प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

रविवार, 4 सितंबर 2016

उत्सवों का आकाश

8-गणेश चतुर्थी 
प्यारे -प्यारे बच्चों को और बड़ों को   मंगलमय हो ।
कल भी  ,आज भी  और कल भी |
मतलब --पूरे वर्ष 


आओ 
एक साथ दिल से बोलें ----
एक -दो -तीन -चार 
गणपति की जयजयकार।
पाँच -छह- सात -आठ 
गणपति करते मालामाल।
नौ- दस -ग्यारह- बारह 
हरते कष्ट बारम्बार।
तेरह- चौदह- पन्द्रह -सोलह 
गणपति हैं सबसे भोले ।
सत्रह- अठारह -उन्नीस- बीस 
गणपति रहते हमारे बीच ॥

 बच्चों, तुम्हारी जान पहचान कुछ तो गणपति(गणेश ) जी से  हो गई है पर  अभी डमरू के दोस्त से मिलना बाक़ी है |

तुम भी जरा सोचो डमरू  का दोस्त कौन हो सकता है  !
नहीं दिमाग में आया ----चलो ---हम बताते हैं |

डमरू कल अपनी माँ के साथ पूजा पंडाल गया।वहाँ उसकी मुलाकात गणेश जी से हुई । पहले पहल तो वह उनको देखकर डर गया 
-लम्बी सी सूढ़ .मोटा सा पेट ,लम्बे नुकीले वह भी दो बड़े दांत ! दरवाजे से ही वह तो भागा बाहर की ओर ------



गणेश जी भी उसका पीछा छोड़ने वाले कब थे  ।उन्होंने तुरंत अपनी सूढ़ लम्बी करके उसे लपेट लिया और  ले आये अपने पास।

बोले ---डरो नहीं बच्चे ,लो यह लड्डू खाओ --मुझे लड्डू बहुत
पसंद हैं ।
 -नहीं, मैं नहीं खाऊँगा  ।मेरा पेट भी तुम्हारे पेट की तरह लड्डू हो जायेगा।
-हा ---हा ---हा !तुम तो बहुत हँसाते हो  । एक लड्डू से कुछ नहीं होता ।मैं तो कटोरा  भरकर लड्डू खाता हूं।
-बाप रे --!डमरू आश्चर्य से अपनी आँखें झपकने लगा लेकिन उसका डर जाता रहा।

डमरू गणेश  जी के पास खिसक आया।उनका सिर छूते हुए बोला --
--तुम्हारा सिर हाथी सा क्यों  है ?
-तुमने सुना नहीं ---सिर बड़े  सरदारों के ,पैर बड़े  गवांरों के ,तो समझ लो हाथी की तरह मैं बहुत बुद्धिमान हूं।

--और यह इतनी लम्बी सूढ़ ! किस काम की ----न जाने चलते भी कैसे हो । मुझे तो आफत की पुड़िया लगती है।
--यह आफत की पुड़िया नहीं --आफत भगाने की पुड़िया है । कदम बढ़ाने से पहले ही इससे सूँघ कर पता  लगा लेता हूं कि आगे कोई खतरा तो नहीं ---!

-तुम्हारे कान कहाँ है ?सुनते कैसे  हो ----कान तो तुम्हारे हैं ही नहीं हा --हा ।
-पंखों से ही मेरे कान हैं  ।दूसरों की बातें मैं बहुत ध्यान से सुनता हूं और कान  में बंद करके उन्हें निकलने नहीं देता ।
--मैं तो अपने मम्मी -पापा की बातें एक कान से सुनता हूं और दूसरे कान से निकाल देता हूं ।
-यह आदत ठीक नहीं । इससे तुम्हारा नुकसान ही होगा।
--तुमभी कहाँ ठीक से सुनते हो। तुम्हारी मम्मी जरूर कहती होंगी --गणेशा कम खाओ --कम खाओ जिससे पेट पिचक जाये।
-यह पिचक तो सकता ही नहीं है । मैं दूसरों की  बातों को अपने पेट में रखता हूं और अपनी बातें किसी को बताता नहीं।
वे भी मेरे पेट में समाई  रहती है  ।इससे पेट फूल जाता हैं
 ।

--तुम तो बहुत चतुर हो-- दुनिया का  भेद पा लिया और अपना भेद किसी को नहीं दिया , लेकिन इससे क्या फायदा !
-फायदा यही  कि  दुश्मन हो या दोस्त -मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
जब तुम बड़े हो जाओगे और अपना कोई काम(व्यापार) शुरू करोगे ,तब मेरी बातें समझ में आयेंगी।
--हां याद आया---दुकानमें तुम्हारी बड़ी सी फोटो लगी है। सुबह -सुबह सबसे पहले पिताजी तुम पर  फूलमाला चढ़ाते हैं ,पूजा करते है------
जय गणेश जय गणेश
जय गणेश देवा--
---------------

-तुम तो सच में गणेश देवा हो !
-तुम्हारे लिए मैं केवल गणेश हूं --तुम्हारा दोस्त ।


एकाएक माँ की आवाज आई --अरे डमरू --!कहाँ गया ?                         
--घर में पूजा का समय हो गया ।
डमरू चलने-चलते बोला ---
-दोस्त अब कब मिलेंगे ?
-जब याद करोगे मुझे अपने पास पाओगे । मैं अपने चाहने वालों को बहुत प्यार करता हूं।

डमरू  की आंखों में अपने दोस्त की प्यारी  छवि थी  और अपनी माँ के साथ मग्न होकर गा रहा था ---
जय गणेश जय गणेश

जय गणेश देवा  
माता जाकी  पार्वती
पिता महादेवा |
* * * * * * * 

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

उत्सवों का आकाश

7-कृष्णोत्सव 

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नन्हें-मुन्नों ,आज जन्माष्टमी है । कुछ ही देर में बालगोपाल (कृष्ण)का जन्म हो जाएगा। हम उनके इंतजार में आँखें बिछाए बैठे है।जैसे तुम अपना जन्मदिन केक काटकर मनाने लगे हो उसी तरह उनके जन्मदिवस को हर्षोल्लास के साथ मनाने के लिए घर -घर हलुआ, पूरी ,खीर ,पूरी -कचौड़ी पहले से ही बन चुके हैं। पहले उनका भोग लगेगा फिर घर के लोग खाएँगे।  इस मौके पर मुझे एक कहानी याद आ रही है --नाम ?हाँ ,नाम है 
   
