प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

बुधवार, 28 नवंबर 2018

साहित्यिकी प्रकाशन



खुशी/सुधा भार्गव 

साहित्यिकी (हस्तलिखित पत्रिका ) 

बदलते पर्यावरण में,विशेषांक में प्रकाशित




      
कटोरी और कटोरा जो भी ये नाम सुनता हँसे  बिना न रहता। कटोरी सीधी –सादी, कटोरे का दिमाग शैतानी का किला । दिवाली के दिन शैतानी उसके दिमाग मेँ घुस गई। भरने लगा कुदान और चिल्लाया -–आह खूब मजा आयेगा ।”
 “ क्या हुआ भैया ?” कटोरी चौंकते बोली-
“आज तो पटाखे - फुलझड़ियों के लिए रुपए मिलेंगे।  पहले बाबा के पास चलते हैं उन्हें पटाना सरल है।”
बड़ी उम्मीद से दोनों बाबा के पास खड़े हो गए। पर वे कुछ न बोले। हार कर कटोरे ने अपनी दोनों हथेलियों को  मिलाकर कटोरा बनाया और बोला- बाबा, पटाखों के लिए इसमें रुपए दे दो न।कितनी देर से खड़ा हूँ। मेरे पैर में दर्द भी हो गया।”  
  “इस वर्ष तो पटाखों  के लिए तुम्हें कोई पैसा-वैसा नहीं मिलेगा।”
“क्यों बाबा?”कटोरी रुआंसी सी हो गई।
बाबा उसे पुचकारने लगे –“बिटिया ,तू पटाखे क्यों छुड़ाना चाहती है?”
“आपको इतना भी मालूम नहीं ,अरे इससे मुझे बहुत---बहुत खुशी मिलती है ।”
“खुशी! पिछली दिवाली पर बम के धमाके से तूने तो कान में उँगलियाँ ठूंस ली थीं।”
 “हाँ,मुझे लगा कान फट हो जाएगा। फिर तो मैं बहरी हो जाती। ”
“ तकदीरवाली थी कि कान का पर्दा नहीं फटा। ऐसे कनफोड़ बम से क्या फायदा?”
“मेरे सहेली का तो फुलझड़ी छोड़ते ही दम घुटने लगता है। डरपोकिया घर भाग जाती है।ऊँह मैं उसकी तरह डरपोक नहीं!”कटोरी ने तनते हुए कहा। 
“वाकई में उसका बहुत ज्यादा दम घुटता होगा । पटाखों से निकलने वाला धुआँ जहरीला होने से हवा में कार्बन घुल जाती है जो जानलेवा है । जानदेवा तो आक्सीजन है--- वही हमें स्वस्थ रखती है।”
आक्सीजन कहाँ रहती है? मुझे तो दिखाई देती नहीं बाबा।”
“यह भी हवा में घुली रहती है।”
“कान पकड़ूँ –मैं तो कभी पटाखे न छुड़ाऊं।” कटोरा बोला।
“ पटाखे छुड़ाओ या न छुड़ाओ –कार्बन तो बढ़ती ही है।” बाबा बोले।
“मेरे दिमाग में तो आपकी बात घुसी नहीं। पटाखे छुड़ाओ तो मुसीबत ,न छुड़ाओ तो मुसीबत।”
“बच्चे,पटाखे बम पाउडर से ही नहीं बनते ,इसके लिए कागज की भी जरूरत पड़ती है। कागज बनता है पेड़ों से । जितना कागज खर्च करोगे उतने ही पेड़ कटेंगे,जितने पेड़ काटेंगे उतनी ही आक्सीजन कम होगी। ये पेड़ ही तो हमें आक्सीजन देते हैं।”
“ओह! तभी दीवाली के अगले दिन पटाखे छुड़ाने  की जगह कागज के टुकड़े मिलते हैं।इसका मतलब पटाखे बनाने ही नहीं चाहिए।” कटोरा बोला।
“उफ!पटाखे छुड़ानेसे मुझे खुशी जो मिलती है वह कहाँ मिलेगी?” कटोरी छटपटाई।
“चलो मिलवाता हूँ खुशी से।”
दोनों बाबा के साथ चल दिये। रास्ते से बाबा ने जलेबियाँ, मिट्टी के दिए और तेल-बाती खरीद ली।वे एक झोपड़ी के आगे रुक गए। वहाँ एक दीया जलाया। रोशनी होते ही अंधेरी झोंपड़ी में हलचल हुई। मैली-कुचैली धोती पहने एक औरत अधनंगे बच्चों के साथ बाहर निकली। उनके पेट कमर से चिपके हुए थे। । जलता दीप देख उनकी आँखें चमक उठीं। बाबा ने उनके सामने जलेबियाँ रख दीं। बच्चे उनपर बंदरों की तरह टूट पड़े।
“बाबा इनको खुश देखकर तो मेरा मन नाचने को कर रहा है। इतनी  खुशी तो पटाखे- फुलझड़ी छुटाने में भी नहीं मिलती।”
“अरे मुझे भी तो अपनी खुशी मिल गई।”कटोरी चहकी।
मासूम बच्चों की बातें सुन जलता दीप  मुस्करा दिया। उसे लगा ये बच्चे ऐसे दीप हैं जो मन के अंधेरों को जरूर दूर करेंगे।
समाप्त


शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

अंधविश्वास की दुनिया

॥7॥ भगवान भरोसे 
सुधा भार्गव 

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       बिरजू और मटरू दो दोस्त थे । एक पढ़ाकू तो दूसरा खिलाड़ी। मटरू खेल-खेल में किसी से भी भिड़ जाता। पर एक बात तय थी। दोनों की दोस्ती बड़ी गहरी थी।  
      कुछ दिनों से पढ़ाकू अनुभव कर रहा था कि उसका दोस्त पहले से भी ज्यादा खिलंदड़ हो गया है। पहले वह हमेशा गणित के सवाल उससे पूछा करता था पर अब--अब तो  खेल की बातों से ही उसे फुर्सत नहीं । एक दिन उसने पूछ ही लिया- “दोस्त तू पढ़ाई कब करता है ?लगता है रात में करता है। अच्छा है परीक्षाएँ भी पास हैं।’’
      “ऊँह! किसने कहा मैं पढ़ता हूँ? मेरी दादी रोज मंदिर जाती है। कुछ दिन पहले  उसने प्रसाद देते कहा था –बिटूआ,ले प्रसाद खाले। भगवान सब तरह से तेरा भला करेंगे। उसपर भरोसा करने से तेरी पढ़ाई की गाड़ी छुकछुक चलेगी। मैंने तो तब से परीक्षा की चिंता करना ही छोड़ दिया ।पढ़ना बंद सा ही हो गया है। हाँ, सजा के डर से मैडम का काम जरूर कर लेता हूँ।  मैं तो कहूँ तू भी रात दिन क्यों किताबों में दिमाग खपाता है। पढ़ाई  छोड़ और दादी का प्रसाद खा लिया कर। दादी का भगवान तेरी भी मदद करेगा।’’
     “मेरा भगवान भी तो है। वह हमेशा मेरे साथ रहता है।”
     “अच्छा, तेरे साथ रहता है!  फिर तू इतना पढ़ता क्यों है? वह तेरी मदद नहीं करता!”
     “करता है पर उसे मेहनत करने वाले बच्चे अच्छे लगते हैं। आलसी और लापरवाही करने वालों को छोड़कर चला जाता है। इसलिए मुझे पढ़ना ही पढ़ता है।”
     “ऊँह, तुझसे अच्छा तो दादी का भगवान है।”
     परीक्षा खतम हो गई । एक हफ्ते बाद दोनों दोस्त  परिणाम जानने के लिए स्कूल गए। बिरजू उछलता-कूदता अपना रिजल्ट कार्ड लेकर निकला पर मटरू का मुंह लटका हुआ । पढ़ाकू अपने दोस्त को उदास देख दुखी हो उठा। रूआँसा सा वह  बोला-“पढ़ाकू मैं फेल हो गया । तू मुझे अपने भगवान से मिला दे। तब मैं जरूर पास हो जाऊंगा।’’
     “वह तुझसे नहीं मिल सकता।’’
     “क्यों?
     “मैंने कहा था न ,वह मेहनत करने वालों से ही मिलता है। तू तो खेलता रहता है या लड़ता रहता है।’’
    “तू जैसा कहेगा मैं वैसा ही करूंगा। बस एक बार तेरे भगवान से मिल लूँ।’’
    “तू मन लगाकर पढ़ना शुरू कर दे। तुझे परिश्रम करता देख भगवान खुद भागे चले आएंगे।’’
    “ठीक है मैं आज से ही पढ़ाई शुरू कर दूंगा। मगर जो मेरी  समझ में नहीं आयेगा वह तुझे बताना पड़ेगा।’’
    “मैं कभी पीछे हटा हूँ क्या?’’ उसने दोस्त का हाथ थाम उसे विश्वास दिलाना चाहा।
    घर पहुँचकर उसने दादी के हाथ में अपना रिजल्ट कार्ड थमाते हुए कहा –“तुम्हारे भगवान ने मेरा कोई भला नहीं किया। मैं फेल हो गया। मैं उनसे बहुत गुस्सा हूँ। अब से मैं अपने दोस्त के भगवान के साथ रहूँगा । वे जरूर मेरी मदद करेंगे।’’
    “अरे मेरे पास दो मिनट तो बैठ बच्चे। ’’
     दादी की बात अनसुनी करते हुए ज़ोर से चिल्लाया –“ओ माँ जल्दी से खाना दे दे । मुझे अपनी किताबें ठीक-ठाक करनी है। इस वर्ष तो मुझे वे ही किताबें गले लगानी पड़ेंगी।फेल जो हो गया हूँ।’’
    “सपूत जी ,मुझे तो पहले से ही इस बात की आशंका थी। चल तुझे अकल तो आई। माँ झुँझलाते हुए बोली।
    खिलाड़ी अब दूसरा पढ़ाकू बनने लगा । बाबा को घेरकर कहता–“बाबा पहले मुझे गणित के सवाल समझा दो न और फिर अँग्रेजी भी पढ़ूँगा।’’ 
     बाबा अपने पोते में इस परिवर्तन को देख फूले न समाते।
     इस बार क्षमाई परीक्षा के रिजल्ट से तो लड़ाकू इतना खुश कि जमीन पर पैर रखना ही भूल गया। कक्षा से बाहर बड़ी उत्सुकता से अपने दोस्त का इंतजार करने लगा। पढ़ाकू को देखते ही उछल पड़ा-“दोस्त मैं पास हो गया। तेरा भगवान बहुत अच्छा है। देख न --उसने मेरी सहायता कर दी। मैं उसे धन्यवाद देना चाहता हूँ।अब तो उससे मिला दे।’’
      “भगवान तो तेरे साथ है’’
     “क्या कहा! मेरे साथ है---मुझे तो दिखाई नहीं दे रहा।’’ वह अपने दायें-बाएँ नजर दौड़ाने लगा।
     “पर वह तो देख रहा है तुझे मेहनत करता हुआ। तभी तो उसने तेरी मदद की और तू पास हो गया।’’
     “मैं तो कुछ समझा नहीं।’’ मटरू अपना सिर खुजलाने लगा।
     “अरे बुद्धू , जो अपनी सहायता खुद करते हैं भगवान उसी का साथ देता है। केवल उसके भरोसे अपनी गाड़ी छोड़ दी तो गाड़ी का चक्का फिस।
     “कभी अगाड़ी का तो कभी पिछाड़ी का।’’ मटरू ने बिरजू के सुर में सुर मिलाया।  
      
