प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

शुभ दीवाली --घर -घर जन्मो राम




दीपमणियों की जगमगाहट से भरपूर दीवाली सबको बहुत

शुभ हो।


 इस अवसर पर गणेश पूजन और लक्ष्मी पूजन मंगल कारी और  सुख का झरना बहाने वाला  होता है । इसलिए बहुत  मन लगाकर बच्चों  पूजा करनी है । 
  अब हम तुम्हें एक  कहानी भी  सुनाते हैं जो बड़ी दिलचस्प और जानकारी से भरपूर है ।  


बालकहानी

घर -घर जन्मो राम /सुधा भार्गव

रामा और लाखा दो भाई थे ।उनकी माँ बहुत सोच समझकर घर चलाती थी । न खुद पैसा बेकार की चीजों को खरीदने में नष्ट करती थे और न बच्चों को करने देती थी । उनको रोज एक -एक टॉफी  देती थी  ।लाखा का एक टॉफी से जी  नहीं भरता । रामा अपने भाई को बहुत प्यार करता था ।उससे उसकी ललचाई निगाहें  नहीं देखी जातीं इसलिए अपने हिस्से की टॉफी   उसके लिए बचा कर रख देता ।

दिवाली के दिन भी भाईयों को 20 -20 रुपए के फुलझड़ी और पटाखे मिले । रामा ने कुछ फुलझड़ी और एक बम पटाखा अपने भाई के लिए रख दिया  ।




शाम होते  ही वे घर के पिछवाड़े ,मैदान में जा पहुंचे । अंधेरा होते ही लाखा ने फुलझड़ी छुटानी शुरू कर दी ।

 जल्दी ही खिसियाते बोला –
-भैया ,फुलझड़ी तो खत्म हो गई ।
-ले मेरी भी छुटा ले । रामा बोला ।

उस समय तक  उनके पड़ोस में रहने वाले बच्चे अलटू-पलटू भी आन धमके थे  । वे ऊंची हवेली के रहने वाले थैला भरकर पटाखे लाये । 
उनकी बात सुनकर पलटू ज़ोर से हंसा –
-अरे दो-चार पटाखों से क्या होता है । ये देख-- मेरे पटाखे !झोला भरकर हैं । अब होगा इनका तमाशा –बिन पैसे का तमाशा ।



पलटू ने एक पटाखे में दियासलाई से आग लगाई और ज़ोर से हवा में उछालकर रामा की ओर फेंका । वह तो बाल –बाल बच गया वरना बुरी तरह झुलस जाता ।
-देखा –पटाखे के साथ साथ तुम भी कैसे उछल रहे हो ,बड़ा मजा आरहा है । 
एक जलती      



बमलड़ी उसने नाजुक से पिल्ले पर फेंक दी जो सड़क के किनारे बैठा था । वह जख्मी हो गया और बिलबिलाता वहाँ से भागा ।
अलटू भी फुदकने लगा –वाह भैया वाह !क्या निशाना मारा  है !
रामा को पलटू की यह बात अच्छी न लगी ।
-तुमने पिल्ले को जलाकर ठीक नहीं किया । उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ।
-जले तो जले ...मेरा क्या जाता है । और भी कोई जलेगा तो बड़ा आनंद आयेगा  ----फिरकनी की तरह घूमेगा वह तो।


रामा ने उस बिगडैले हाथी से झगड़ा मोल लेना ठीक न समझा। लाखा का हाथ पकड़ते हुए बोला –
-भैया ,यहाँ से चलो , ऐसे दुष्टों के साथ रहना ठीक  नहीं ।ऐसे ही लोगों के कारण झोपड़े जलकर राख़ हो जाते हैं और बेचारे गरीब की दिवाली आंसुओं में डूब जाती है।    


-कहाँ जा रहे हो ?मैं जाने दूँ तब न –कहकर पलटू ने पटाखा इस प्रकार उछाला कि ठीक रामा –लाखा के सामने जाकर पड़ा ।