                          मीठी खीर

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सारंगी की दादी ने 80 वर्ष पार कर लिए थे। छड़ी के सहारे ठक -ठक करती धीरे- धीरे चलती थीं। आज जैसे ही वह घर में घुसा अपनी दादी को रसोई में खड़ा देख उछल पड़ा-
-मेरी प्यारी दादी तुम रसोई में ,आह आज तो तुम्हारे हाथ का समोसा खाने को मिलेगा । कितने दिन हो गए तुम्हारे हाथ का खाए हुए।
-अरे क्यों तंग करता है माजी को । समोसा बाजार से आ जाएगा।
-ओह माँ !कैसे बताऊँ तुम्हें। दादी के हाथ के बने खाने का स्वाद ही कुछ दूसरा है।एक की जगह दो खा जाता हूँ।
-अरे बहू ,काहे को मेरे पोते का मन छोटा करने में लगी हो। अभी तो मुझमें इतनी शक्ति है कि उसे दो समोसे बना सकूँ।
-अच्छा दादी समोसा फिर कभी---। बहुत थकी थकी लग रही हो। बस यह बता दो आज क्या बनाया है।
-अरे सारंगी,आज तो खीर बनाई है वह भी  किशमिश डालकर। चाटता ही रह जाएगा। 
-तो देरी किस बात की है। मुझे दे दो न मीठी खीर भरा कटोरा ।
-तुझे अभी नहीं मिलेगी। आज जन्माष्टमी है। बालगोपाल का जन्मदिन। हजारों वर्ष पहले रात के बारह बजे उनका जन्म हुआ था। उनकी याद में तब से लोग अब तक जन्मदिवस मनाते चले आए हैं।  पहले उनको खीर चटाई जाएगी  फिर कोई दूसरा खा सकता है। माँ के माथे पर बल पड़ गए।
-बाप रे इतने साल से उनकी वर्षगांठ मनाते हैं। कोई उन्हें भूला नहीं।
-माना वे बहुत नटखट थे पर तब भी सबके प्यारे थे। अपनी मीठी बातों से माँ यशोदा और दोस्तों का मन मोह लेते थे। यही नहीं बड़े होने पर उन्होंने सबकी सहायता की और बुरे काम करने वाले दुष्टों से लोगों को बचाया। ऐसे लोगों को कोई भूला जाता है।  
-पर रात के बारह बजे –तब तक तो मैं सो भी जाऊंगा। दादी माँ तुम ही कुछ करो न।
-बहू, क्यों तरसा रही है मेरे सारंगी को। मेरा बाल गोपाल तो यही है। ऐसा कर ,तू अपने गोपाल की खीर एक कटोरी में पहले निकाल ले तब मेरा कन्हैया खा लेगा।

तभी दरवाजा भड़भड़ा उठा। सारंगी  की माँ ने दरवाजा खोला। फटे-पुराने कपड़े पहने एक बच्चे को खड़ा देख हड़बड़ा उठी -- तू कहाँ से आ गया! कृष्ण की पूजा तो हुई नहीं!उससे पहले तुझे खाने को कैसे दे दूँ।
 दादी माँ तो बुरी तरह भड़क उठी- काम न धाम --आज के दिन भी मुंह उठाए भीख मांगने चला आया। आग लगे ऐसे पेट को।
-माई ,मैं भिखारी नहीं। यह आधा गिलास दूध और थोड़े से चावल है। मेरी खीर बना दे।
-घर में क्या काम कम है जो तेरी खीर बनाने बैठूँ। सुबह से काम करते कमर टूट गई।भाग जा यहाँ से।
- माई तेरे हाथ जोड़ूँ । मेरी माँ ने भी  व्रत कर रखा है पर गिर जाने से उससे उठा भी न जा रहा। माई मेरी, खीर बना दे --। वह भी तो बिना भोग लगाए कुछ न खा सके।
-एक बार कहा न खीर नहीं बन सकती। बहरा है क्या। माँ शेरनी की तरह दहाड़ी।  
बच्चा उदास होकर पेड़ के नीचे जा बैठा। सारंगी को माँ और दादी की बात अच्छी न लगी।

लड़के के जाते ही सारंगी का दिमाग बड़ी तेजी से काम करने लगा और चहका –अरे दादी माँ ,मुझे खीर तो दो। भूख के मारे मेरा तो पेट एकदम पिचक गया।
उसकी पुकार सुन दादी माँ अपने को रोक न सकी और अपने लाडले को खीर का भरा
कटोरा थमा दिया।
वह माँ-दादी की आंखों से बचता -बचाता उस बच्चे के पास जा पहुंचा जो पेड़ के नीचे बैठा हुआ था।
उसने पूछा -
-तुम्हारा नाम क्या है?
-माँ मुझे प्यार से कबीरा कहती है।
-लाओ मैं तुम्हारी खीर बना देता हूँ।
-तुम ,तुम खीर कैसे बना सकते हो? खीर तो चूल्हे पर बनती हैं।
-जादू से चुटकी में बना दूंगा। पहले चावल की कटोरी और गिलास दो। फिर दिखाता हूँ अपना जादू।
-सच में तुम जादू से मेरी  खीर बना दोगे। हैरत भरी निगाहों से कबीरा उसे ताकने लगा।
-हाँ कह रहा हूँ न,बना दूंगा। मैं तुमसे बड़ा हूँ इसलिए तुमसे बहुत कुछ ज्यादा जानता हूँ।
कबीरा की आँखें चमक उठीं और उसने कटोरी सारंगी को दे दी।