               दोनों दोस्त खिलखिलाकर हंस पड़े।
 समाप्त 



शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

उत्सवों का आकाश



 जन्माष्टमी के अवसर पर 

एक लोककथा जो मैंने बचपन में अपनी माँ से सुनी थी।  

गोपाल भाई


       एक लड़का था ननकू। उसका स्कूल घर से बहुत दूर था और जंगल से होकर जाना पड़ता, वह भी नंगे पैर। धूल से पैर भर जाते,  कंकड़ पत्थर भी उस पर रहम न खाते। ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर चलते उसे डर लगता -कोई बिच्छू न काट ले,झाड़ियों के पीछे से कोई जंगली जानवर ही न निकल आए। जैसे ही ननकू किसी को जाता देखता वह भागता हुआ उसके साथ हो लेता । साथ मिलने पर उसका डर ऐसे भागने लगता जैसे बिल्ली को देखकर चूहा।
परेशान सा एक दिन वह माँ से बोला –“मुझे तो स्कूल जाते समय रास्ते में डर लगता है। मेरा कोई दोस्त अकेला नहीं आता । किसी के साथ उसके  दादा होते हैं तो कभी बापू । कोई कोई तो अपने नौकर के साथ भी आता है। उसके तो बड़े ठाठ होते हैं । बैग नौकर संभालता है और वह इठलाता हुआ आगे-आगे चलता
है।’’
       “बेटा, किसी से बराबरी करना ठीक नहीं। रास्ते में तुझे जब भी डर लगे अपने गोपाल भाई को पुकार लेना।वे तेरी मदद को दौड़े दौड़े आएंगे।’’ 
 दूसरे दिन आकाश में  बादल उछलकूद मचा रहे थे । ननकू स्कूल जाते समय जब घने जंगल से गुजरा तो काले बादल गिराने लगे मोटी-मोटी बूंदें । भयभीत ननकू पेड़ के नीचे खड़ा ठंड के मारे काँपने लगा । न तो बरसते पानी में वह स्कूल पहुँच सकता था और न घर लौटकर जा सकता था। ऐसे में उसे गोपाल भाई की याद आई और पुकारने लगा गोपाल भाई गोपाल भाई तुम कहाँ हो? मुझे डर लग रहा है। तुम जल्दी से आ जाओ।’’
      “डरने की क्या बात है । मैं तो तुम्हारे साथ हूँ। पीछे मुड़कर देखो।’’
ननकू ने पीछे मुड़कर देखा सच में गोपाल भाई उसके ऊपर छतरी ताने खड़े हैं ।
      “वाह भाई! साँवले होते हुए भी तुम तो बहुत अच्छे लग रहे हो।पीले कपड़े ,सिर पर मोरपंखी मुकुट ,हाथ में बांसुरी। पैर में पायल भी पहन रखी हैं! आह!तब तो इसकी रुनझुन से ही तुम्हारे आने की खबर मिल जाएगी।’’
      “ओह ,तुम तो बहुत बातूनी हो। जल्दी से स्कूल चलो वरना देरी हो जाएगी।’’
जल्दी जल्दी पैर बढ़ाता हुआ ननकू बोला –“स्कूल से लौटते समय भी मुझे डर लगता है। उस समय भी तुम्हें आना पड़ेगा।’’
गोपाल भाई केवल मुस्कुरा भर दिए ।
      दोपहर को टनटन टनानन घंटा बोला। छुट्टी होते ही बच्चे  चहचहाने लगे और ननकू तो कक्षा से बाहर की ओर इतनी तेजी से भागा मानो उसके पैरों में पहिये लग गए हों। उसे गोपाल भाई से मिलने की उतावली थी । उनके साथ खेलना था , बहुत सी बातें करनी थीं। जंगल में पहुँचते ही उसे पायल की छम-छम आवाज सुनाई दी । दूसरे ही पल गोपाल भाई सामने आकर खड़े हो गए।
“तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं जंगल में हूँ। मैंने तो तुम्हें आवाज भी न दी थी।’’ ननकू चकित था।
      “जो मुझे प्यार करता है मैं उसकी मदद करने दौड़ पड़ता हूँ।’’
      “तो फिर मेरे दोस्त बन जाओ,फिर मैं तुमसे अपने मन की बात कह सकूँगा।’’  
      “अपना दोस्त ही समझो। बोलो क्या कहना है ?”
      “कल मेरे गुरू जी का जन्म दिन है। सब कुछ न कुछ लेकर जाएंगे । मैं क्या लेकर जाऊँ?कुछ समझ नहीं आता । मेरी माँ तो एक वक्त मुझे दूध भी नहीं पिला पाती। उसे बताकर परेशान नहीं कर सकता।’’
      “दोस्त के होते हुए क्या चिंता। कुछ न कुछ लेकर कल मैं आ जाऊंगा ।’’
जंगल पार होते ही गोपाल भाई बांसुरी बजाते गायब हो गये।
***
      