लाखा जलते –जलते बचा । उसके साहस को देखकर रामा  हक्का–बक्का रह गया । उसे गुस्सा भी ज़ोर से आया । उसने झपटकर पलटू से झोला छीन लिया और पास के तालाब में फेंक दिया ।
पलटू उसे मारने दौड़ा ।
-खबरदार जो हाथ उठाया । हम किसी से झगड़ा नहीं करते लेकिन हमारा कोई नुकसान करे यह हम सह नहीं सकते । अपना बचाब भी करना जानते हैं । तुम्हारे पटाखे से मेरा भाई जल जाता तो ...... । मैं अपने भाई की रक्षा करना खूब  जानता हूँ ।
पलटू का पहला मौका था जो इस तरह से उससे बातें हुईं वरना सब साथी उससे डरते थे । वह बेमन से एक के बाद एक पटाखे छोड़ने लगा ।

-अरे सब खत्म कर दोगे ---मुझे भी तो दो । उसका छोटा भाई अलटू चिल्लाया ।
-मैं तुम्हें एक भी नहीं दूंगा । ज्यादा चिल्लाया तो अभी पटकियाँ खिला दूंगा ।



दोनों बम की तरह बम -बम कर रहे थे । 
रामा –लाखा दोनों को झगड़ता छोड़ अपने घर चल दिये । दीवाली –पूजन का समय  भी हो गया था ।

ज़्यादातर घर नई दुल्हन की तरह सजे थे । पर रामा का घर मोमबत्तियों से सजा था । 


थाली में रखी  रूई की बत्तियाँ तेल में भीगी मंद –मंद हँसती रोशनी दे रही थीं ।दीपों को देखते  ही लाखा उन्हें जलाकर रखने लगा । 




 पलटू का भवन लाल नीले ,पीले बिजली के लट्टुओं से सजा अलग ही छ्टा दिखा रहा था । अचानक बिजली चली गई । पलटू का घर अंधकार में डूब गया लेकिन दीयों -मोमबत्तियों वाला घर सूरज जैसी चमकीली रोशनी से भरा हँस रहा  था ।

-माँ !माँ दीपों की माला कितनी सुंदर लग रही है। लाखा प्रसन्न हो तालियाँ बजाने लगा।
--हाँ बेटा !असली दीवाली यही है । चौदह वर्ष के बनवास के बाद जब राम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे तो वहाँ के रहने वालों ने जगह –जगह दीपक जला कर खुशियाँ  व्यक्त की ।


सीता -राम -लक्ष्मण
 बिजली के लट्टुओं का जन्म तो बहुत बाद में हुआ ।

-ये राम कौन थे ?रामा ने पूछा । 
-राम !अपने माँ-बाप  की बात बहुत मानते थे ।छोटोंको प्यार करते थे ।रावण जैसे  बुरे लोगों से अच्छे लोगों को बचाते थे ।
-माँ,आज मैंने भी अपने भाई को बचाया ।
-तू मेरा राम ही तो है । माँ का प्यार उमड़ पड़ा जिसका धन ये दो पुत्र ही थे ।
-मगर माँ ,पलटू बहुत बुरा है ।
-बेटा बुरे को बुरा कहने से बुराई का अंत नहीं होता । तुम लोगों के साथ रहकर वह जरूर अच्छा हो जाएगा ।अपने अच्छे बर्ताव से उसका दिल बदल दो ।

उन्होंने बड़े प्रेम से गणेश –लक्ष्मी की पूजा की ,राम सीता और उनके छोटे भाई लक्ष्मण के आगे सिर झुकाया और प्रार्थना शुरू की -- 


  
विनती सुन लो  हे रघुराई
दुष्टों ने बड़ी धूम मचाई
घर में रोती अच्छाई
बाहर मुसका रही बुराई।
  
इसे मार भगाना है
इससे हमें बचाना है
हमको खूब पढ़ा दो राम
शक्ति हम में भर दो राम ।

बड़े –बड़े हम काम करेंगे
रावण को नहीं जीने देंगे
दुनिया में हम यश पाएंगे
 पर तुम्हें  नहीं भुलाएंगे,

जय बोलो ,ज़ोर से  बोलो
जय –जय  भगवान की ।

प्रार्थना के स्वरों और घंटी की आवाज से हवा में एक संगीत सा घुल गया । 
अलटू-पलटू अपने घर के अंधकार को चीरते हुए रामा और लाखा के घर की ओर खिंचे चले आए । प्रार्थना खतम होने के बाद रामा –लाखा ने जब पलटकर देखा तो चकित हो गए -पड़ोसी भाई  हाथ जोड़े खड़े थे ।लगता था वे अपने बुरे व्यवहार की क्षमा मांग रहे हों । प्रसन्न हो रामा ने पलटू को और लाखा ने अलटू को गले लगा लिया ।
सच में बुराई पर अच्छाई की जीत हो गई।

