गुरू का शत्रु
सुधा भार्गव
एक
शिक्षक थे उनका नाम था आकाश--- ज्ञान का असीम भंडार । हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते
रहते और अपने ज्ञान के भंडार को बढ़ाते रहते। जो जितना ले सकता था
उसमें से उतना उसको बड़े प्यार से दे देते। जो अपना टिफिन भूल आता वह दौड़ा-दौड़ा
इनके पास आता और ये अपने सब्जी -रोटी का उसे हिस्सेदार बनाकर बड़े खुश होते। पाठ न
समझने पर कोई रोता आता तो एक बार नहीं चार बार समझाने को तैयार रहते । गुस्सा और
झुंझलाहट तो उनसे कोसों दूर भागती थी।
वे
खाली समय में कहानी कविता लिखकर अपने रचना संसार में डूबे रहते । पढ़ाई के बीच -बीच में बच्चों को कहानियाँ सुनाकर
उन्हें गुदगुदा देते। वे हँसते हुए और मन से पढ़ाई करते। उनके छात्र और उनके बीच
हमेशा प्यार का सागर लहरा रहता।
शिक्षक तिवारी जी के पढ़ाए शिष्य बड़े हो गए और उनकी उम्र ढलने लगी। पढ़ाना तो
बंद कर दिया पर कुछ न कुछ बच्चों के लिए लिखते रहते।
एक
दिन एक युवक उनसे मिलने आया । वह कीमती
सूट पहने हुए था ,हाथ में सोने की घड़ी बंधी थी ।
तिवारी जी अपने शिष्य को तुरंत पहचान गए । उसने श्रद्धा से अपने गुरू के पैर छूए ।
उसे यह देख बड़ा कष्ट हुआ कि दूसरों का ध्यान रखने वाला आज खुद से बेखबर है। बदरंग
चारपाई,घिसी-पिटी चप्पलें,कपड़ों के नाम
पर दो जोड़ी कपड़े खूंटी से लटकते देख उसकी आँखें भर आईं।
“आपने
अपनी विद्यता से मेरे जीवन में रोशनी ही रोशनी भर दी । अब मेरी बारी है । मैं आपको इस हालत में यहाँ न रहने
दूंगा।‘’ कहते-कहते युवक का गला भर्रा गया।
“बेटा
,मैं अकेली जान ,मेरी जरूरते भी कम हैं । मैं ठीक ही हूँ।“
“पर
आपको देखकर मैं ठीक नहीं हूँ। मेरा घर बहुत बड़ा है । वहाँ रहने से आपको कोई
असुविधा नहीं होगी और आप निश्चिंत होकर कहानियाँ लिखिएगा। पहले आपसे मैं सुनता था ,अब मेरा बेटा सुनेगा ।“
गुरू
जी उसकी बात सुनकर गदगद हो गए और बोले –“मैं अवश्य तुम्हारे पास आऊँगा लेकिन उससे
पहले मुझे अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेने दो ।’’
“क्या
आप जैसे सज्जनों के भी दुश्मन होते हैं ?”युवक ने आश्चर्य
से पूछा ।
“पता
नहीं! पर मेरे हैं ।“ शिक्षक ने सहजता से कहा । युवक उनकी बात टाल न सका और अकेला
ही घर लौट गया ।
दो
वर्षों के बाद अपने शिक्षक को दरवाजे पर खड़ा देख युवक के आनंद की सीमा नहीं रही ।
उसकी समझ में नहीं आ रहा था उनका कैसे आदर –सत्कार करे । उनकी एक कमरे में रहने की
व्यवस्था की गई । युवक खुद बाजार गया और उनके लिए
कपड़े ,जूते ,चप्पल आदि खरीदकर
उन्हें अलमारी में करीने से सजा दिया ।
वैसे तो घर में नौकर-चाकर थे पर उसने अपनी पत्नी से विशेष आग्रह था किया कि भोजन
अपने हाथ से ही गुरूजी को परोसे। थाली में
सब्जी –रोटी के अलावा नमकीन ,चटपटा ,चरपरा
,मिठाई सभी होती थीं पर गुरू जी दो सब्जी –दो रोटियाँ
निकालकर सभी लौटा देते । इसी तरह कपड़ों के मामले में दो जोड़ी कपड़ों से गुजारा करते
।
उनका
यह रवैया देख युवक बेचैन हो उठा । उसने गुरू जी से पूछा –“क्या मेरी सेवा में कोई
त्रुटि रह गई हैं?”
“तुम्हें मालूम है कि मैं अपने शत्रु को जीतकर आया हूँ । उस दुश्मन का नाम
है लालच । यदि मैं आराम दायक ज़िंदगी का आदी हो गया ,जीभ का
गुलाम बन कर रह गया तो चिंतन -मनन नहीं कर पाऊँगा । मेरे कलम भी सुस्त पड़
जाएगी। अपनी मंजिल पाने के लिए सादा जीवन
जरूरी हैं ।’’
“तब
गुरू जी सुख –सुविधाओं का उपयोग करके क्या मैं गलती कर रहा हूँ ?”युवक व्याकुल हो उठा ।
“पुत्र
,तुम्हारा उद्देश्य है गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए दूसरों की सुविधाओं का
ध्यान रखना । यह कर्तव्य तुम अच्छी तरह निभा रहे हो । सबके जीवन के लक्ष्य अलग –अलग
होते हैं । उनको पाने कि लिए उसी के अनुसार जीवन बिताना होता है। ’’
आकाश
गुरू के सामने नतमस्तक हो गया और उसने निश्चय किया कि वह उन्हें कहीं नहीं जाने
देगा। अपने गुरू से आजन्म कुछ न कुछ सीखता रहेगा।
प्रकाशित - बालवाटिका -सितंबर अंक