सारंगी ने फुर्ती से चावलों के ऊपर दूध डाला और बोला -
- अब अपनी आँखें मींचो।जब तक मैं नहीं बोलूँ तब तक नहीं खोलना। तुम्हारी आँखें बंद होते ही मेरा जादू शुरू हो जाएगा।
भोले कबीरा ने कसकर आँखें बंद कर ली। साथ ही छोटे -छोटे हाथों से उन्हें ढाप लिया। सारंगी ने उसके दूध से लथपथ चावलों को छिपा दिया और अपना जादू शुरू कर किया -
धूमधड़ा ---धूमधड़ा
मेरा जादू धूम धड़ा
छूं-छूं --काली मंतर
धूँ-धूँ ---देवी जंतर
धड़-धड़ाधड़ -पड़पड़
मीठी-मीठी खीर बना  
कुछ मिनट बाद ही सारंगी  बड़े प्यार से बोला-
कबीरा आँखें खोलो। मेरा जादू चल गया ,खीर कटोरा भर गया।
कबीरा ने फटाक से आँखें खोल दीं ।वह तो उछल पड़ा  –आह खीर बन गई –मीठी खीर बन गई। पर---पर --मेरी कटोरी कहाँ गई?
-कटोरी का कटोरा बन गया और दूध –चावल से खीर बन गई। यही तो मेरा जादू है।
- आह,अब मेरी माँ भूखी नहीं रहेगी और उसके बाल गोपाल भी भूखे नहीं रहेंगे।
कबीरा की आँखों से खुशी के आँसू टप-टप टपकने लगे।
दादी को तो बिना सारंगी के एक मिनट चैन न पड़ता था। आस-पास उसे न देख बेचैन हो उठी। आवाज देते- देते दरवाजे तक लाठी टेकती आन पहुंची। बूढ़ी सास को अकेला जाते देख सारंगी  की माँ भी साथ हो ली। उन्होंने दूर खड़े दोनों बच्चों को बतियाते देखा। कबीरा के हाथ में कटोरा देख तो वे ठगी सी रह गईं।
सारंगी की माँ ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा-
-माँ जी कुछ देख रही हो ?
-बहू, ये बूढ़ी आँखेँ सब देख रही हैं। एक दुखिया को खुशी देकर हमारे घर के कन्हैया ने तो सच्चे अर्थों में जन्माष्टमी मनाई है।    

-हाँ माँ जी,आपने ठीक कहा। हम बड़े, समझदार होते हुए भी नासमझ है और ये छोटे, नासमझ होते हुए भी हम से ज्यादा समझदार निकल गए। 

रविवार, 12 जून 2016

बालकहानी -देवपुत्र अंक जून २०१६ में प्रकाशित

दादी क़ा पीपा

वात्सल्य की मिठास उड़ेलती हुई मनोरंजन से भरपूर बालकहानी


 