  


सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

जातक कथा -4

http://www.garbhanal.com/Garbhanal%2083.pdf

 मासिक पत्रिका  गर्भनाल के अक्तूबर अंक में भी इस बार  पढ़िये जातक कथा -टूटी डोर 



टूटी डोर /सुधा भार्गव

एक राजा था । धार्मिक कामों को  कराने वाला उसका पुरोहित बहुत होशियार था । एक बार राजा ने प्रसन्न होकर सजा –सजाया एक घोड़ा उसे भेंट किया । वह जब भी उस पर बैठकर राजा के दरबार में जाता , लोग घोड़े की प्रशंसा किए न अघाते । इससे उसका मुख कमल की तरह खिल जाता । एक दिन उसने बड़े सरल भाव से अपनी पत्नी से कहा –सब लोग हमारे घोड़े की सुंदरता का बखान करते हैं । उस जैसा दूसरा कोई घोड़ा नहीं ।

पत्नी ठीक अपने पति के विपरीत थी । उसके हृदय छल –लपट से भरा हुआ था । अपने पति की भी सगी न थी । वह हँसते हुए बोली –घोड़ा तो अपने साज –श्रंगार के कारण सुंदर लगता है । उसकी पीठ पर लाल मखमली गद्दी है । माथे पर रत्न जड़ित पट्टी पहने हुए है और गले में मूँगे -मोतियों की माला ।
तुम  भी उसकी तरह सुंदर लग सकते  हो और तुम्हें  प्रशंसा  भी खूब मिलेगी अगर उसी का साज पहन लो और घोड़ी की तरह घूमते –इठलाते कदम रखो ।

पत्नी की बात का विश्वास करके उसने वैसा ही किया और राजा से मिलने चल दिया । रास्ते में जो –जो उसे देखता –हँसते –हँसते दुहरा हो जाता  और कहता  –वाह पुरोहित जी क्या कहने आपकी शान के ,सूरज की तरह चमक रहे हैं ।
राजा तो पुरोहित को देख  बौखला उठे – अरे ब्राहमन देवता –तुम पर पागलपन का दौरा पड़ गया है क्या ?घोड़े की तरह हिनहिनाते –चलते शर्म नहीं आ रही !सब लोग तुम्हारा मज़ाक उड़ा रहे हैं । अपना मज़ाक उड़वाने का अच्छा तरीका ढूंढ निकाला है । 

पुरोहित जी को काटो तो खून नहीं । उन्हें तो कल्पना भी नहीं थी कि जिस औरत को वे अपने प्राणों से भी ज्यादा चाहते हैं वह उनकी इज्जत के साथ ऐसा खिलवाड़ करेगी । वे अंदर ही अंदर उबाल खा रहे थे ।
राजा को समझते देर न लगी कि बेचारा पुरोहित अपनी पत्नी के हाथों मारा गया ।
उसको शांत करते हुए बोले-औरत से गलती हो ही जाती है । उसे क्षमा कर दो । रिश्तों की डोर को तोड़ने से कोई लाभ नहीं । दरार पड़ते ही उसे जोड़ देना चाहिए ।
-महाराज ,एक बार डोर टूटने से जुड़ती नहीं ,अगर जुड़ भी गई तो निशान तो छोड़ ही जाती है । अपनी पत्नी के साथ रहते हुए  मैं कभी भूल नहीं पाऊँगा कि उसने मेरा विश्वास तोड़ा है और इस बात की भी क्या गारंटी कि वह भविष्य में मेरा मज़ाक उडाकर अपमानित नहीं करेगी  । ऐसी औरत के साथ न रहना ही अच्छा है ।

राजा को पुरोहित की बात ठीक ही लगी । कुछ दिनों के बाद उसने दूसरी औरत से शादी कर ली और पहली पत्नी को घर से निकाल दिया । 

