प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

गुरुवार, 27 जनवरी 2022

इंद्रप्रस्थ भारती मासिक पत्रिका





इन्द्र प्रस्थ भारती बालसाहित्य विशेषांक 
नवंबर -दिसंबर 
2021








इस पत्रिका में मेरी तीन कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। गुट्टू की बगिया दादी,धन्यवाद कोरोना,सुनहरी कढ़ी।यहाँ केवल एक पोस्ट की है।  

गुट्टू  की बगिया 

भूरी-भूरी  आँखों वाला एक बालक था जिसका नाम था गुट्टू। शरारत तो उसके अंग अंग में समाई हुई थी । बातूनी इतना मानो  उसके पेट में कोई गपोड़िया गहरा कुआं  हो  जो खाली होने का नाम ही नहीं लेता था । 

     वह अपनी दादी को बहुत प्यार करता था। कुछ दिनों से उनका बाहर जाना बंद था पर गुट्टू से उनकी खूब चटर पटर होती रहती। गुट्टू खुश कि उसकी कोई बात तो सुनने वाला है --दादी खुश कि चलो समय कट रहा

है ।

     कभी कभी उसकी दादी बहुत उदास हो जाती ।उसे  वे दिन याद आते जब अपनी सहेली रामकली और हरप्यारी  के साथ  मंदिर जाती।  कभी आइसक्रीम का स्वाद लेने पोते के साथ बाजार चल पड़ती । अब तो आह भर कर ही रह जाती --न जाने वो दिन लौटकर आएंगे भी या नहीं। 

      एक दिन दादी बड़बड़ा उठीं- 

      “ क्या तमाशा लगा रखा है !कभी लॉक डाउन ख़तम हो जाता तो कभी फिर से लोकडाउन शुरू कर देते ।पर क्या फर्क पड़ता ---हम राम तो घर में पहले की तरह ही लॉक  हैं।   जिंदगी में कभी इतने दिन लगकर घर में न रही।न जाने क्या पाप किया था जो ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं।"

 फिर  ऊंची आवाज में बोली,"ओ लक्खी बेटा -मुझे आज जरा कार में बैठाकर सैर करा  ला।सुना है कुछ बाजार खुल गए हैं । और हाँ मेरे साथ मेरा गुट्टू भी चलेगा। बेचारा चारदीवारी में कैद होकर रह गया है।” 

     “माँ ले तो चलूँगा पर किसी  दुकान पर नहीं उतरोगी ।” 

     “तो फिर जाकर क्या करूँगी ।  आधा घंटा तैयार होने में लगाऊँ ,नई साड़ी  की तह  ख़राब करूँ और कार में ही बैठी रहूं । रहने दे --मैं घर में ही भली।  घर में बैठी रहूँ  या कार में बात तो  एक  ही हुई ।” बूढ़ी मॉ झल्ला उठी । 

         माँ की व्याकुलता देख बेटा उदास हो गया । उसका मन बहलाने को बोला-“अच्छा माँ तुझे कुछ खरीदना हो तो बता, मैं एमोजॉन से मंगा  देता हूँ ।” 

     "ये अम्माजान तेरी कौन सी आ गई!सामान बेचे है क्या ?"

    "ओह मेरी माँ यह एमोजॉन बहुत बड़ी दुकान है । घर बैठे ही सामान  पहुंचा देगी ।" 

      “अरे मुझे कुछ न खरीदना । दूकान पर जाकर कोई जरूरी है कि खरीदो ही खरीदो । नई सुन्दर चीज देख आँखें भी तो मुस्कुराती हैं । मन खुशी से हवा में उड़ने लगता । तभी तो बाजार जाने को मन मचल उठा। ।” 

         इतने में गरमी से तपती गौरी बहू घर में घुसी । उसका खाली थैला देख गुट्टू के पापा  और उसकी बूढ़ी माँ दोनों ही चकित हो गए ।

      “एक घंटे में तुम्हें कोई सब्जी नहीं मिली!गुट्टू के लिए चार आम ही ले आतीं ।”गुट्टू के पापा बोले ।  

