खुशी/सुधा भार्गव
साहित्यिकी (हस्तलिखित पत्रिका )
‘बदलते पर्यावरण में,विशेषांक में प्रकाशित
कटोरी और कटोरा जो भी ये नाम सुनता हँसे बिना न रहता। कटोरी सीधी –सादी, कटोरे का दिमाग शैतानी का किला । दिवाली के दिन शैतानी उसके दिमाग मेँ
घुस गई। भरने लगा कुदान और चिल्लाया -–आह खूब मजा आयेगा ।”
“ क्या हुआ
भैया ?” कटोरी चौंकते बोली-
“आज तो पटाखे - फुलझड़ियों के लिए रुपए
मिलेंगे। पहले बाबा के पास चलते हैं
उन्हें पटाना सरल है।”
बड़ी उम्मीद
से दोनों बाबा के पास खड़े हो गए। पर वे कुछ न बोले। हार कर कटोरे ने अपनी दोनों
हथेलियों को मिलाकर कटोरा बनाया और बोला- बाबा, पटाखों के लिए इसमें रुपए दे
दो न।कितनी देर से खड़ा हूँ। मेरे पैर में दर्द भी हो गया।”
“इस वर्ष तो पटाखों के लिए तुम्हें कोई पैसा-वैसा नहीं मिलेगा।”
“क्यों बाबा?”कटोरी रुआंसी सी हो गई।
बाबा उसे पुचकारने
लगे –“बिटिया ,तू पटाखे क्यों
छुड़ाना चाहती है?”
“आपको इतना भी मालूम
नहीं ,अरे इससे मुझे बहुत---बहुत खुशी
मिलती है ।”
“खुशी! पिछली दिवाली
पर बम के धमाके से तूने तो कान में उँगलियाँ ठूंस ली थीं।”
“हाँ,मुझे लगा कान फट हो जाएगा। फिर तो मैं बहरी हो जाती। ”
“ तकदीरवाली थी कि
कान का पर्दा नहीं फटा। ऐसे कनफोड़ बम से क्या फायदा?”
“मेरे सहेली का तो
फुलझड़ी छोड़ते ही दम घुटने लगता है। डरपोकिया घर भाग जाती है।ऊँह मैं उसकी तरह डरपोक
नहीं!”कटोरी ने तनते हुए कहा।
“वाकई में उसका बहुत
ज्यादा दम घुटता होगा । पटाखों से निकलने वाला धुआँ जहरीला होने से हवा में कार्बन
घुल जाती है जो जानलेवा है । जानदेवा तो आक्सीजन है--- वही हमें स्वस्थ रखती है।”
“आक्सीजन कहाँ
रहती है? मुझे तो दिखाई देती नहीं बाबा।”
“यह भी हवा में घुली
रहती है।”
“कान पकड़ूँ –मैं तो
कभी पटाखे न छुड़ाऊं।” कटोरा बोला।
“ पटाखे छुड़ाओ या
न छुड़ाओ –कार्बन तो बढ़ती ही है।” बाबा बोले।
“मेरे दिमाग में
तो आपकी बात घुसी नहीं। पटाखे छुड़ाओ तो मुसीबत ,न छुड़ाओ तो मुसीबत।”
“बच्चे,पटाखे बम पाउडर से ही नहीं बनते
,इसके लिए कागज की भी जरूरत पड़ती है। कागज बनता है पेड़ों से ।
जितना कागज खर्च करोगे उतने ही पेड़ कटेंगे,जितने पेड़ काटेंगे
उतनी ही आक्सीजन कम होगी। ये पेड़ ही तो हमें आक्सीजन देते हैं।”
“ओह! तभी दीवाली के
अगले दिन पटाखे छुड़ाने की जगह कागज के टुकड़े
मिलते हैं।इसका मतलब पटाखे बनाने ही नहीं चाहिए।” कटोरा बोला।
“उफ!पटाखे छुड़ानेसे
मुझे खुशी जो मिलती है वह कहाँ मिलेगी?” कटोरी छटपटाई।
“चलो मिलवाता हूँ
खुशी से।”
दोनों बाबा के साथ
चल दिये। रास्ते से बाबा ने जलेबियाँ, मिट्टी के दिए और तेल-बाती खरीद ली।वे एक झोपड़ी के आगे रुक गए। वहाँ एक दीया
जलाया। रोशनी होते ही अंधेरी झोंपड़ी में हलचल हुई। मैली-कुचैली धोती पहने एक औरत अधनंगे
बच्चों के साथ बाहर निकली। उनके पेट कमर से चिपके हुए थे। । जलता दीप देख उनकी आँखें
चमक उठीं। बाबा ने उनके सामने जलेबियाँ रख दीं। बच्चे उनपर बंदरों की तरह टूट पड़े।
“बाबा इनको खुश
देखकर तो मेरा मन नाचने को कर रहा है। इतनी
खुशी तो पटाखे- फुलझड़ी छुटाने में भी नहीं मिलती।”
“अरे मुझे भी तो अपनी
खुशी मिल गई।”कटोरी चहकी।
मासूम बच्चों की
बातें सुन जलता दीप मुस्करा दिया। उसे लगा
ये बच्चे ऐसे दीप हैं जो मन के अंधेरों को जरूर दूर करेंगे।
समाप्त
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-11-2018) को "धर्म रहा दम तोड़" (चर्चा अंक-3171) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'