* * * * *   


रविवार, 15 सितंबर 2013



http://www.hindisamay.com/writer/writer_details_n.aspx?id=1635

महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का अभिक्रम

हिन्दी समय पर इस हफ्ते पढ़िए मेरी  तीन  बाल कहानियाँ --

१-मूर्खता की नदी 

-महागुरू 


३ -लपक लड्डू 


1-मूर्खता की नदी
एक लड़का था। उसका नाम मुरली था। वह वकील साहब के घर में काम करता । वकील साहब ज़्यादातर अपना समय लाइब्रेरी में बिताया करते।वहाँ अलमारियों में छोटी-बड़ी,पतली-मोती किताबों की भीड़ लगी हुई थी।
मुरली को किताबें बहुत पसंद थीं मगर वह उनकी भाषा नहीं समझ पाता। खिसियाकर अपना माथा खुजाने लगता। उसकी हालत देख किताबें खिलखिलाकर हंसने लगतीं। 
एक दिन उसने वकील साहब को मोंटी सी किताब पढ़ते देखा Iउनकी नाक पर चश्मा रखा था और   जल्दी -जल्दी उसके पन्ने पलट रहे थे I
कुछ सोचकर वह कबाड़िया की दुकान पर गया जहाँ पुरानी और सस्ती किताबें मिलती थीं
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चाचा मुझे बड़ी से ,मोटी  सी किताब दे दो Iउसने कहा ।
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किताब का नाम ?
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कोई भी चलेगी I
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कोई भी चलेगी ....कोई भी दौड़ेगी ......!तू अनपढ़ ...किताब की क्या जरूरत पड़ गई I
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पढूंगा  I
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पढ़ेगा---- !चाचा की आँखों से हैरानी टपकने लगी  i
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कैसे पढ़ेगा ?
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बताऊँ ...I
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बता तो ,तेरी खोपड़ी में क्या चल रहा है I
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बताऊँ ..बताऊँ ...I
मुरली धीरे से उठा ,कबाड़िया की तरफ बढ़ा और उसका चश्मा खींचकर भाग गया  I
भागते भागते  बोला --चाचा ..चश्मा लगाने से सब पढ़ लूंगा Iमेरा मालिक ऐसे ही पढ़ता है  I २-३ दिन बाद तुम्हारा चश्मा,और किताब लौटा जाऊँगा  I

वकील साहब की लायब्रेरी में ही जाकर उसने दम लिया I कालीन पर आराम  से बैठ कर अपनी  थकान मिटाई I चश्मा लगाया  और किताब खोली I
किताब में क्या लिखा है ...कुछ समझ नहीं पाया  I उसे तो ऐसा लगा जैसे छोटे  -छोटे काले कीड़े हिलडुल रहे हों I कभी चश्मा उतारता,कभी आँखों पर चढ़ाता I

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क्या जोकर की तरह इधर-उधर देख रहा है I चश्मा भी इतना बड़ा  .....आँख -नाक सब ढक गये ,चश्मा है या तेरे मुँह  का ढक्कन किताब  ने मजाक उड़ाया I
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बढ़ -बढ़ के मत बोल I इस चश्मे से सब समझ जाऊंगा तेरे मोटे से पेट में क्या लिखा है I
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अरे मोटी  बुद्धि के - - चश्मे से नजर पैनी होती है बुद्धि नहीं  I  बुद्धि तो तेरी मोटी ही रहेगी I धिल्ला भर मुझे नहीं पढ़ पायेगा।  

मुरली घंटे भर किताब से जूझता रहा पर कुछ उसके पल्ले न पड़ा  I झुंझलाकर  किताब मेज के नीचे पटक दी I
रात में उसने लाइब्रेरी में झाँका । देखा -- मालिक के हाथों में पतली सी किताब है I बिजली का लट्टू चमचमा रहा है और उन्होंने चश्मा भी नहीं पहन रखा है I
मुरली उछल पडा --रात में तो मैं  जरूर --पढ़ सकता हूं I चश्मे की जरूरत ही नहीं I

सुबह होते ही वह किताबों की  दुकान पर जा पहुँचा I
-
लो चाचा अपनी किताब और चश्मा I मुझे तो पतली सी किताब दे दो  I लट्टूकी रोशनी में चश्मे का क्या काम है I
बिना चश्मे के कबाड़ी देख नहीं पा रहा था I उसे पाकर बहुत खुश हुआ बोला -
-
तू एक नहीं  दस किताबें ले जा पर खबरदार ---मेरा चश्मा छुआ तो......|