      घर में घुसते ही ननकू शुरू हो गया-“माँ माँ आज गोपाल भाई आए थे। मेरी  उनसे दोस्ती हो गई है। अब रोज हम मिला करेंगे।’’
      “क्या सच में कन्हैया तुझे मिला था?”
      “ये कन्हैया कौन ?”
      “अरे पगले गोपाल का दूसरा नाम ही कन्हैया है। जैसे तू मेरा कन्हैया है वैसे ही वह अपनी यशोदा माँ का लाड़ला कन्हैया है।”
     “तब तो माँ वह तेरा कन्हैया ही था। कल मास्टर जी का जन्मदिन है । मुझे उनके लिए कुछ लेकर जाना होगा।’’
     “बेटा तेरी गरीब माँ के पास क्या है देने को।’’
      “ओह प्यारी माँ तू चिंता न कर। गोपाल भाई ने कहा हैवे जरूर कुछ लेकर आएंगे।’’
      “देखा-- कन्हैया सबकी कितनी मदद करता है! बड़ा होकर तुझे भी ऐसा बनना होगा। ’’
     अगले दिन जंगल में बांसुरी की मीठी आवाज सुनते ही ननकू समझ गया गोपाल भाई उसके आसपास ही हैं । वह ज़ोर से चिल्लाया-“भाई जल्दी आओ और गुरूजी को देने वाला उपहार दिखाओ।’’
     गोपाल भाई दो कटोरियाँ लाये। एक अपने दोस्त के लिए और दूसरी मास्टर जी के लिए।
     “इन कटोरियों से बड़ी खुशबू आ रही है।’’ ननकू बोला।
     “हाँ,इनमें मीठा-मीठा हलुआ है। तुम इसे अभी खा लो। घर से कुछ खाकर भी नहीं चले हो।’’
     “ओहो तुम्हें पता भी लग गया।
     “मैंने कहा था न मैं सब जान जाता हूँ ।’’
     “तुम भी तो खाओ ।अकेले-अकेले मैं नहीं खाऊँगा‘’’
     “पहले तुम खाओ।’’
     बिना आनाकानी किए ननकू गपागप खा गया और एक ज़ोर की डकार ली । गोपाल को भी डकार आ गई ।
    “अरे तुम्हें बिना खाए ही डकार आ गई?’’ ननकू ने पूछा। 
     “जब तुम खा रहे थे मुझे लगा वह मेरे पेट में जा रहा है ।फिर भरे पेट पर तो डकार आएगी ही।’’
     “खाऊँ मैं और पेट भरे तुम्हारा। हा-हा—कितनी अजीब बात है।’’ननकू आँखें मटकाते हुए बोला।
 ***    
      वह बड़े उल्लसित मन से स्कूल में घुसा। सोचने लगा -मास्टर जी हलुए की गंध पाते ही उसकी तारीफ करेंगे। लेकिन उसकी तरफ तो उन्होंने आँख भी उठाकर नहीं देखा। वहाँ पहले से ही देने वालों की कतार लगी थी ।उनके हाथ के बड़े-बड़े पैकिट वे बटोरने मेँ लगे थे। वह इंतजार करते-करते थक गया पर उसकी बारी नहीं आई। अंत में उसे गिड़गिड़ाना ही पड़ा -
     “मास्टर जी ,मेरा भी ले लो---- ले लो न--- ।’’
“क्या लेलो की रट लगा रखी है। दे अपनी कटुरिया। छटंकी भर हलुआ और शोर मचा रहा है मनभर का ।’’
      ननकू का चेहरा उतर गया और बुझे मन से हाथ आगे बढ़ा दिया ।
      मास्टर जी ने अपने बर्तन मेँ हलुआ डाल कर कटोरी को सीधा किया और बुरा सा मुंह बनाते बोले –“ले कटोरी और दफा हो जा ।’’ पर आश्चर्य ! कटोरी मेँ तो फिर हलुआ भर गया। मास्टर जी चकरा गए। बर्तन पर बर्तन लाने लगे। कटोरी से तश्तरी, तश्तरी से थाली और थाली के बाद आए थाल। सब भर गए। हलुआ दुगुना, चौगुन, अठगुना बढ़ता ही गया।