छंदालाल और बिंदामल  की दोस्ती बचपन से ही चली आ रही थी। दोनों ने ही फौज में भर्ती होने की ठान ली तो ठान ली। दोनों की माँ लाख गिड्गिड़ईं,बाप ने लाल पीली आँखें दिखाईं पर फौजी बन कर ही रहे।  रिटायर हुए तो साथ साथ  पर उसके बाद छंदालाल  शहर में बस गया और बिंदामल अपनी माँ के साथ गाँव में रहने लगा।
   बिंदा ने शादी नहीं की थी लेकिन बच्चों में उसकी जान बसती थी। इसलिए बीच-बीच में अपने दोस्त से मिलने शहर आता और उसके बच्चों पर छप्पर फाड़ ढेर सा प्यार बरसा के लौट जाता।
   एक बार छंदा के घर आते समय बिंदा माँ को भी साथ ले गया। माँ ने कभी गाँव से बाहर पैर रखा नहीं था  फिर शहरी हवा से मुलाक़ात कैसे होती!
   गर्मी के दिन थे। दो मंज़िला सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते बूढ़ी माँ पसीने से लथपथ हो गई। दरवाजे पर ही छ्ंदा की पत्नी ने उनके पैर छूकर आशीर्वाद लिया और ड्राइंग रूम में बैठाया। एक मिनट उन्होंने इधर उधर नजर दौड़ाई फिर खुश होते हुए बोलीं-बहू ,यह तूने अच्छा किया ,मुझे बरफखाने में बैठा दिया। मेरी तो सारी  थकान ही मिट गई।
-माँ जी यहाँ कमरे को ठंडा करने वाली मशीन मतलब  . सी. चल रहा है।
-अरे बहू ,मैं क्या जानूँ अई. सी. वै. सी. मैं जब बहुत छोटी थी अपने बापू के साथ बरफखाने गई। वहाँ तो घुसते ही बड़ी ठंड लगने लगी।चारों तरफ बरफ की सिल्लियाँ ही सिल्लियाँ पड़ी थीं। उससे यह तेरा बरफखाना अच्छा है। एक बात बता,तूने बरफ कहाँ रख छोड़ी है?
-दादी माँ,वह तो पिघल गई और उसका पानी नाली से बाहर बह गया।नटखट नयन हाथ नचाते हुए बोला।
सबने चुप रहने में ही भलाई समझी क्योंकि दादी ने उसकी बात पर विश्वास कर लिया था।
नयन  की बड़ी बहन परी पानी के 3 गिलास एक ट्रे में रखकर लाई। दादी ने गटागट तीनों गिलास खाली कर दिए और बोलीं पानी तो बड़ा मीठा और ठंडा हैं। लल्ली,एक गिलास पानी और ला,नियत न भरी।
बहन ने जैसे ही फ्रिज खोला,उसकी तरफ इशारा करते हुए दादी ने पूछा-बेटी,यह क्या है?
-पानी ठंडा करने की मशीन हैं. इसे हम रेफ्रीज़रेटर कहते हैं।
- बड़ा लंबा- चौड़ा नाम है इस का तो। मुझसे तो बोला भी न जाए।  
थोड़ी देर में सब खाने बैठे। दादी बोलीं-बेटी, गिलास से मेरी ये प्यास न बुझे। मुझे तो उस पीपे से लोटा भर पानी दे दे। वरना बार-बार तुझे पीपा खोलने उठना पड़ेगा।
पहले तो परी पीपा का मतलब समझी नहीं और जब समझी तो हंसी के उड़ते गुब्बारों को पकड़ न सकी।
बड़ों की बात पर इस तरह  हँसना माँ को जंचा नहीं और उन्होंने उसे गुस्से से घूरा। लेकिन हंसने का  रोग तो ऐसा फैला कि नयन  की बत्तीसी भी खिल उठी।
पेटपूजा होते ही सबकी आँखों से मीठी- मीठी नींद झाँकने लगी। दादी माँ तो सोफे पर ही पसर गईं। गुदगुदे डनलप के सोफे पर उन्हें बहुत आनंद आ रहा था।
बोलीं- मैं तो भैया, न बरफखाना छोड़ने वाली और न रेशम से ऐसे बिछौने को। झपकी यहीं ले लेती हूँ। तुम लोग जहां चाहो जाओ।
-माँ जी दूसरे कमरे में भी ए॰ सी॰ है। आप वहाँ आराम से सो जाइए।
-क्या कहा?यहाँ दूसरा भी बरफखाना है। आह क्या मजा! चल बहू,जल्दी बता कमरा । पाँच बजे तक पैर पसारके सोऊँगी। और हाँ,शाम की रोटी मैं बना दूँगी। तू चिंता न करियो। फूल सी बहू इस जानलेवा गर्मी में कैसी झुलस गई है।
80 वर्ष की उम्र में भी इतना उल्लास व फुर्तीलापन देखकर पूरा परिवार चकित था।
चार बजते ही दादी माँ की नींद टूट गई। मिचमिचाती आँखों को खोलते हुए कड़क आवाज में बोलीं-बिटिया, जरा पीपे में से पानी दे जा और हाँ चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा दे। मैं बस अभी आई।
कुछ ही देर में वे रसोई की तरफ बढ़ गईं। गैस के चूल्हे पर पानी उबलने रख  दिया था। उन्होंने वैसा चूल्हा कभी देखा नहीं था। चकित सी गाल पर हाथ रखते हुए बोलीं-अय दइया,यहाँ तो भट्टी में से आग की बड़ी -बड़ी लपटें निकल रही हैं। मिट्टी का चूल्हा तो कहीं नजर नहीं आता।
नयन  की माँ फुर्ती से कमरे से निकल कर आईं। वे डर गई थीं कि दादी बिना सोचे -समझे गैस के चूल्हे की टटोलबाजी न करने लगें।
-माँ जी ,यह गैस का चूल्हा है । इसमें लकड़ी-कोयला जलाने का खटराग नहीं  और सफाई भी रहती है।
-यह तो जादुई चूल्हा है। लगे, मुझे तो बार बार यहाँ आना पड़ेगा।
-बार बार आने-जाने का झंझट क्यों करो माँ ,यही रह जाओ। उनका बेटा बिंदा बोला।  
-मेरे गाँव के घर का क्या होगा?मेरे खेत ,मेरे बैल? न न बेटा ,गाँव तो मेरे खून में रच-बस गया है। वहीं की पैदाइश ,वहीं पली और ब्याही भी गाँव में । छोडने की बात से तो मेरा कलेजा फटने लगे  है। दो दिन को कहीं चले जाओ पर आखिर में तो अपना घर ही प्यारा लगे है।
बिंदा में अब इतना साहस न बचा कि पुन; माँ से शहर में रहने का आग्रह कर सके। एक हफ्ते में ही दादी माँ सबसे बहुत हिलमिल गई।उनके विनोदी स्वभाव से सब उनकी ओर खिचें चले आते थे।
गाँव जाने के एक दिन पहले बड़ी उदास हो गईं।
बिंदा के दोस्त से बोली-बेटा छ्न्दा,सबको लेकर गाँव जरूर आना। तुम्हें कोई परेशानी न होगी। वहाँ भी पीपा और बरफखाना  है।
दादी के इस धमाके से नयन  के कान खड़े हो गए।
-क्या दादी तुम्हारे घर में फ्रिज जैसा पीपा है।
-हाँ हाँमैंने कहाँ न, है। बड़ा गहरा पीपा है । उसका ही हम ठंडा-मीठा पानी हलक से नीचे उतारे हैं।
बिंदा गहरी सोच में पड़ गया कि माँ किस पीपे की बात कर रही है। अचानक उसके मुंह से निकला-माँ ,कुएं की बात कर रही हो?
-हाँ हाँ ।गाँव का कुआँ क्या पीपे से किसी बात में कम है।
 जोरदार हंसी का हुल्लड़ मच उठा।
-इसमें हंसने की ऐसी क्या बात है । वहाँ तो बरफखाना भी है।
-बरफखानासबके मुंह खुले रह गए।
-अचरज कैसा ?घर के आगे चौरस आँगन में नीम का बड़ा सा पेड़ है। उसके तले ऐसी ठंडी दिलखुश हवा के झोंके लगे है कि शहरी बरफखाना तो उसके आगे भूल ही जाओगे।
-दिन तो कट गया पर दादी रात में गर्मी में कैसे सोना होगा? परी ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
-रात की चिंता न कर बिटिया! कमरे की खिड़कियाँ तो हम सारी रात खुली रखे है।ऐसी ठंडी हवा घुसे है कि चादर ताननी पड़े ।
इस बार चुलबुला नयन सरल हृदया और स्नेही दादी के बरफखाने पर हंस न सका। उसको बूढ़ी दादी में अपनी दादी नजर आने लगी। वह पुलकित हो उनसे  चिपट गया-दादी  कोई न आए ,मैं छुट्टियों में तुम्हारे पास जरूर आऊँगा।
-अरे केवल तेरी दादी हैं क्या?मेरी भी तो दादी हैं। मैं भी आऊँगी दादी और तुम्हारे चूल्हे की रोटी खाऊँगी। परी इठलाती बोली।
--रे छ्ंदा,तू कैसे चुपचाप खड़ा है।भूल गया जब तू छोटा था तो मेरे हाथ का बना सूजी-बेसन का बना हलुआ कितने शौक से खाता था।
-माँजी मुझे अच्छे से याद है। मैं भी आपके हाथ का हलुआ खाने आ रहा हूँ।
-आजा आजा।  कुछ दिनों को बहू भी चूल्हा चक्की से छुट्टी पाएगी।
दादी का चेहरा चमक उठा। वह तो प्यारे प्यारे पोता-पोती को पाकर निहाल हो गई जिनके लिए न जाने कब से तरस रही थी।
अगले दिन सुबह ही दादी अपने बेटे के साथ गाँव चली गईं पर जाते जाते छंदा के परिवार मेँ अपने वात्सल्य की मिठास घोल गईं।