मुरली ने चार किताबें बगल में दबायीं I झूमता हुआ वहाँ से चल दिया  I घर में जैसे ही पहला बल्ब जला उसके नीचे किताब खोलकर बैठ गया I पन्नों के कान उमेठते -उमेठते उसकी उँगलियाँ दर्द करने लगीं पर वह एक अक्षर न पढ़ सका I
कुछ देर बाद लाइब्रेरी में रोशनी हुई I मुरली चुपके से अन्दर गया और सिर झुकाकर बोला -मालिक आप मोटी किताब के पन्ने पलटते हो उसमें क्या लिखा है --सब समझ जाते हो क्या ?
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समझ तो आ जाता है । क्यों ?क्या बात है ?
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मैं मोंटी किताब लाया ,फिर पतली किताब लाया मगर वे मुझसे बातें ही नहीं करतीं I
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बातें कैसे करें !तुम्हें तो उनकी भाषा आती नहीं  I भाषा समझने के लिए उसे सीखना होगा  I सीखने के लिए मूर्खता की नदी पार करनी पड़ेगी I
--
नदी --I
-
हाँ ,,,Iअच्छा बताओ ,तुम नदी कैसे पार करोगे ?         
  -हमारे गाँव में एक नदी हैI एक बार हमने  देखा छुटकन को नदी पार करते I किनारे पर खड़े होकर जोर से उछल कर वह नदी में कूद गया Iमुरली बोला ।
-
तब तो तुम भी नदी पार कर लोगे I
-
अरे हम कैसे कर सके हैं  Iहमें तैरना ही नहीं आता  - - ड़ूब जायेंगे  I
-
तब तो तुम समझ गये --नदी पार करने के लिए तैरना आना जरूरी है I
-
बात तो ठीक है I
-
इसी तरह मूर्खता की नदी पार करने के लिए पढ़ना  जरूरी हैIपढ़ाई की शुरुआत भी  किनारे से करनी होगी  Iवह किनारा कल दिखाऊंगा I

कल का मुरली बेसब्री से इन्तजार करने लगा I उसका उतावलापन टपका पड़ता था I
-
माँ ---माँ ,कल मैं मालिक के साथ घूमने जाऊँगा
-
क्या करने !
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तूने तो केवल नदी का किनारा देखा होगा ,मैं पढ़ाई  का किनारा देखने जाऊँगा I
माँ की  आँखों में अचरज  झलकने लगा I

दूसरे दिन मुरली जब अपने मालिक से मिला,वे लाईब्रेरी में एक पतली सी किताब लिए बैठे थे I मुरली को देखते ही वे उत्साहित हो उठे --
-
मुरली यह रहा तुम्हारा किनारा !किताब को दिखाते हुए बोले I
-
नदी का किनारा तो बहुत बड़ा होता है ---यह इतना छोटा !इसे तो मैं एक ही छलांग में पार कर लूंगा I
-
इसे पार करने के लिए अन्दर का एक -एक अक्षर प्यार से दिल में बैठाना होगा  I इन्हें याद करने के बाद दूसरी किताब फिर तीसरी किताब - - - -|
-
फिर मोंटी किताब ---और मोंटी किताब --मुरली ने अपने छोटे -छोटे हाथ भरसक फैलाये I
कल्पना के पंखों पर उड़ता वह चहक रहा था  Iथोड़ा थम  कर बोला --
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क्या मैं आपकी तरह किताबें पढ़ लूंगा ?
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क्यों  नहीं !लेकिन  किनारे से चलकर धीरे -धीरे गहराई में जाओगे I फिर कुशल तैराक की तरह मूर्खता की नदी पार करोगे  Iउसके बाद तो मेरी किताबों से भी बातें करना सीख जाओगे I

मुरली ने एक निगाह किताबों पर डाली वे हँस-हँसकर उसे अपने पास बुला रही थीं I लेकिन मुरली ने भी निश्चय कर लिया था -किताबों के पास जाने से पहले उनकी भाषा सीख कर ही रहूँगा I

वह बड़ी लगन से अक्षर माला पुस्तक खोलकर बैठ गया तभी सुनहरी किताब परी की तरह फर्र -फर्र उड़कर आई |
बोली --मुरली , तुम्हें पढ़ता देख कर हम  बहुत खुश हैं I अब तो हँस -हंसकर गले मिलेंगे और खुशी के गुब्बारे उड़ायेंगे
मुरली के गालों पर दो गुलाब खिल उठे और उनकी महक चारों तरफ फैल गई |