      “अरे रे--- यदि इसी तरह से हलुआ बढ़ता रहा तो बर्तन कहाँ से लाऊँगा? बहुत हो गया । अच्छा यह तो बता ---ये हलुआ तुझे किसने दिया ?”
      “गोपाल भाई ने दिया।’’
      "वह कोई जादूगर है क्या? उससे कह ,अपना जादू समेट ले ।’’
      ननकू ज़ोर से चिल्लाया –“गोपाल भाई मास्टर जी को हलुआ नहीं चाहिए। ’’
     “उनसे कहो वे पहले हलुआ खाएं - सबको खिलाएँ और बताएं हलुआ कैसा है?’’ एक आवाज गूंजी। हैरत से सबकी गर्दन उधर घूम गई जिधर से आवाज  आई पर कोई दिखाई न दिया।
आफत से छुटकारा पाने के लिए मास्टर जी ने बेमन से हलुआ खाया और खिलाया। पर सब उँगलियाँ चाटते रह गए ।
      “ननकू , इतना अच्छा हलुआ तो मेरे दादी भी नहीं बनाती । मुझे भी अपने गोपाल भाई से मिला दे । जब इच्छा होगी तभी कहूँगा गोपाल भाई मेरे को भी मीठा -मीठा घी का हलुआ दे दो।’’ ननकू का दोस्त बोला।
      “चल तुझे मिलाता हूँ।’’
      “तुम दोनों कहाँ चले ,चलो हम भी चलते हैं।’’मास्टर जी बोले।
      आगे आगे ननकू और पीछे पीछे मास्टर जी के साथ बच्चों की टोली । जंगल मेँ पहुँचते  ही ननकू ने आवाज लगाई –“गोपाल भाई गोपाल भाई ,देखो तो तुमसे मिलने मेरे मास्टर जी और दोस्त आए हैं। जल्दी आओ।’’
      काफी देर तक किसी को न आता देख मास्टर जी बिगड़ पड़े –“खूब उल्लू बनाया तूने तो ननकू। झूठे, तेरा कोई गोपाल सोपाल भाई नहीं है। ’’
ननकू रूआँसा सा हो गया। भर्राते गले से बोला-“गोपाल भाई आ जाओ। मुझे झूठा न बनाओ।’’
       आनन-फानन  में हवा मेँ बांसुरी की मीठी आवाज घुलने लगी। उभरती सी पायल की खनक से लगा कोई पास मेँ आकर खड़ा हो गया है।
      “गोपाल भाई आ गए गोपाल भाई आ गए। ’’ताली पीटता --ननकू उछल पड़ा। 
      "कहाँ हैं?हमें तो नहीं दिखाई दे रहा तेरा गोपाल। हंसी-ठठ्ठा करने को मैं ही रह गया हूँ । कल स्कूल आ ,तेरी चुटैया पकड़ कर गोल-गोल ऐसा घुमाऊंगा कि गोपाल का नाम लेना भूल जाएगा।’’
      “मैं मज़ाक नहीं कर रहा मास्टर जी। पास के पेड़ के नीचे ही तो मेरे बांसुरी वाले भाई खड़े हैं।’’
     “फिर झूठ बोला।’’
      “हमको भी नहीं दिखाई दे रहे तेरे गोपाल भाई।’’ बच्चे एकसाथ चिल्लाए।
     “हाँ ,मैं किसी को भी नहीं दिखाई दूंगा। पहले तुम अच्छे बच्चे बन कर आओ।’’
     “गोपाल भाई,मास्टर जी के सामने तो आ जाओ।’’
     “उनके सामने तो बिलकुल नहीं आऊँगा। वे सब बच्चों को समान नहीं समझते हैं। किसी को कम प्यार करते हैं तो किसी को ज्यादा।’’
     मास्टर जी शर्मिंदा हो उठे । बोले-“गोपाल भाई, गलती हो गई।अब से खुद भी इनसे स्नेह रखूँगा और बच्चों को भी प्यार का पाठ सिखाऊँगा। बस एक बार मुझे अपने दर्शन दे दो।’’
     “जब प्यार की गंगा मेँ गोते लगाने लगोगे तो मुझे अपने पास हमेशा पाओगे। अभी थोड़ा धीरज रखो।’’ 
      ननकू अपने गोपाल भाई के साथ हो लिया। बच्चे व मास्टर जी एक नया संकल्प लिए अपने घरों की ओर बढ़ गए।
समाप्त 

