प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

बालकहानी

 

    नटखट नोटबुक 

सुधा भार्गव 

      सुररी अपनी किताबों से खूब काम लेता। कभी पन्ने पलटता हुआ पढ़ता ,कभी उन्हें देख प्रश्नों के उत्तर लिखता। काम खतम होने पर उन्हें इधर-उधर पटक देता। एक बार डिक्शनरी झुँझला उठी- यह लड़का एकदम मतलबी है ! काम निकलते ही हमें बेदर्दी से फेंक देता है । कल मुझे इतने झटके से रखा कि पूरी  कमर की कमर दर्द कर रही है।

  “दीदी ,तुम ठीक कह रही हो। यह दुष्ट मुझे तो घुमाते हुए मेज पर इतनी ज़ोर से पटकियाँ खिलाता है कि मेरी खाल जगह - जगह से छिल गई है । देखो न कैसी लग रही हूँ –एकदम बदसूरत। एक दिन ऐसी गायब हो जाऊँगी कि ढूँढे से न मिलूँ। बच्चू को दिन में ही तारे नजर आने लगेंगे। स्कूल में भी खूब डांट पड़ेगी।’’नोटबुक बोली। 

 तू छोटी सी है पर है बड़ी खोटी।   कोई शरारत करने की जरूरत नहीं।” एटलस ने उसे समझाने की कोशिश की। उस समय तो नोटबुक चुप हो गई पर उसे सबक सिखाने की ताक में रहने लगी।  

   रात में सुररी ने गणित के कुछ सवाल किए और निबंध लिखा। आदतन किताबों को लापरवाही से फेंक पैर पसार कर सो गया। नोट बुक को मौका मिल गया। वह धीरे-धीरे सरकती हुई मोटी डिक्शनरी के पीछे छिप गई।  

   सुबह स्कूल जाते समय सुररी हड़बड़ाकर चिल्लाया-माँ—माँ मेरी नोट बुक नहीं मिल रही।”  

   “देख वहीं कहीं होगी। कितनी बार कहा है अपनी किताबें जगह पर रखा कर पर नहीं--- जहां काम किया वहीं छोड़ दिया।’’ 

   “ओह बहू यह बड़बड़ाने का समय नहीं । सुररी की मदद कर दे वरना बस छूट जाएगी। बस तो तेरे बेटे की छूटेगी पर हो जाएगी कवायद मेरे बेटे की। ऑफिस जाने से पहले उसे स्कूल छोड़ने जाना पड़ेगा।’’ दादी हँसते हुए बोली। 

   माँ को सुररी की मदद करने जाना ही पड़ा । उसके जाने के बाद  उसने एक गहरी सांस ली। 

   “इतनी लंबी सांस लेने की क्या जरूरत पड़ गई।’’ बाथरूम से निकलते हुए सुररी के पिता ने पूछा।   

   “न लूँ तो क्या करूँ। अब चैन जाकर मिला है। आपका बेटा तो कोई काम करता नहीं।’’ 

   “पहले उसे सिखाओ तो—तभी तो करना सीखेगा। उसकी अलमारी देखी है-- धूल से पटी! एकदम कबाड़खाना। एक बार इसमें किताब गई फिर तो खोजते ही रह जाओ। बेचारी किताबें भी अपनी किस्मत को रोती होंगी। आज तुम उसके सामने अलमारी साफ करके किताबें ठीक से लगाना। फिर वह अपनी किताबों की देखरेख खुद करने लगेगा।’’ 

   “करने से रहा। महाआलसी है।’’ 

   “न करे तो कोई बात नही! कुछ दिन तक तुम रोज किताबों की अलमारी की साज-सज्जा करो। देखना--- एक दिन उसपर जरूर असर होगा।पर मुझे एक बात का शक है!” 

   “शक! कैसा शक?”

   “यही कि तुम्हें किताब लगानी आती है या नहीं!

   “क्योंउसमें है ही क्या?”

   “मुझे मालूम है तुम कर सकती हो पर मैंने ऐसे ही पूछ लिया। तुमको न ही कभी उसकी अलमारी झाड़ते देखा और न ही लुढ़कती रबर-पेंसिल को उठाते देखा। जहां बेटा किताब छोड़ जाता है वही बेचारी लावारिस की तरह पड़ी रहती है।’’   

   ‘हूँ--किताबें लगाना बड़े झमेले  का काम है।  उन्हें ठीक करने के नाम से मेरा जी मिचलाने लगता है।’’

   “तब तुम्हारा यह काम कौन करता था!