              2-महागुरू 
गर्मी के दिन थे सूरज अपने ताप पर था ।ऐसे समय मेँ एक लड़का पेड़ की छाया  में  बैठा ठंडी ठंडी हवा खाकर मस्त था ।केवल एक पाजामा पहने हुये था और धूप से बचाने के लिए सिर को तौलिये से ढक रखा था ।
संयोग से वहाँ का राजा किसी काम से उधर ही आ निकला ।लड़के को देखकर वह ठिठक गया ।उसके पास एक टीन का डिब्बा था ।उसमें से वह एक-एक मूंगफली निकालता ,उसे छीलता। किसी में दो दाने  निकलते ,किसी में तीन ।वह खुशी में आकर उन्हें हथेली पर रख कर उछालता फिर उन्हें लपकता ।बड़े हँसते हुए हाथ नचा -नचा कर  कहता -
-चल मेरी मूंगफली
 चल मेरे मुंह  में
चबा -चबा कर खाऊँगा `
भुर्ता  तुझे  बनाऊंगा 
खाली पेट बुलाऊं तुझको 
अपनी भूख मिटाऊँगा ।
लड़का एक बार में एक ही दाना खाता पर बहुत धीरे -धीरे ।जब वह उसे निगल लेता तो दूसरा दाना उँगलियों के बीच दबाकर पहले गाता फिर उसे इतराते हुए जीभ पर रखता और चबाना शुरू करता ।


-बालक तुम तो बड़े अजीब हो दाने खाने में इतना समय लगा रहे हो ।इससे तो अच्छा है दो -तीन दाने  एकसाथ मुंह में रखकर चबा डालो ।गाना गाना ही है तो चबाते -चबाते भी गा सकते हो ।खाने में कितना समय बर्बाद कर रहे हो ।
-लड़के ने ऊपर से नीचे राजा को घूर कर देखा और बोला
श्रीमान आप महलों में रहने वाले --- मेरी बात समझ नहीं पाएंगे।आपने भूख नहीं देखी है । भूख  की खातिर तो न जाने लोग क्या -क्या करते हैं ,मैं तो केवल समय ही नष्ट कर रहा हूँ वह भी अपना ।
तब भी  आपको समझाने की कोशिश करता हूँ ।
मैं सुबह से भूखा हूँ ।एक एक करके दाने  निकालने खाने और गाने में समय तो लगता है पर उतनी देर मुझे भूख नहीं लगती।गाना गाकर मैं अपने सब दुःख भूल जाता हूँ और भूल जाता हूँ कि मूंगफली ख़तम हो जाने के बाद क्या खाऊँगा ।  
अब आप ही बताइए क्या मैं गलत करता हूँ । 


-तुम तो बहुत चतुर हो।तुमसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ।बोलो,मेरे साथ चलोगे।
-हा हा !आप तो मजाक करते हैं मैं खुली हवा मेँ रहने वाला पंछी !महल  तो मेरे लिए कैदखाना है कैदखाना ।चंद आराम के लिए मैं अपनी आजादी नहीं खो सकता 
-जब इच्छा हो तब यहाँ चले आना ,इसमें क्या मुश्किल है !
-अच्छा ---चलता हूँ ,देखता हूँ आपके साथ मेरा क्या भविष्य है ?
लड़का ठहरा बातूनी !एक बार इंजन चालू हुआ तो चालू !महल तक का रास्ता पार करना उसके लिए मुश्किल हो रहा था 
सो पूछ बैठा--  आप मुझसे कुछ सीखना चाहते हैं ।
-बिलकुल ठीक कहा !
-इसका मतलब मैं आपका गुरू हुआ ।
-गुरू ----गुरू नहीं महागुरू ।राजा ने हाथ जोड़ दिये ।
महल मेँ पहुँचते ही राजा को  लड़के के साथ दरबार मेँ जाना पड़ा ।आदत के अनुसार राजा  सिंहासन पर बैठ गया ।लड़का 2मिनट तो खड़ा रहा फिर तपाक से बोला वाह महाराज !यहाँ आते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लिया।अपने गुरू को ही भूल गए ।
राजा बहुत शर्मिंदा हुआ ।तुरंत अपने सिंहासन से उतर पड़ा । चिल्लाकर सेवक से कहा - मेरे से भी ऊंचा सिंहासन जल्दी से लेकर  आओ ।
पलक झपकते नौकर कुर्सी लेकर हाजिर हो गया 
-बैठिए बालगुरू ।राजा ने बड़ी शालीनता से कहा ।
-बस महाराज !मैं चलता हूँ फिर आऊँगा ।आज का पाठ पूरा हुआ ।आपको मालूम हो गया कि गुरू का स्थान क्या होता है ।
बालगुरू चल दिया ।राजा सोच रहा था यह बालक छोटा होते हुये भी मुझसे बहुत बड़ा है।
एक पल में ही इसने  मुझे बहुत कुछ सिखा दिया ।.
समाप्त
-
            3-लपकलड्डू