शुक्रवार, 22 जून 2018

अंधविश्वास की दुनिया



॥6॥ सिक्के पर सिक्का

सुधा भार्गव






      यमुना पुल से रेलगाड़ी चीखती-चिल्लाती धड़-धड़ करती भागी जा रही थी। छब्बू ने खिड़की से नीचे झाँककर देखा-अरे बापरे, कितना गहरा पानी! अगर रेल के बोझ से पुल टूट गया तो-तो-  इससे आगे सोचने  से पहले ही उसने आँखें ज़ोर से मींच लीं और पुल से रेल के गुजरने का इंतजार करने लगा। 
      बूढ़ी दादी झंझोड़ते बोली- “शैतान! सोने का नाटक कर रहा है। ले ये सिक्का –जरा नदी में फेंक दे। यमुना माई तुझसे बड़ी खुश होगी।”
     “खुश करने से क्या होगा दादी!”
     “होगा क्या! अरे बहुत कुछ होगा। तू झट से सिक्का तो डाल।” दादी ने अपने बटुए से अलम्यूनियम का एक पैसा उसकी हथेली पर रखा।
     “मेरा पोता कोई सिक्का-पिक्का नहीं डालेगा। ” उसका फैला  हाथ अपनी ओर खींचते बाबा बोले।
     “तुम तो न खुद डालो  न किसी को डालने दो। अरे सिक्का डालने से पुण्य मिले है पुण्य।’’
     “तुमने सिक्का डाल लिया?”
     “हाँ—”
     “तो बहुत हो गया पुण्य। तुम्हारे पाप धुल गए तो समझ लूँगा हम सब के पाप धुल गए।”
     “बाबा डालने दो न! देखो सब पटापट डाल रहे हैं।”
     “सब गलती करें --- करें! तुझे नहीं करने दूंगा।” 
     “कैसी गलती जी--। यह तो परंपरा सीता मैया के समय से चलती आ रही है। राम-सीता चौदह बरस के बाद अयोध्या लौटे तो सीता ने सरयू नदी मेँ कई सिक्के डाले थे। अपनी बात भूल गए?शादी बाद हमें सासुजी मंदिर ले गई थीं, उनके कहने पर तुमने भी तो तालाब में दो सिक्के डाले थे।”
     “हाँ—हाँ अच्छी तरह याद है।  वे सिक्के तो पीतल-चाँदी  के थे। सीता मैया ने तो जरूर सोने के सिक्के डाले होंगे। अगर सोने-चाँदी के सिक्के दे तो अभी डाल दूँ।”
     “लो सुन लो –कहाँ से दे दूँ ! अब तो ताँबे –पीतल के सिक्के भी चलन मेँ न रहे ।”  
     “अपना बटुआ टटोलकर तो देख ---किसी कोने मेँ एक दो पुराने चाँदी के सिक्के जरूर आँखें बंद किए लोट लगा रहे होंगे।’’
     “क्या कहा! चांदी का दे दूँ । मालूम भी है चांदी का भाव! आसमान छू रहा  है आसमान! अब तो देखने को भी न मिले हैं।बालकों के लिए किसी तरह मैंने दो-चार बचा कर रखे हैं। वो यमुना मैया के भेंट कर दूँ! मेरा दिमाग----अभी इतना  खराब नहीं हुआ है।”
     “तब ये लोहे -अल्मूनियम के सिक्के नहीं चलेंगे-----इनको डालने से तो नुकसान ही नुकसान 
है । " 
     “पुल तो निकल गया --अब नफा हो या नुकसान!तुम्हारी जिद तो पूरी हो ही गई। अच्छा मैं भी तो सुनूँ---- एक सिक्का डालने से भला तुम्हारा क्या नुकसान होने वाला था।” दादी झुँझला उठी।
    “तुम्हें याद होगा हमारी शादी गाँव में हुई थी और वह गाँव नदी किनारे बसा था।”   
    “यह भी कोई भूलने की बात है!”
     “नदी कल कल बहती मन मोह लेती। उसी का मीठा पानी पीकर हम और हमारे जानवरों को जिंदगी मिली। उसके पानी से सिंचाई होने से खेत सोना उगलते। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली-।”बाबा का मन गाँव के इर्द-गिर्द मंडराने लगा।
     “हम भी तो नदी का बड़ा ध्यान रखते थे । आज की तरह कूड़ा-कचरा डालने की तो सोच ही न सके थे। उससे हमारा इतना भला होता तभी तो नदी को हमने हमेशा देवी ही की तरह पूजा। जब भी उसके किनारे से गुजरते सिक्का डाल सिर झुकाते। उसमें चमचमाते पीतल ताँबे और चांदी के सिक्के –आह कितने सुहाते थे। लेकिन सुबह होते ही वे न जाने कहाँ गुम हो जाते ।”   
     “दादी, कोई चोर ले जाता होगा।”
     “अरे बेटा वो चोर नहीं होते थे। गरीब बच्चे होते थे। रात के अंधेरे में पानी में उतर कर उन्हें बीनते और उनसे अपनी दाल-रोटी का इंतजाम करते।”
     “पर बाबा नदी में सब नहाते थे। गंदे पैर उसमें डुबकी लगाते होंगे—तब पानी तो गंदा हो गया। उसी गंदे पानी को सब पीते—छीं---छीं।”
     “बेटा नदी में आती जाती लहरें पानी को साफ करती है। उसकी सफाई के लिए ही चाँदी,ताँबे ,पीतल के सिक्के डाला करते थे। एक बार नदियों का पानी इतना दूषित हो गया कि नहाने धोने से लोग बीमार पड़ने लगे तब पानी को शुद्ध करने के लिए मुगल राजाओं ने नदियों, तालाबों में तांबे ,चाँदी के सिक्के डालने का हुकुम सुना दिया।’’  
     “बाबा,इनसे पानी साफ कैसे होता है?”
     “पानी की सतह में सिक्के कई दिनों तक पड़े रहने से उनका अंश पानी में घुल जाता है । इससे ये पानी को स्वच्छ कर कीटाणुओं को  मार डालते हैं ।साथ ही धातु मिला पानी पीने से शरीर स्वस्थ रहता है। मेरी माँ तो हमेशा चांदी के लोटे का ही पानी पीती थी  और मैं ताँबे के लोटे का पानी पीता हूँ।’’ 
     “तो फिर नदी में सिक्के डालने से आपने क्यों मना कर दिया?”
     बेटा,आज के सिक्के तो अलम्यूनियम,लोहे और स्टेनलेस स्टील से बने है जो पानी को जहरीला करने के सिवाय और कुछ नहीं करते। इन धातुओं का अंश शरीर में जाने से क़ैसर जैसी बीमारियाँ हो जाती है जिन्हें ठीक करना महा-- महा मुश्किल! लेकिन दुनिया तो अंधविश्वासियों से भरी पड़ी है जो नदी, तालाब ,झरने में सिक्का डालने से बाज नहीं आते। सच्चाई समझना ही नहीं चाहते। मेरी बात तुम तो समझ गए होगे।”
     “हाँ बाबा समझ गया और यह भी जान गया कि ताँबे-पीतल और चांदी के सिक्कों वाला पानी पीना भी मेरे लिए बहुत जरूरी है जिससे आपकी तरह खूब लंबा-तगड़ा हो जाऊँ। लेकिन सोच रहा हूँ ---हूँ—हूँ –।’’ दूसरे पल ही छब्बू भाग खड़ा हुआ।
“ओ नटखट—कहाँ भागा --तेरे दिमाग में जरूर कुछ चल रहा है --!”
     “आता हूँ आता हूँ--- बाबा।’’
     जल्दी ही वह अपने हाथ में बाबा वाला ताँबे का लोटा पकड़े आ गया।
     बाबा—बाबा ,अब से मैं इसका पानी पीया  करूंगा।’’
     अरे बड़ा तो हो जा –।अभी तो तू छोटा है। देख तो तुझसे लोटा पकड़ा भी नहीं जा रहा है। चल मेरे साथ। मैं तुझे बाजार से ताँबे का एक गिलास खरीद कर देता हूं।”
     “न न मैं तो तुम्हारा लोटा ही लूँगा।”
     “मेरे अच्छे बच्चे जब तू बड़ा हो जाएगा तब तुझे दे दूंगा।”  
     “पक्की बात !”
     “एकदम पक्की।”
     छब्बू खुशी-खुशी उछलता हुआ बाबा के साथ बाजार की ओर चल दिया।  
समाप्त


