प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

यादों की रिमझिम बरसात ;समीक्षा -वरिष्ठ साहित्यकार संजीव जयसवाल संजय




बचपन की सौगात 

हाल ही में वरिष्ठ रचनाकार सुधा भार्गव जी का बाल कहानी संग्रह ‘यादों की रिमझिम बारिश’ पढ़ने का अवसर मिला. वास्तव में ये कहानियों का संग्रह न होकर एक आईना है जिसमें झांकते हुए हम उतरते जाते हैं एक अनोखी दुनिया में. जहाँ हमारा बचपन हैं और हैं हमारी नटखट शरारतें और मासूम हरकतें. जो इस आईने में देखेगा उसे अपना ही अक्श नज़र आएगा और मन के किसी कोने से आवाज़ आयेगी ‘अरे, यह सब तो हमने भी किया है. लगता है किसी ने मेरे बचपन की यादों को चुरा कर उन्हें कहानी का रूप दे दिया है.’ जी हाँ लेखिका भी स्वीकार करती हैं कि ये उनकी ‘आत्मकहानियाँ’ है. अर्थात अपनी आत्मकथा के बचपन वाले भाग को उन्होंने कहानियों का रूप देकर बहुत खूबसूरती के साथ पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.

            अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बचपन कमोवेश सभी का एक ही तरह का होता है. मां-बाप की आँखों का तारा. अलमस्त जिन्दगी, दूध पीने के लिए नखरा, लट्टू चलाने की उमंग, छुप-छुपाकर बर्फ का गोला खाना, बन्दर-भालू का नाच देखने के लिए दौड़ लगाना, बरसात में भीगते हुए कागज़ की नाव चलाना, होली का हुडदंग. इस पुस्तक में यह सब कुछ देखने को मिलेगा लेकिन लेखिका की यादों की चाशनी में लिपटी हुई कहनियों के रूप में. सुधा जी ने जिस खूबसूरती से अपनी बचपन की यादों को एक माला के रूप में पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है. 

            सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने इन कहानियों के माध्यम से देश-समाज में हो रहे बदलावों और प्रगति को भी झलकाया है. पहली कहानी ‘जादू का तमंचा’ इसकी एक बानगी है. भाई दिन भर लकड़ी के लट्टू में डोरी बाँध कर नचाया करता है और छोटी बहन उसे देख कर ललचाया करती है. उन दिनों ऐसे ही टट्टू मिलते थे. बाद में पिता दिल्ली से तमंचे की शक्ल वाला खिलौना ला देते है जिससे बटन दबाने पर लट्टू निकलकर नाचने लगता है. उन दिनों केवल बड़े शहरों में ही ऐसे खिलोने मिलते थे और बड़े बुजुर्ग उन्हें लाकर बच्चों को बदलाव की झलक दिखलाया करते थे. एक और कहानी है ‘जादुई मुर्गी’ जो दबाने पर पेट से अंडा निकालने वाली प्लास्टिक की मुर्गी के उपर आधारित है. हम सभी ने इस खिलौने के साथ खूब खेला है. ऐसी कई कहानियां हैं जो बचपन की याद देला देती हैं किन्तु कहानी ‘बाल लीला’ सबसे मजेदार लगी. इसमें स्कूल में ‘कृष्णलीला’ का नाटक होना था. किन्तु यशोदा की भूमिका निभा रही बच्ची गलती से कृष्ण से कह बैठती है ‘क्यों रे बलराम आज तूने फिर मटकी से माखन चुराया’ यह बात कृष्ण बनी बच्ची को, जो लेखिका खुद थीं, नागवार गुजरती है और वह मंच पर ही चिल्ला कर कहती है,’ अरे यह तो गलत बोल रही है अब मैं क्या करूँ.’’