    “आपको आमों की पड़ी है बाहर जाकर देखिये कितनी लम्बी लाइन है । ज्यादातर लोगों ने मास्क ही नहीं लगा रखे ।दुकानों पर भुक्कड़ों की तरह टूटे पड़  रहे हैं। २ गज की बात छोड़ो दो इंच की भी दूरी नहीं बना रखी है । लगता है कोरोना उनका दोस्त है----किसी भी हालत में उनके पास नहीं फटकेगा ।  उफ !मैंने तो दूर खड़े बहुत इन्तजार किया---- अब बारी आये --अब बारी आये ।मेरी तो बाबा हिम्मत जबाब दे गई  भीड़ में घुसने की ।” 

     “पहले की तरह होम डिलीवरी क्यों न  करवा ली बहू । दुकानें तो खुल गई हैं।”दादी बोली ।  

    “माँ, मालिकों ने दुकाने तो खोल दी हैं पर उनकी मदद को कोई कर्मचारी न आया होगा ।”बेटे ने समझाया ।  

    “ओह समझी । अब तो घर में बैठे मुझे भी कुछ करना  पड़ेगा। हो  गया  बहुत आराम !मेरा पोता  कहाँ है?--अरे गुट्टू --ू ओ गुट्टू   कहाँ हैं बच्चे ?”

      खरगोश की तरह फुदकता गुट्टू आन  खड़ा हुआ -प्यारी दादी तुम्हारा गुट्टू आ गया!” 

    “तेरी मुठ्ठी में क्या है रे ?”

वह मुट्ठी खोलता बोला-”पांच गुट्टे!कल तुमने पांच गुट्टे का खेल सिखाया था न!उसी को बार- बार खेल रहा था। आज तो तुम्हें हरा कर रहूँगा।” 

    “ओह,पचगुट्टा--हो--हो --हो।” दादी जोर- जोर से हंसने लगी।  हँसी थमी तो बोली-”गुट्टू आज मैं तुझे दूसरा खेल सिखाऊंगी ।”

    “माँ मुझे भी सिखा दो।”गुट्टू का लक्खी पापा बोला। 

    “अरे तू बड़ा हो गया है--तुझे क्या सिखाऊँ !”

    “माँ मैं भी तो तेरा बच्चा हूँ ।कभी कभी मन करता है पहले की तरह तू मेरे बालों में अपनी अंगुलियां घुमाये --मेरे नखरे उठाये ।मुझे तो लगे तू मुझसे ज्यादा अपने पोते को प्यार करने लगी है। "

    "क्या कह रहा है !जो मन में आता बोल देता। रे--रे तेरी कोई जगह ले सकता है क्या!”बेटे के दिल में अपने लिए इतनी चाहत देख माँ का दिल बाग़  -बाग़ हो गया । 

    “अच्छा चल पिछवाड़े ---वो हमारी फुलबाड़ी है न ,उसी के पास सागबाड़ी बनाते हैं। ।सब्जियों की किल्लत कुछ तो कम होगी ।”

   “ओह दादी किचिन गार्डन !पर बिना माली के कौन जमीन खोदेगा ,कौन उनकी देखभाल करेगा। 

     "अरे मैं सब जानूँ हूँ। मेरा चाचा किसान था । सारे दिन खेतों में तितली की तरह उड़ती रहती। 

      "पर माँ कुछ भी बोने के  लिए तो बीजों की जरूरत होगी ।तुम  बताओ  क्या -क्या चाहिए मैं एमोजोन  से मँगा दूँगा।” 

     “तूने तो एजी  --ओजी  की रट  लगा रखी है  ।बीज तो रसोई में ही मिल जायेंगे।”फिर अपनी बहू को दमदार आवाज लगाई -”ओ  गौरी ज़रा सुन तो--थोड़ा सा साबुत कुचला  धनिया ,मेथी दाना  ,सौंफ ,पुदीना  ,और  सूखी मिर्चे तो दे दे।  आज इन्ही से अपनी साग-भाजी की बगिया शुरू करती हूँ।” 

     “अरे वाह दादी  वाह !फिर तो मेथी दानों से मिथिला रानी ,धनिये से धन्नो रानी छनकने लगेंगी । अब खाने को मिलेंगे मेथी के पराँठे और धनिये की चटपटी सब्जी। "

     "मन के गुब्बारे ज्यादा न फोड़ । चलकर कुछ कामकर । देख तेरे पापा ने क्यारियाँ बना दी हैं। तू इनमें से पत्थर और घास बीनकर निकाल। "