सोमवार, 14 मई 2018

अंधविश्वास की दुनिया



पायस ई पत्रिका में प्रकाशित-सितंबर 2021  
॥5॥ लाड़ला शीशा
सुधा भार्गव
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       राधे अपनी पत्नी और बेटे नीलू के साथ माँ से मिलने कलकत्ता आया हुआ था। माँ,बाप-दादा की  बनाई कोठी में रहती थी। कोठी मुस्कराती पुराने वैभव की कथा सुना रही थी। अंदर से वह शीशमहल से कम न थी। चारों तरफ बेलबूटेदार छोटे- बड़े शीशे लगे हुए थे। दादी का बच्चों को सख्त आदेश था कि उन्हें न ही छुएँ,न ही उनके पास जाएँ।
      खिलंदड़ नीलू इस नियम से परेशान हो उठा। कोठी के किसी भी कोने मेँ वह गेंद से नहीं खेल सकता था। जैसे ही गेंद हाथ मेँ लेता दो आँखें उसका पीछा करती और दादी का स्वर सुनाई देता –“ओ नीलू जरा बाहर जाकर खेल। तेरी गेंद से शीशा जरूर टूटेगा।"  
      एक दिन अकेले में नीलू ने शीशे से पूछा –“मेरे छूने से क्या तुम मैले हो जाओगे?” जब देखो दादी टोकनबाजी करती रहती हैं। तुम्हारे सामने तो मैं खड़ा भी नहीं हो सकता। ये देखो मेरे बाल---- भालू से लगते हैं न। तुम ही बताओ --बिना तुम्हारे इनमें ठीक से कंघी कैसे करूँ?
      शीशा उसे समझाते हुए बोला-“दोस्त, जन्म के समय मैं और मेरे भाई-बहन कमजोर ही पैदा हुए। जरा से धक्के से बीमार हो जाते थे और फिर टूट जाते थे। इसलिए हमारा बहुत ध्यान रखा जाता। दादी भी इसीलिए तुम्हें हाथ लगाने को मना करती हैं कि कहीं तुम मुझे ज़ोर से दबा दो और मुझे चोट लग जाये। वे मुझे इतना प्यार करती हैं कि अपने हाथ से मेरे ऊपर जमी मिट्टी साफ करती हैं । गीले मुलायम कपड़े से मेरा मुंह पोंछती हैं। मानो मैं छोटा सा बच्चा हूँ। मजाल है कोई नौकर मेरे हाथ तो लगा दे।”
      “हूँ --छोटा सा बच्चा! लगता है ज्यादा लाड़-प्यार ने तुम्हें बिगाड़ दिया है। वैसे तुम हो कितने बरस के?”
      “करीब 70 साल का तो होऊँगा।“ 
     “हो—हो--फिर तो तुम बुढ़ऊ हो गए। अब समझा ---तुम्हारी चमक कम क्यों होती जा रही है।  रे—रे--शरीर पर छोटे-छोटे काले दाग भी पड़ गए हैं। अब तो तुम्हारा जाना ही ठीक है। तुम जाओगे  तो तुम्हारी जगह मेरे पापा मजबूत सा--- चमकीला शीशा लगा देंगे।"
      “तौबा रे तौबा! क्या कह रहे हो! ऐसी बात दादी के सामने न कह देना। कान पकड़ कोठी से तुम्हें निकाल देंगी।”
      “ओह! तो तुमने दादी को पूरी तरह अपनी मुट्ठी मेँ कर रखा है। ये तुम्हारी तानाशाही नहीं चलेगी। तुम्हारे सामने ही तुम्हें चिढ़ा-चिढ़ाकर गेंद खेलूँगा। यहाँ जब से आया हूँ प्यारी गेंद को छुआ तक नहीं। वह भी सोचती होगी कहाँ आन फंसी। दादी तो मुझे भी प्यार करती हैं। देखना ----मेरा ही पक्ष लेगी।” 
      “तो ठीक है ---मुझे बदलने की बात एक बार कह कर तो देखो। न सजा मिले तो कहना।”
      “तुम्हें अपने पर इतना भरोसा!”
      “हाँ –एकदम—।”
     “ठीक है –मैं भी देखता हूँ।”
      नीलू को एक दिन गेंद खेलने का मौका मिल ही गया। दादी पूजा घर में ज़ोर-ज़ोर घंटी बजाती हुई भजन गा रही थीं। नीलू का दिमाग तेजी से काम करने लगा –आह! इस शोर में गेंद को ज़ोर-ज़ोर से जमीन पर पटकूंगा तो भी उसकी भनक दादी के कानों में पड़ने से रही।
      अब तो गेंद हवा में बल खाती हुई जमीन पर फुदकने लगी।
      अचानक धड़ाक—धड़ाक ---मानो बम फूटा हो।