            मंच के पीछे खडी टीचर चिल्लाकर बच्चों को अपना-अपना संवाद बोलने के लिए कहती है लेकिन बाल हाठ तो बाल हठ. कृष्ण भी गुस्से से कहते है.” मैया तू तो मेरा नाम ही भूल गई. जब तक मुझे कृष्ण नहीं कहोगी मैं तुमसे बात नहीं करूंगा.’ उसके बाद हंसी के ठहाकों के बीच बच्चों ने अपनी त्वरित बुद्धी से जिस तरह नाटक को संभाला उसके लिए बाद में प्रिंसिपल मैडम ने भी बच्चों की पीठ थपथपाई. 

            भुत-भूतनी का अस्तित्व नहीं होता है लेकिन उनको लेकर बच्चों को अक्सर डरवाया जाता है. इस विषय को भी लेकर एक मजेदार कहानी है ‘भूत भुतला की चिपटनबाजी’ जो फोथों पर मुस्कान ले आती है.

            ऐसे कई और मजेदार प्रसंग है इस संग्रह की कहानियों में जो डिजटल युग के आधुनिक बच्चों को अपनी विरासत से परिचित करवाएंगी और बतायेंगी कि उनके माता-पिता और दादा-दादी का बचपन कैसा होता था. इस द्रष्टिकोण से यह पुस्तक बच्चों का मनोरंजन तो करेगी ही, अभिभावकों को भी उनके बचपन की एक बार फिर से सैर करायेगी. अतः यह पुस्तक हर पीढ़ी के पाठकों के पढने के योग्य है. लेखिका ने संग्रह का शीर्षक ‘यादों के रिमझिम बरसात’ उसके विषय वस्तु के बिलकुल अनुकूल रखा है. सुधा जी की कई पुस्तकें पहले भी आकर चर्चित हो चुकी हैं, मैं उनकी इस पुस्तक की भी सफलता के मंगलकामना करता हूँ. इस सजिल्द पुस्तक का प्रकाशन ‘साहित्यसागर’ प्रकाशन जयपुर ने किया है और इसकी कीमत २५० रुपये है.

                                                                        -संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

 

 

 






मिश्री मौसी का मटका की समीक्षा -साहित्यकार हरिसुमन बिष्ट

       पिछले दिनों मुझे साहित्य और संस्कृति की द्विमासिक पत्रिका -पुस्तक संस्कृति मिली। 2022 के आरंभ में ही 'मिश्री मौसी का मटका' - पुस्तक नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई थी। 2022 के अंत होते होते वरिष्ठ साहित्यकार हरि सुमन बिष्ट की समीक्षा भी इस  पत्रिका में पढ़ने को  मिल गई। जिसे उन्होंने बड़े जतन -मनन के साथ लिखा है। पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा। लेखनी को शक्ति मिली। मैं उनकी बहुत बहुत आभारी हूँ । 










 

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

आज का दिन शुभ

 कहानी प्रतियोगिता सम्मान 


 
डॉ  चावला का चावल

सुधा भार्गव

     

 ताबड़तोड़ बड़ा ही नटखटिया था। कोई भी औटोमेटिक खिलौना उसके हाथ लग गया तो समझो उसकी खैर नहीं। एक बार उसके पापा छोटी सी कार  लाए जो पिछले दो पहियों के ज़मीन पर रगड़ने से चुहिया की तरह  भागने लगती थी। दो दिन तो उसको खूब दौड़ाया  फिर गौर से उलटपलट कर देखने लगा। कहीं से स्क्रू ड्राइवर भी ढूँढ निकाला और पुर्ज़ा -पुर्ज़ा ढीलाकर उसका दम ही निकाल दिया। 

     “बेटा यह  क्या किया?”

     “पापा देख रहा था यह कैसे दौड़ती है?”