रविवार, 8 मई 2016

उत्सवों का आकाश -5



मातृत्व दिवस -8मई (जननी महोत्सव)



5


बच्चो मुझे कुछ कहना है -

आज 8 मई को मातृत्व दिवस है और रविवार भी। अपनी प्यारी माँ के साथ खूब जोश के साथ जननी महोत्सव को मना रहे होगे।हाँ याद आया---आज तो तुम्हें उनकी सुख -सुविधा का भी बहुत ध्यान रखना हैं। कुछ स्कूलों में तो कल ही यह दिन मना लिया होगा। यह मातृत्व  दिवस केवल भारत में ही नहीं करीब 49 देशों में बड़े ज़ोर -शोर से उत्सव के रूप में मनाया जाता है। 
    
 कुछ लोग कहेंगे  –ऊँह हम यह दिवस क्यों मनाएँ?यह तो हमारी संस्कृति का अंग नहीं। इसमें विदेशी बू आती है। एक बात समझकर चलना है:दूररदर्शन,कम्प्यूटर,लैपटॉप,मोबाइल,आई पेड,आई फोन ,स्मार्ट वाच से दुनिया बहुत छोटी हो गई हैं। घर बैठे ही हम एक दूसरे के बहुत नजदीक आ गए हैं।मेरे-तुम्हारे के बीच लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती। विभिन्न संस्कृतियों का मेल मिलाप और आदान-प्रदान सहज ही हो जाता है। कब और कैसे हुआ इसका पता ही नहीं चलता। इसको रोका नहीं जा सकता। इसलिए दूसरी संस्कृतियों की अच्छी बातें ग्रहण करके अपनी संस्कृति को समृद्ध बनाया जा सकता है। साल में एक बार अन्य दिनों की तुलना में और ज्यादा समय अपनी माँ का ध्यान रखें,उसे याद करें, उसके साथ रहें तो वात्सल्यमयी को खुशी ही होगी।
अब मैं तुम्हें परी माँ के बारे में बताने जा रही हूँ। ओह,बताने से तो तुम्हें फिर इस कहानी को पढ़ने में आनंद ही नहीं आएगा। अच्छा तुम ही पढ़ लो।

परी माँ

-माँ -माँ भूख लगी है।
-अभी तो सात ही बजे है, तुझे इतनी जल्दी भूख लगने लगी। रोज तो आठ बजे दूध पीकर  जाता है। आज तो स्कूल भी देर से  जाना है।
-ओह दीदी !पेट में चूहे कूद रहे हैं तो मैं क्या करूँ!
-कुछ भी कर पर माँ को मत जगा। तुझे तो मालूम है आज मातृत्व  दिवस है,पूरा दिन माँ का दिन। वह कोई घर का काम नहीं करेगी और न रसोई में घुसेगी। जो करेगी अपने लिए करेगी।
-तो फिर मैं खाऊँगा क्या?
-एक दिन देर से खाएगा  तो क्या हो जाएगा। माँ तो हमारे लिए न जाने कितनी घंटे भूखे रह लेती है। हम स्वस्थ रहें इसके लिए भगवान से प्रार्थना करते हुए उपवास करती है।
चकोर खिसिया गया और रोते -रोते अपने पापा से लिपट गया।
-अच्छे बेटे रोते नहीं –चल मैं तुझे दूध देता हूँ। और हाँ रसीली , तुम माँ के लिए कमरे में ही चाय बना कर ले जाओ।ज्यादा आवाज न करना । जरा सी आहट उसके कानों तक गई कि यहाँ आन धमकेगी।
-पापा रोज तो माँ चाय बनाती है और सबके साथ बैठकर पीती है। आज यह नई बात क्यों?
-आज वे काम करने हैं जिससे तुम्हारी माँ को खुशी मिले ,आराम मिले और सबसे बड़ी बात हम चुप- चुप ऐसा करके उनको चकित कर देना चाहते हैं।
-हम भी तो स्कूल में यही करेंगे।ओह मुझे तो स्कूल के लिए भी तैयार होना है। रसीली, माँ से कहना –स्कूल के लिए सुंदर-सुंदर साड़ी  पहने –एकदम परी माँ की तरह।
रसीली ने चाय बनाकर ट्रे में नए कप रखे साथ में अपने हाथ का बना ग्रीटिंग कार्ड।धीरे -धीरे माँ के कमरे की ओर चल दी। दबे पाँव पीछे –पीछे पापा कब हो लिए उसको भनक भी न पड़ी।
-माँ - माँ उठो।
-बारीक सी आवाज सुन माँ ने आँखें खोल दी। रसीली को चाय की ट्रे लिए खड़ा देख आश्चर्य मिश्रित खुशी उसके चेहरे पर छा  गई।
-अरे बेटा तू तो बहुत बड़ी समझदार हो गई है। अच्छा अब ट्रे रख दे । मैं चाय पी लूँगी। अरे यह कार्ड कैसा? जरा पढ़ूँ तो -‘माँ तुम दुनिया की सबसे प्यारी माँ हो। मातृत्व दिवस मुबारक हो।‘ ओह तो यह बात है।
-आज चाय का प्याला अपने हाथों से तुम्हें पकड़ाऊंगी ठीक वैसे ही जैसे तुम , स्कूल जाने से पहले मेरे हाथ में दूध का गिलास थमा देती हो माँ।  
-तेरे पापा कहाँ हैं ?चाय तो हम साथ -साथ पीएंगे।
-रसोई में छोडकर आई हूँ। अभी पुकारती हूँ।
-तेरे पापा तो वो खड़े।
रसीली ने मुड़कर देखा  –दादी की फोटो के आगे वे हाथ जोड़े खड़े हैं। यह देख उसकी मम्मी की आँखें भर आईं।
-अरे माँ आज आँसू बहाने का दिन नहीं है।
-बेटी,ये खुशी के आंसू है। माँ संसार के किसी भी कोने में हो दूर रहकर भी पास रहती है। रात में लगता है तकिये की बजाय उसका हाथ मेरे सिर के नीचे है। दिन में वही हाथ सिर के ऊपर दिखाई देता है मानो उसके असीस की छतरी तनी हो।उसकी याद! उसकी याद तो हमेशा सुखदाई है।
पापा ने बड़ी श्रद्धा से सिर झुकाया मानो साक्षात माँ उनके सामने मंगल कलश लिए खड़ी हों। फिर बोले –जाने से पहले अपनी माँ के लिए साड़ी निकाल देना । आज तो वाकई में वह तुम्हारी परी माँ लगनी चाहिए। उन्होंने कनखियों से अपनी पत्नी को देखा जो मृदुल मुस्कान से खिली हुई थी।
चकोर अपनी परी माँ के साथ स्कूल चल दिया । घर की सारी  ज़िम्मेदारी आज रसीली और उसके पापा ने ओढ़ ली थी।
                                         *
स्कूल रंगबिरंगी झंडियों से सजा हुआ था।  बच्चे अपनी –अपनी माँ के साथ आ रहे थे। हरकोई  उत्साह से भर हुआ था। बच्चे माँ को आदर देकर इस बात का विश्वास दिला देना चाहते  थे कि उनको वे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। माँ देखना चाहती कि बच्चे उनके लिए क्या करते हैं?
 शिक्षिकाओं ने आगे बढ़कर माताओं का स्वागत किया और वे अपने बच्चों के साथ उनकी कक्षाओं में चली गईं। चकोर और उसके दोस्तों ने हाथ का बना ग्रीटिंग कार्ड अपनी अपनी मम्मी को दिया।साथ ही उपहार के छोटे छोटे पैकिट दिए। उत्सुकतावश तभी पैकिट खोल लिए गए। किसी में हेयर पिन निकला तो किसी में पैन। चकोर ने कागज के फूल  बना कर दिए थे।जो सचमुच के लग रहे थे। हर माँ की खुशी की कोई सीमा न थी। कुछ देर बाद उन्हें ओडोटोरियम ले जाया गया।

