!मेरा मुंह तो कड़वा हो गया। लगता है कड़वाहट यहाँ की हवा में घुली है।
उफ,गाया भी नहीं जा रहा। थोड़ी देर और यहाँ रुकी तो मेरा गला ही बैठ जाएगा।
उड़ूँ यहाँ से--- तो ही अच्छा है।”
उसने
नीले आकाश में उड़ने को पंख फड़फड़ाए ही थे कि सारे पेड़ हाथ जोड़कर खड़े हो गए,टपटप आँसू बहाने लगे। बोले-“कोयल बहन ,हमें
छोडकर मत जाओ। हम तुमसे मीठा होना सीखेंगे।”
“तुम सब बहुत कड़वे हो। तुम्हारे साथ रहकर मैं भी कड़वी हो जाऊँगी। भूल जाऊँगी
मधुर बोल।”
“यह भी तो हो सकता है,तुम्हारा साथ पाकर हमारे फलों में
मिठास पैदा हो जाए। जो भी हमारा फल खाता है,बुरा-भला
कहता कोसों दूर चला जाता है।”
“हाँ,तुम्हारी बात सच भी हो सकती है!तो ठीक
है कुछ दिन यहीं टिक जाती हूँ।” कोयल पर
उनको दया आ गई।
सबेरे-सबेरे
कोयल ने गाना शुरू किया। ठंडी हवा बहने लगी,आने
जाने वालों के कानों में मधुर घंटियाँ बजने लगीं। फलों की रंगत बदल गई। हरे से
पीले हुए गालों पर गुलाबीपन छा गया। रसीले फलों से डालियाँ झुक गईं। उनकी खूबसूरती
को देखकर छोटे-बड़े हाथ उन्हें छूने और सहलाने को मचलने लगे। एक फल खाते दूसरा
तोड़ने की सोचते। आंधी आई तो टपाटप फल नीचे गिरने लगे। बच्चे बूढ़े टोकरी लेकर दौड़े।
खाते-बांटते कहते-ऐसा शहद सा मीठा फल कभी न देखा न चखा। पेड़ अपने फलों की तारीफ
सुनकर नाचने लगे। पत्तियाँ हिल हिलकर कहतीं-
आओ रे
भैया आओ रे
जी भर
आप खाओ रे
सुनने
वालों ने समझा- ‘जी भर आम खाओ।’
तब से
उन रसीले फलों को आम कहा जाने लगा-कोयलिया के गले की मिठास से फल मीठे हो गए और
उनकी सुगंध हवा में घुल गई।कोयल को गाने में अब आनंद आने लगा। वह उन पेड़ों को
छोडकर कहीं नहीं गई। आजतक कोयल आम के पेड़ पर बैठकर ही अपने मधुर गान की तान छेड़ना
पसंद करती है।
समाप्त
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