   “मेरी माँ और कौन!” 

   “ओह अब पता लगा बेटे मेँ किसका असर आया है।’’ 

   “किसका असर आया?”माँ तुनक उठी। 

   “तुम्हारा और किसका !

   “आप तो बस मेरे दोष ही ढूंढते रहते हैं।

   “उफ नाराज हो गई। अच्छा बाबा माफ करो। मैं ही उसकी किताबें ठीक से रख देता हूँ। मैंने तो हमेशा से अपनी कॉपी-किताबें सावधानी से रखीं। तभी तो पुरानी होकर भी नई सी चमकती रहती हैं।’’   

   “अरे कहाँ चली महारानी --। थोड़ा इस काम में दिलचस्पी लो। वरना बेटे को कैसे बताओगी?  

    “मुझसे अच्छी तरह तो आप ही सिखा दोगे। मैं अभी आपके लिए गरम-गरम समोसे बना कर लाती हूँ। और हाँ,आज आपको एक ज्यादा मिलेगा।’’सुररी की मम्मी ने मीठी सी  मुस्कान बिखेरते हुए कहा। 

   “यह मेहरबानी क्यों!” 

   “स्वच्छता अभियान छेड़ कर आपने मुझे खुश कर दिया । अब आपको खुश करने की मेरी बारी है।’’

   “समोसे के नाम से तो मेरे मुंह में पानी आ गया। अब तो  मुझे ही किताबों के साथ कवायद करनी पड़ेगी।’’ सुररी के पिता भी हँस दिये। 

   किताबों की खुशी का तो ठिकाना ही न था। आपस में फुसफुसाने लगीं-“आज से तो हमारे अच्छे दिन आ गए। साफ सुथरे घर में पैर पसारेंगे और आनंद से रहेंगे।कितना अच्छा हो यदि सुररी भी अपने पिता की तरह सफाई पसंद बच्चा बन जाय। यदि वह हमारा ध्यान रखेगा तो हम भी उसका ध्यान रखेंगे।” 

   “उसे यह कौन समझाये कि हम उसके दोस्त हैं,दुश्मनों जैसा व्यवहार करना बंद करे। एक किताब ने गहरी सांस छोड़ी।

   “मैं समझा सकती हूँ।नोटबुक फिर मटकती सामने आई। 

   “तू तो उसे बहुत तंग करती है।

   “इस बार तो ऐसा तंग करूंगी कि सुररी को बदल कर रख दूँगी।बस पवन देवता मेरा साथ दे दें। वे इतनी तेजी से उड़ें कि मुझे भी अपने साथ उड़ा ले चलें।”  

   कहने भर की देर थी कि हवा वेग से बह चली। नोटबुक ने जानबूझकर अलमारी से बाहर छलाँग लगा दी। इस चक्कर में उसका एक पन्ना उससे अलग हो गया। हवा के झोंके उसे अपने साथ ले चले। सुररी ने देखा तो उसके गुम होने के डर से घबरा उठा। उसे पकड़ने पीछे-पीछे भागा। उस पन्ने पर बहुत सी खास बातें लिखी हुई थीं। हाँफते-हाँफते चिल्लाया-नोटबुक के पन्ने रुक जाओ –रुक जाओ। तुम्हारे बिना मैं स्कूल का काम कैसे करूंगा।?”

   “मैं नहीं रुकूँगा। तुम मेरा ध्यान नहीं रखते --फिर मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूँ!

   “एक बार रुक जाओ—मैं तुम्हारी हर बात मानूँगा।” 

    “मानोगे?”

    “हाँ –हाँ –मानूँगा।

   “क्या तुम मेरा और मेरे साथियों को अपना मित्र समझकर उसकी देखरेख करोगे?”

   “हाँ—हाँ करूंगा।’’

   हवा तुरंत मुसकुराती धीमी बहने लगी।नोटबुक का पन्ना दीवार से टकराकर रुक गया। सुररी की सांस में सांस आई। उसने बड़े अपनेपन से पन्ने को हाथ में थाम लिया। उस पर लगी मिट्टी को हटाकर तुरंत पन्ने को नोट बुक में गोंद से चिपकाया। नोटबुक अपनी जीत पर बड़ी खुश थी । अलमारी में बैठीं किताबें नटखट नोटबुक का लोहा मान गई। 



समाप्त 

सुधा भार्गव 

बैंगलोर