एक छोटा सा गोलमटोल बच्चा हिलता –डुलता मंच पर आया। वह कक्षा 2 में पढ़ता होगा। अपने हाथ हिला हिलाकर ऊँची आवाज में बोलने लगा-

मेरी माँ –सबसे अच्छी
रोता तो टॉफी देती
गिरता तो गोदी लेती
 हँसता तो झप्पी देती
हहा हा-----------हहा हा। 

उसके उतरते ही एक मिनट का सब्र किए बिना चकोर अपनी मुस्कान बिखेरता हुआ मंच पर दौड़ पड़ा और मटकता हुआ गाने लगा-

मेरी माँ -----सबसे न्यारी
खूब हँसाती हलुआ खिलाती
लोरी गाकर मुझे सुलाती
पापा की  नीली –पीली आँखों से
माँ हरदम मुझे  बचाती।

आखिरी लाइन सुनकर सब हंस पड़े। चकोर की माँ इतना तो समझ गई कि कविता लिखने वाला रसीली के अलावा और कोई नहीं पर चंचल बेटे ने कविता याद कैसे कर ली ---यह उसकी बुद्धि के बाहर था।   

कुछ समय  बाद माइक से आवाज आई-बच्चों की प्यारी न्यारी माताएं  ,
अपने नन्हें मुन्नों को खुश करने के लिए मंच पर आयें और जो उन्हें आता है वह करके दिखाएँ।
हॉल छोटी छोटी हथेलियों से बजाई तालियों से गूंज उठा। नादानों की आंखें कौतूहल वश मंच पर टिकी रह गईं।
चकोर की माँ ने जैसे ही मंच की ओर  बढ़ना शुरू किया उसके बाल हृदय की धड़कने तेज हो गईं। मन ही मन बुदबुदाने लगा –माँ जरूर गाना गाएगी पर उसने तो बहुत दिनों से गाया ही नहीं हैं। जरूर भूल गई होगी।भगवान -- -बचाओ। 

 माँ ने गान से पहले बच्चों को समझाया-
 तुम्हारी तरह कृष्ण भी बचपन में बहुत शैतान थे।  वे अपने सिर की चोटी बड़े भाई बलराम की तरह लंबी चाहते थे। पर यशोदा माँ का कहना था पहले दूध पी तब तेरी चोटी बढ़ेगी। एक दिन नटखट दूधचोर शिकायत भरे स्वर में कहते हैं  -माँ दूध पीते -पीते मुझे बहुत समय हो गया पर चोटी तो छोटी ही है। केवल कच्चा दूध पीने को देती है मक्खन रोटी तो देती नहीं।फिर चोटी  कैसे बढ़े? 
 इसके बाद सुरीली आवाज में गान शुरू हुआ-

मैया ,कबहि बढ़ेगी चोटी
किती बार मोहि दूध पियत भई,यह अजहू है छोटी
काचो दूध पियावति पचि-पचि,देति न माखन रोटी।