    दादी ने एक मिनट की भी देर किए बिना  अपने अनुभवी हाथों से एक में कुचला धनिया दूसरी में मेथी दाना और तीसरी में सौंफ छिड़क दी।  पुदीना उठाकर बड़ी चतुरता से उसकी जड़ें काटी और मिट्टी में घुसेड़ दीं।

    “,दादी  मिर्ची  तो सूखी बीमार सी लग रही हैं।  इसे फ़ेंक दो । मैं फ्रिज से अभी मोटी ताजी निकालकर लाता हूँ ।” गुट्टू बोला ।

      “अरे ठहर तो --कुछ ही दिनों में ये  सूखी मिर्ची ही हरी -हरी मोटी  मिर्चों को जन्म दे देंगी।” 

      गुट्टू और उसके पापा अचरज से दादी माँ को देखने लगे । दादी ने भी कमाल कर दिया। मिर्ची को तोड़ा और झट से उसके बीज अलग एक क्यारी में फैला दिए । उसकी  आँखों में खुशी झिलमिलाने लगी।रोज दिन में दो बार तो वह अपनी बगिया के चक्कर लगा ही लेती पर अकेली नहीं अपने दुलारे पोते के साथ । उसके बिना तो दादी की दाल गलती ही न थी। इंतजार करती कब छोटी -छोटी सुकुमार कोंपलें निकले! कब हवा में सौंफ और  मेथी की खुशबू घुल जाए! दादी की देखभाल और प्यार का यह असर हुआ कि जल्दी ही नन्हें पौधे हँसते -खिलखिलाते निकल आये । दादी को देख उसकी  और झुक झुक जाते और कहते - दादी माँ तुम बहुत बहुत प्यारी हो  । कच्ची सौंफ की पत्तियां बहुत बारीक थीं ।उनके सुंदर गुच्छे तो हवा में लहराते दादी के पैरों को चूमने  लगे ।  धीरे से फुसफुसाते -तुम हमारी भी दादी हो । हमें भूलना नहीं ।

     धीरे -धीरे दादी की बगिया महकती हुई बढ़ती  गई । गुट्टू को इस बगिया में बड़ा आनंद आता। उसमें छोटे -छोटे लाल टमाटर अपनी गोल गोल आँखें घुमाते उसकी ओर देखते तो लगता वे उसी का इंतजार कर रहे हों । अदरक -मूली को किसी की चिंता न थी । वे तो  बड़े मजे जमीन में पैर पसारती सोती रहतीं।  पर लौकी बड़ी सावधानी से मचान पर चढ़ कर पहरा देती । गुट्टू को तोरई बड़ी अच्छी लगती क्योंकि वह उसी की तरह  शैतान थी । उसकी बेल ने बांस से बनी छत पर बड़ी तेजी से कब्जा जमा लिया। उससे लटकती तोरई खूब इतराती और  हवा में मस्ती से कलाबाजियाँ करती।  लौकी  को छेड़ने के लिए आप जानकर उसके सिर से बार -बार टकराती --टक--टक --।  गुट्टू यह देखकर खूब उछलता और तालियाँ बजाता। बेचारी लौकी अपना सिर थाम कर रह जाती। पर गुस्सा जरा भी  न करती । तोरई को  छोटी बहन समझकर माफ कर देती । पोधीना, धनियाँ ,मेथी   की  कोमल पत्तियाँ हवा में  झूमतीं   तो  लगता जैसे हरा लहंगा पहने नन्ही-नन्ही  परियाँ गुट्टू  से मिलने आई हैं। उसका मन करता उन्हें गले लगा ले। 

     दादी -पोते के प्यार को पाकर सब्जियाँ बहुत खुश हुईं।और तेजी से बढ्ने लगीं। ज्यादा उगने पर दादी ने उन्हें पास-पड़ोस में भेजना शुरू कर दिया । पड़ोसी तो अवाक रह गए।  --दादी का यह कैसा करिश्मा !घर बैठे ही  ताजी सब्जी। गुट्टू की तो बस पूछो ही मत। जब भी मौका मिलता फोन पर डट जाता और शुरू हो जाते  चतुर दादी के किस्से  । थोड़े दिनों में ही गुट्टू की दादी मोहल्ले भर की बगिया दादी बन गई।

समाप्त