      “अरे क्या हुआ ?”दादी ज़ोर से  चिल्लाईं और पूजा अधूरी छोड़ बदहवास सी दौड़ी आईं। उनका प्यारा शीशा जमीन पर गिरकर चकनाचूर हो गया था। उसे देख दुख से बौरा गई।
      ज़ोर से चीखी –“अरे राधे कहाँ गया?”
      माँ की आवाज सुन बेटा भी घबरा गया। नाश्ता छोड़ भागता आया। टूटे-बिखरे शीशे को देखकर वह भी सहम गया। जानता था-माँ को वह जान से भी ज्यादा प्यारा है।
      “गज़ब हो गया रे राधे—यह किसने करा रे ?--–इस शीशे में तो तेरे बाप की आत्मा बसी थी। 10 साल पहले उन्होंने शरीर जरूर छोड़ दिया पर आत्मा तो इसी घर में थी। आज तो वह भी उड़ गई। इसका नतीजा बहुत बुरा होगा। शीशा टूटा है –अब घर टूटेगा ,दिल टूटेगा और क्या मालूम किसी के हाथ-पैर भी टूटें। माँ एक सांस में सब कह गई।  कहते –कहते उसकी रुलाई फूट पड़ी।
      “यह सब तुमसे किसने कह दिया माँ?”
       “कोई क्या कहेगा ---?मैं तो घर-बाहर हमेशा से यही सुनती आ रही हूँ। सात साल से पहले बदनसीबी पीछा न छोड़ेगी। माँ ने गहरी सांस ली।”
      नीलू को देखते ही पागलों की तरह  ठाकुर माँ उसके कंधों को  झझोड़ती बोलीं –“जरूर इस दुष्ट की कारिस्तानी होगी। कितनी बार कहा है जहां-जहां शीशे लगे हैं वहाँ गेंद से न खेलाकर मगर चिकना घड़ा है एकदम चिकना। कोई असर हो तब ना। देख लिया तूने गेंद खेलने का नतीजा।”
       “माँ इतना परेशान क्यों होती हो? मैं एक के बदले दो ला दूंगा। अब तो बहुत सुंदर-सुंदर शीशे बनने लगे हैं।” राधे ने माँ को सांत्वना देने की कोशिश की।
      “लाने से क्या होगा। शीशा तो टूट ही गया। कुछ न कुछ किसी का नुकसान जरूर होगा।"
     “फिर वही बात ---मैंने कहा न --- कुछ नहीं होगा। पहले जमाने में शीशे की किस्म अच्छी न होने से बड़े नाजुक थे। इसके अलावा महंगे भी बहुत थे। जरा टूटे तो नुकसान ही नुकसान। बाबा जैसे शौकीन तबियत वाले ही शीशे घर में लगा सकते थे। अब तुम पहले की सुनी-सुनाई बातों का  मतलब तो समझने की कोशिश करती नहीं—बस जैसा किसी ने कहा दिल में बैठा लिया।"  
      पापा को देख नीलू में हिम्मत आई और धीरे से बोला-“दादी शीशा भी मुझसे कुछ इसी तरह की बातें कर रहा था।”
      “तू तो चुप ही रह। बड़ा अक़्लमंद बनता है।”  
      “कुछ भी कह राधे –तेरे बापू तो इस शीशे पर बड़े रीझे हुए थे। लगता था उनकी आत्मा  उसी में है। ” 
     “उन्हें शीशा बहुत अच्छा लगता था इसीलिए माँ ऐसा कहती हो। तुम भी तो नीलू को बहुत प्यार  करती हो। तुम्हें कई बार कहते सुना है –नीलू मेँ तो मेरी जान बसी है। मुझे तो लगता है तुम्हारी आत्मा भी उसी में बस गई है।” बेटा हल्के से मुस्कुरा दिया।
      “सच में प्यार तो उसे बहुत करूँ हूँ। मैंने गुस्से में न जाने क्या -क्या कह दिया। नाहक बच्चे को कोसकर जी दुखाया। आ बेटा--- मेरे पास आ--।”
      नीलू झट से दादी के आंचल में जा छिपा। उसके सिर पर स्नेहभरा हाथ फेरते हुए बोली –कोई बात नहीं बेटा! शीशा टूट गया तो टूट जाने दे। तेरा पापा दूसरा लगवा देगा।”
      “दादी तुमने मुझे माफ कर दिया?”
      “माफी किस बात की---? गलती तो मेरी भी थी। अंधे की तरह बेकार की बातों पर विश्वास कर रही थी।”
      दादी की टोकाटोकी खतम हो गई थी पर नीलू स्वयं सावधान रहने लगा। वह दूसरा शीशा तोड़कर दादी का जी नहीं दुखाना चाहता था।
समाप्त