 बच्चे गाना सुनकर बहुत खुश हुए । एक को तो कहते सुना –माँ मुझसे बार बार न कहना-दूध पीओ दूध पीओ। उसकी जगह आइसक्रीम कोल्ड ,कॉफी चलेगी। बच्चे के भोलेपन पर आस -पास बैठे लोग हँसे बिना न रहे । किसी माँ ने कहानी सुनाकर तो किसी ने चुटकुला सुनाकर भी बच्चों का मनोरंजन किया।
कार्यक्रम समाप्त होने पर आँखों में अनोखी चमक लिए चकोर अपनी माँ के साथ घर की ओर चल दिया। कविता की पंक्तियाँ याद कर-कर  माँ को चकोर पर बहुत प्यार आ रहा था। 
                                           * 
घर पहुँचकर चकोर अपने को रोक न सका । माँ के गाल की चुम्बी लेते हुए बोला-- माँ,मेरी परी माँ तुमने तो गाना बहुत अच्छा गाया।
-क्या --?गाना गाया !हमने तो कभी सुना नहीं। चकोर के पापा और बहन दोनों ही अचरज से आँखें झपझपाने लगे।
-हाँ तो रसीली , तेरी माँ का गाना -हो जाए शाम को फिर एक बार।  
-शाम की शाम की देखी जाएगी। अभी तो रसोई में जा रही हूँ।
-एकदम नहीं माँ –हमने कहाँ न ,रसोई काम की एकदम छुट्टी ।
-क्या पागलपन लगा रखा है भूख -हड़ताल करनी है क्या रसीली ?
-आज के दिन क्यों मिजाज गरम कर रही हो। कुर्सी पर जरा बैठो तो—। टेबल पर खाना अपने आप पककर,चलकर आ जाएगा।
-आपकी बातें भी दीन-दुनिया से निराली होती हैं।
तभी राधिका ने देखा उसके दोनों बच्चे प्लेटें चम्मच ला रहे हैं। उनके पापा  भी रसोई में जाकर दाल सब्जी के डोंगे लाने उठ गए। वह बैठी -बैठी बड़ी हैरानी से देख रही थी।
सब खाने बैठे तो रसीली पूंछ बैठी -माँ खाना कैसा बना है?
-पहले यह बता खाना किसने बनाया?
-ओह तुम भी कमाल करती हो । आम खाने से मतलब की गुठलियों के दाम गिनने से मतलब।पापा बोले।
-देखो जी ।अच्छे बच्चे अपनी माँ से कुछ नहीं छिपाते।
-कौन,किस्से क्या छिपा रहा है? बच्चों को तो बस तुम्हें आश्चर्य के समुद्र में गोते लगवाने थे।
-ओह, अब आप ही बता दो। आप तो बच्चों के साथ मिलकर बच्चे बन जाते हैं।
-न—न मैं किसी के बीच नहीं पड़ता ।तुम जानो तुम्हारे बच्चे जाने।  
-माँ खाना पंजाबी ढाबे से मंगवाया है जहां हम अकसर  खाने जाते हैं। रसीली ने धीरे से कहा । डर रही थी कि कहीं डांट न पड़ जाय। 

राधिका अपनी बच्ची की मनोदशा ताड़ गई। ममता का आँचल फड़फड़ा उठा- बेटी मुझे तो सपने में भी इस बात का अंदाजा न था कि तुम दोनों भाई-बहन मुझे इतना प्यार करते हो, इतना ख्याल रखते हो। आओ –मेरे पास आओ ।उसकी स्नेहसिक्त बाँहें बेटा-बेटी को अपने घेरे में लेने को मचल उठीं।   



मंगलवार, 3 मई 2016

शिक्षण काल का मेरा एक अनुभव


अजीम प्रेम जी यूनिवर्सिटी द्वारा निकलने वाली हिन्दी त्रैमासिक
 पत्रिका खोजें और जानें  में प्रकाशित  /सुधा भार्गव

सिरदर्द


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वह कक्षा २ का छात्र था | गोरा -गोरा ,दुबला -दुबला ,झेंपा सा |देर से बोलना सीखा इसलिए कविता बोलते -बोलते रुक गया तो रुक गयाI दुबारा शब्द  का उच्चारण करने  में लगता जैसे पत्थर  घसीटना पड़ रहा हो उसके इस हाल पर साथी हँस पड़तेI मैडम गुस्से से चिल्लाती --बैठ जाओ --बोलना नहीं आता तो इस स्कूल में बाप  ने क्यों भेज दिया ? भेजते किसी विकलांग स्कूल में या लंगड़े -लूले ,गूंगे -हकले बच्चों  के स्कूल में I बैठ जाती जुगलबन्दी---!  सौरभ की हीन ग्रंथि सक्रीय हो उठतीI  

