प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

सोमवार, 14 मई 2018

अंधविश्वास की दुनिया



पायस ई पत्रिका में प्रकाशित-सितंबर 2021  
॥5॥ लाड़ला शीशा
सुधा भार्गव
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       राधे अपनी पत्नी और बेटे नीलू के साथ माँ से मिलने कलकत्ता आया हुआ था। माँ,बाप-दादा की  बनाई कोठी में रहती थी। कोठी मुस्कराती पुराने वैभव की कथा सुना रही थी। अंदर से वह शीशमहल से कम न थी। चारों तरफ बेलबूटेदार छोटे- बड़े शीशे लगे हुए थे। दादी का बच्चों को सख्त आदेश था कि उन्हें न ही छुएँ,न ही उनके पास जाएँ।
      खिलंदड़ नीलू इस नियम से परेशान हो उठा। कोठी के किसी भी कोने मेँ वह गेंद से नहीं खेल सकता था। जैसे ही गेंद हाथ मेँ लेता दो आँखें उसका पीछा करती और दादी का स्वर सुनाई देता –“ओ नीलू जरा बाहर जाकर खेल। तेरी गेंद से शीशा जरूर टूटेगा।"  
      एक दिन अकेले में नीलू ने शीशे से पूछा –“मेरे छूने से क्या तुम मैले हो जाओगे?” जब देखो दादी टोकनबाजी करती रहती हैं। तुम्हारे सामने तो मैं खड़ा भी नहीं हो सकता। ये देखो मेरे बाल---- भालू से लगते हैं न। तुम ही बताओ --बिना तुम्हारे इनमें ठीक से कंघी कैसे करूँ?
      शीशा उसे समझाते हुए बोला-“दोस्त, जन्म के समय मैं और मेरे भाई-बहन कमजोर ही पैदा हुए। जरा से धक्के से बीमार हो जाते थे और फिर टूट जाते थे। इसलिए हमारा बहुत ध्यान रखा जाता। दादी भी इसीलिए तुम्हें हाथ लगाने को मना करती हैं कि कहीं तुम मुझे ज़ोर से दबा दो और मुझे चोट लग जाये। वे मुझे इतना प्यार करती हैं कि अपने हाथ से मेरे ऊपर जमी मिट्टी साफ करती हैं । गीले मुलायम कपड़े से मेरा मुंह पोंछती हैं। मानो मैं छोटा सा बच्चा हूँ। मजाल है कोई नौकर मेरे हाथ तो लगा दे।”
      “हूँ --छोटा सा बच्चा! लगता है ज्यादा लाड़-प्यार ने तुम्हें बिगाड़ दिया है। वैसे तुम हो कितने बरस के?”
      “करीब 70 साल का तो होऊँगा।“ 
     “हो—हो--फिर तो तुम बुढ़ऊ हो गए। अब समझा ---तुम्हारी चमक कम क्यों होती जा रही है।  रे—रे--शरीर पर छोटे-छोटे काले दाग भी पड़ गए हैं। अब तो तुम्हारा जाना ही ठीक है। तुम जाओगे  तो तुम्हारी जगह मेरे पापा मजबूत सा--- चमकीला शीशा लगा देंगे।"
      “तौबा रे तौबा! क्या कह रहे हो! ऐसी बात दादी के सामने न कह देना। कान पकड़ कोठी से तुम्हें निकाल देंगी।”
      “ओह! तो तुमने दादी को पूरी तरह अपनी मुट्ठी मेँ कर रखा है। ये तुम्हारी तानाशाही नहीं चलेगी। तुम्हारे सामने ही तुम्हें चिढ़ा-चिढ़ाकर गेंद खेलूँगा। यहाँ जब से आया हूँ प्यारी गेंद को छुआ तक नहीं। वह भी सोचती होगी कहाँ आन फंसी। दादी तो मुझे भी प्यार करती हैं। देखना ----मेरा ही पक्ष लेगी।” 
      “तो ठीक है ---मुझे बदलने की बात एक बार कह कर तो देखो। न सजा मिले तो कहना।”
      “तुम्हें अपने पर इतना भरोसा!”
      “हाँ –एकदम—।”
     “ठीक है –मैं भी देखता हूँ।”
      नीलू को एक दिन गेंद खेलने का मौका मिल ही गया। दादी पूजा घर में ज़ोर-ज़ोर घंटी बजाती हुई भजन गा रही थीं। नीलू का दिमाग तेजी से काम करने लगा –आह! इस शोर में गेंद को ज़ोर-ज़ोर से जमीन पर पटकूंगा तो भी उसकी भनक दादी के कानों में पड़ने से रही।
      अब तो गेंद हवा में बल खाती हुई जमीन पर फुदकने लगी।