एक पेड़ पर कबूतर रहता था  सुबह होते ही वह पारस के आँगन में गुटर -गुटर करने लगता । पारस को वह सुंदर कबूतर बड़ा अच्छा लगता । वह रुई की तरह सफेद था । पंख भी बड़े चिकने थे। पारस की उम्र पाँच वर्ष ही थी । उसे घर से अकेले नहीं निकलने देते थे । उसके हाथ छोटे छोटे थे । पैर भी छोटे थे । बड़ों की तरह वह भाग नहीं सकता था। लेकिन उसे कबूत र के पीछे भागने में मजा आता था ।

एक दिन पारस भी गुटर -गूँ करने लगा । कबूतर ने सोचा --वह उसकी नक़ल कर रहा है।  उसे बहुत बुरा लगा । जल्दी वह उड़ा और अपनी पैनी चोंच पारस की हथेली में चुभो दी।   हथेली से खून की पिचकारी छूट पडी । पारस के बहुत दर्द होने लगा । उसकी गोलमटोल आंखों में मोटे -मोटे आंसू आ गये । कबूतर भी घबरा गया । उसे ख्याल ही नहींं आया था कि खून भी बह सकता है ।

वह नदी के किनारे गया .चोंच में ठंडा पानी भरा।ऊंचाई से एक -एक बूंद पारस की हथेली पर सावधानी से टपकाने लगा । ठंडक से खून थम गया । पारस को उदास देखकर कबूतर को अपने ऊपर गुस्सा आने लगा 

उसनेसोचा ----बदले की आग में जलकर उसने छोटे से बच्चे को बहुत कष्ट पहुंचाया । उसकी समझ में अब यह नहीं आ रहा था कि उसे कैसे खुश करे ।
वह शहर की ओर उड़ चला । उसने वहां हलवाई देखा जो बूंदी के लड्डू बना रहा था. उसकीखुशबू हवा में घुल गई थी । उसने एक लड्डू अपनी चोंच में दबाया और पारस की हथेली पर गिराना चाहा। हवा को शैतानी सूझी ,वह गोलाई में घूमी । अपने साथ लड्डू को भी घुमाने लगी । पारस ने लड्डू को लट्टू समझा । वह अचरज में पड़ गया । उसने लट्टू को गोल -गोल जमीन पर तो घूमते देखा था हवा में नहीं।
उसने लपक कर लड्डू को पकड़ लिया । मुट्ठी में कसकर भींचने लगा कहीं छूट न जाये उसकी पकड़ से ।
-अरे --रे –यह तो लड्डू है । फूट भी गया ।
-
कबूतर चिल्लाया --गुटर गूँ ,गुटर गूँ । पारस उसकी भाषा समझ गया । वह कह रहा था खाओ--खाओ !

पारस ने नहीं खाया । वह उसे कबूतर के साथ खाना चाहता था !
उसने मीठा लड्डू उसकी ओर बढ़ा दिया । कबूतर ने अपनी गर्दन जोर से हिलाई और बोला ' -मैं नहीं खाऊंगा वरना लड्डू की तरह गोल हो जाऊँगा ।'
पारस के चेहरे पर हँसी फर्राटे से दौड़ पड़ी !
कबूतर खुशी से नाचने लगा -' लगता है तुमने मुझे माफ कर दिया है । अब लड्डू खाऊंगा।
दोनों  मगन हो हिलमिलकर खाने लगे 
समाप्त