     एक दिन माँ घरमें गृहकार्य कराने बैठी कुछ पल बाद ही बोली ---मैं अभी बाजार से आ रही हूँ। इतनी देर में इन प्रश्नों के उत्तर लिख लेना माँ गई तो गई ---Iसाड़ियों की सेल का अंतिम दिन था Iउसे तो जाना ही ----- था I-सौरभ खामोशी की गहरी खाई में भटकता माँ की प्रतीक्षा करने लगा I बीच -बीच में एक दो शब्द भी लिख लेताIसंध्या तक माँ आई उसकी कॉपी में झाँका ---अरे ,तू जल्दी क्यों नहीं लिखता----- बोल तो बंद हो ही जाता है हाथ -पैर चलने भी बंद हो जाते हैं क्या ! एक घंटे में आठ लाइनें ही लिखीं हैं --कैसे होगा इतना  होमवर्क !सिरदर्द है --। |
          अगले दिन अधूरा गृहकार्य देखकरअगले दिन अधूरा गृहकार्य देखकर मैडम का चेहरा तमतमा उठा ---पूरा करो स्कूल का काम तभी टिफिन खाने को मिलेगाI--अरे टिफिन टाइम तो ख़त्म !भूख  लग रही है --जल्दी -जल्दी खा लूँ ---सौरभ  ने सोचा I-देखो तो खाने के नाम कितनी जल्दी हाथ चल रहे हैं----- लिखने के नाम हाथ टूट जाते हैं I शिक्षिका ने चिल्लाते हुए उसकी उँगलियों  पर स्केल से प्रहार किया I आँखों में डब डब करते आंसुओं से दिखाई देना बंद हो गया---I-खड़े  रहें अधूरे काम वाले --एक कर्कश आवाज गूंजी Iबच्चे खड़े रहे ,पैर दुखते रहे --बैठने की कोशिश की तो बादलों की सी गर्जना होती रही  ---खबरदार --जो बैठे तो -- ।                                           प्रिंसिपल  को स्कूल का निरीक्षण करते देखा  मैडम की जीभ पर तो  कोयल आन बैठी ------बच्चो ,सब बैठ जाओ, कल का कम पूरा करके घर से लाना Iमैडम को अचानक यह क्या हुआ-- बच्चे समझ न पाए न ही उनके समझने की उम्र थी--- छल -प्रपंच  से दूर मासूमों की दुनिया ---| सौरभ छुट्टी होने पर धीरे -धीरे क्लास से चल दिया -----लो अब तो यह चल भी नहीं सकता व्यंग बाण उसके कलेजे को छेक गया Iघर कब आया पता ही नहीं चला I वह तो ऊपर तक दलदल में फंसा था I-मैं लिख नहीं सकता --क्या बोल भी नहीं सकता !नहीं --नहीं --बोल सकता हूँ |बोलने के लिए ओंठ फडफडा उठे Iचलने में मुश्किल तो हो रही है ---शायद लंगड़ा भी हो गया हूँ--Iमैडम ठीक ही कह रही थी ---मैं लंगड़ा -लूला हूँ --गूंगा भी हूँ I नहीं --नहीं---
--- गूँजते शब्दों की चीख से दूर जाने के लिए उसने दोनों कानों पर कसकर हथेलियाँ जड़ दीँ Iपरीक्षा में तीन प्रश्न छोड़ दिये लेकिन तब भी पास होकर अगली कक्षा ३,सेक्शन सी में  चला गया I सुनने वाला हर कोई चकित ! उस दिन सब की जबान पर एक ही बात ------सुनने में आया है क्लास ३ का सेक्शन सी जिसे भी मिलेगा वह आठ -आठ आँसू  रो उठेगा I

कक्षा ३ के सेक्शन सी का प्रथम दिन , सब अपना नाम नई मैडम को बताने लगेवह लड़का भी --सौरभ ---ब----ब -----
-हाँ !हाँ बोलो !ठीक बोल रहे हो I मैडम बोली I  
उसका हौसला बढ़ा।  जोर देकर बोला ---बैनर्जी I
-शाबास सौरभ !  
प्रथम बार मुस्कान ने उसके चेहरे को गुलाबी चादर में लपेट लिया  Iनई मैडम कक्षा में घूम -घूम कर श्रुति लेख शव्द  बोल रही थीं I पांचवां शब्द  बोलते -बोलते सौरभ के पास आकर रुक गईं घबराया सा केवल तीन शब्द लिख पाया Iचौथा शब्द याद करने की कोशिश कर रहा था कि पांचवां शब्द बोल दिया गया I मैडम को पास खड़ा देख वह पसीने से नहा गया मैडम ने गौर से देखा, एक -एक शब्द कागज के पन्ने पर मोती की तरह जड़ा था I जो भी लिखा था सब ठीक था सांत्वना भरा हाथ उन्होंने सौरभ के कन्धों पर टिका दिया
- -मैं शब्द दुबारा बोलती हूँ ,बेटे लिखने की कोशिश करो Iसाथ ही उन्होंने घोषणा की -जो बच्चे धीरे -धीरे लिखते हैं उनको काम पूरा करने के लिए हमेशा दस मिनट ज्यादा दिये  जायेंगे I
सौरभ  जैसे  बच्चों  की निगाहें मैडम पर टिक गईं ----नई मैडम की बातें  तो एकदम नई -नई हैं I हमको अच्छी भी लगती हैं। 
  
आत्मीयता की फुलझड़ी से बालमन भयरहित हो उमंग से भर उठे I
-सौरभ ,टिफिन जल्दी से खाकर मेरे पास आना I मैं तुम्हारा कार्य पूरा करने में मदद करूंगी 
-इतनी अच्छी मैडम !जरूर आऊंगा |वह  मन ही मन बुदबुदाया
  हलके क़दमों से मैडम के सामने वाली कुर्सी पर वह  बैठ गया I लिखना शुरू किया ----ओह ये उँगलियाँ जल्दी क्यों नहीं चलतीं--। 

 पहली बार सौरभ को अपने पर गुस्सा आया I उसने उँगलियों में कलम  फंसाकर उसे खींचने की कोशिश की I हाथ कुछ ज्यादा गतिमान हुए I नई  मैडम इस परिवर्तन को भांप गईं I उन्हें विशवास हो गया कि सामान्य बच्चों की तरह  सौरभ भी एक दिन लिख सकेगा I उधर सौरभ मन की सलाई पर दूसरी तरह के फंदे डाल रहा था --मैं घर जाकर भी लिखूँगा देखता हूँ ये उँगलियाँ कैसे नहीं चलतीं I घर में बैठा वह एक घंटे से कलम चला रहा था I यह कैसी अनहोनी ---खुद लिख रहा है ---काम भी पूरा I माँ सकते में आ गई
सौरभ अपने में ही लीन रहने  लगा या नई मैडम के ख्यालों में I एक वही तो थीं जिन्होंने उसको समझा, बाकी तो उसकी कोमल भावनाओं और सुकुमार शरीर पर आघात करके आगे बढ़ गये  Iएक बार पीछे मुड़कर न देखा-- उस पर क्या बीत रही है !वार्षिक परीक्षा में हिन्दी में सबसे ज्यादा अंक पाकर उसने जीत हासिल की I आश्चर्य की लहर फिर एक बार आई और सुनने वालों को समूचा भिगोकर चली गई I

यह नई मैडम और कोई नहीं मैं ही हूँ I हर कक्षा में सौरभ  जैसे  बच्चे होते हैं I यदि  धैर्य रखते हुए उनकी  ओर प्रेम का हाथ बढ़ाकर हौंसला बढ़ाया जाय तो उन्हें  सफलता अवश्य मिलेगी