      अचानक धड़ाक—धड़ाक ---मानो बम फूटा हो।
      “अरे क्या हुआ ?”दादी ज़ोर से  चिल्लाईं और पूजा अधूरी छोड़ बदहवास सी दौड़ी आईं। उनका प्यारा शीशा जमीन पर गिरकर चकनाचूर हो गया था। उसे देख दुख से बौरा गई।
      ज़ोर से चीखी –“अरे राधे कहाँ गया?”
      माँ की आवाज सुन बेटा भी घबरा गया। नाश्ता छोड़ भागता आया। टूटे-बिखरे शीशे को देखकर वह भी सहम गया। जानता था-माँ को वह जान से भी ज्यादा प्यारा है।
      “गज़ब हो गया रे राधे—यह किसने करा रे ?--–इस शीशे में तो तेरे बाप की आत्मा बसी थी। 10 साल पहले उन्होंने शरीर जरूर छोड़ दिया पर आत्मा तो इसी घर में थी। आज तो वह भी उड़ गई। इसका नतीजा बहुत बुरा होगा। शीशा टूटा है –अब घर टूटेगा ,दिल टूटेगा और क्या मालूम किसी के हाथ-पैर भी टूटें। माँ एक सांस में सब कह गई।  कहते –कहते उसकी रुलाई फूट पड़ी।
      “यह सब तुमसे किसने कह दिया माँ?”
       “कोई क्या कहेगा ---?मैं तो घर-बाहर हमेशा से यही सुनती आ रही हूँ। सात साल से पहले बदनसीबी पीछा न छोड़ेगी। माँ ने गहरी सांस ली।”
      नीलू को देखते ही पागलों की तरह  ठाकुर माँ उसके कंधों को  झझोड़ती बोलीं –“जरूर इस दुष्ट की कारिस्तानी होगी। कितनी बार कहा है जहां-जहां शीशे लगे हैं वहाँ गेंद से न खेलाकर मगर चिकना घड़ा है एकदम चिकना। कोई असर हो तब ना। देख लिया तूने गेंद खेलने का नतीजा।”
       “माँ इतना परेशान क्यों होती हो? मैं एक के बदले दो ला दूंगा। अब तो बहुत सुंदर-सुंदर शीशे बनने लगे हैं।” राधे ने माँ को सांत्वना देने की कोशिश की।
      “लाने से क्या होगा। शीशा तो टूट ही गया। कुछ न कुछ किसी का नुकसान जरूर होगा।"
     “फिर वही बात ---मैंने कहा न --- कुछ नहीं होगा। पहले जमाने में शीशे की किस्म अच्छी न होने से बड़े नाजुक थे। इसके अलावा महंगे भी बहुत थे। जरा टूटे तो नुकसान ही नुकसान। बाबा जैसे शौकीन तबियत वाले ही शीशे घर में लगा सकते थे। अब तुम पहले की सुनी-सुनाई बातों का  मतलब तो समझने की कोशिश करती नहीं—बस जैसा किसी ने कहा दिल में बैठा लिया।"  
      पापा को देख नीलू में हिम्मत आई और धीरे से बोला-“दादी शीशा भी मुझसे कुछ इसी तरह की बातें कर रहा था।”
      “तू तो चुप ही रह। बड़ा अक़्लमंद बनता है।”  
      “कुछ भी कह राधे –तेरे बापू तो इस शीशे पर बड़े रीझे हुए थे। लगता था उनकी आत्मा  उसी में है। ” 
     “उन्हें शीशा बहुत अच्छा लगता था इसीलिए माँ ऐसा कहती हो। तुम भी तो नीलू को बहुत प्यार  करती हो। तुम्हें कई बार कहते सुना है –नीलू मेँ तो मेरी जान बसी है। मुझे तो लगता है तुम्हारी आत्मा भी उसी में बस गई है।” बेटा हल्के से मुस्कुरा दिया।
      “सच में प्यार तो उसे बहुत करूँ हूँ। मैंने गुस्से में न जाने क्या -क्या कह दिया। नाहक बच्चे को कोसकर जी दुखाया। आ बेटा--- मेरे पास आ--।”
      नीलू झट से दादी के आंचल में जा छिपा। उसके सिर पर स्नेहभरा हाथ फेरते हुए बोली –कोई बात नहीं बेटा! शीशा टूट गया तो टूट जाने दे। तेरा पापा दूसरा लगवा देगा।”
      “दादी तुमने मुझे माफ कर दिया?”
      “माफी किस बात की---? गलती तो मेरी भी थी। अंधे की तरह बेकार की बातों पर विश्वास कर रही थी।”
      दादी की टोकाटोकी खतम हो गई थी पर नीलू स्वयं सावधान रहने लगा। वह दूसरा शीशा तोड़कर दादी का जी नहीं दुखाना चाहता था।
समाप्त