      पापा उसकी नादानी देख मुस्करा दिए। तो ऐसा था वह बड़ी -बड़ी आँखों वाला नन्हा मुन्ना। उसकी इस आदत के कारण उसका नाम भी पड़ गया ताबड़तोड़। 

      ताबड़तोड़ जहां रहता था वहाँ पास -पास बड़े -बड़े बंगले थे।हर बंगला रंगबिरंगे खिलखिलाते फूलों से ढका था।सड़क के किनारे पेड़ों पर अमरूद,अनार ,आम  झूमते दिखाई देते। ताबड़तोड़ इस हंसती प्रकृति में खोया हुआ अक्सर घूमने निकल जाता । 


एक दिन उसने एक घर के बाहर बिल्ली की पेंटिंग लगी देखी।  उसे वह बहुत प्यारी लगी। दूसरे दिन  घूमने निकला तो वह बिल्ली वाले घर की ओर मुड़े बिना न रहा। । फ़्रेम में क़ैद बिल्ली की पेंटिंग को देख उसे लगा जैसे वह अभी बोल पड़ेगी। तभी दरवाज़ा से दो बिल्ली के बच्चे उसे घूरते निकले। दोनों की पूँछें हवा में लहरा  रही थीं मानो उछलकर वे ताबड़तोड़ से टकराना चाहती हों। अब उसकी समझ में आया है यह बिल्लियों का घर है। वह उनका घर देखने को उत्सुक हो उठा। जैसे ही उसने उधर कदम बढ़ाया टिम्मी बिल्ली रास्ता रोककर खड़ी हो गई। पंजे दिखाते बोली-“ख़बरदार जो एक कदम भी आगे बढ़ाया। टमटमाटे भागोगे।” 

दूसरी  बिल्ली पम्मी को उसकी बात अच्छी नहीं लगी। वह अपने स्वर को कोमल बनाते बोली-“छोटे बच्चे ,तुम  हमारे भाई -बहनों को पकड़कर ले जाते हो। हम उनकी याद में रोते रहते हैं । इसलिए तुम इस घर में नहीं घुस सकते।” 

     शोरशराबा सुन एक बूढ़ी बिल्ली भी आँखों पर चश्मा चढ़ाये आ गई । हाथ में बेलन भी था  ताकि कोई दुश्मन हो तो उसकी मरम्मत कर दे। पर भोले से बच्चे  को खड़ा देख उसे उस   पर प्यार आ गया। टिम्मी- पम्मी को लताड़ते बोली -“क्यों नाहक इस बच्चे को परेशान कर रही हो। देख नहीं रही हो कितना मासूम लगता है।” 

       फिर वह ताबड़तोड़ से बोली “बेटे तुम्हें क्या चाहिए। भूखे हो क्या ? अंदर आ जाओ। दूध रोटी खाने को मिलेगी ।”उसने मीठी आवाज़ में कहा।  

     “बिल्ली मौसी भूख भी लगी है और मैं तुम्हारा घर भी देखना चाहता ही। घर तो बहुत देखे पर बिल्लियों का घर !पहले कभी नहीं सुना।”

    “तुम्हारा नाम क्या है बच्चे  ?”

    “ताबड़तोड़।”

    " ऐं,क्या कहा ! ताबड़तोड़! तोड़फोड़ करने वाला।”वह चौंक गई।

    “मौसी मैं कोई नुक़सान नहीं करूँगा ,कुछ नहीं छूऊँगा। मेरा विश्वास करो।” वह गिड़गिड़ाने लगा। 

     “ठीक है, ठीक है । आ जाओ अंदर।”

       घुसते ही वह तो  आश्चर्य के समुंदर में डूबता चला गया। एक तरफ़ डाइनिंग टेबल पर बैठे सफ़ेद भूरी आँखों वाले बच्चे दूध रोटी खा रहे थे। नीचे चटाई पर बिल्ली मास्टरनी दो बच्चों को कुछ पढ़ा रही थी। किताबें उनके सामने खुली थीं। दूसरी चटाई पर दो शैतान कैरम खेल रहे थे। बात बात पर नोकझोंक भी चल रही थी। 

      "मौसी यहाँ तो सब अपने काम में लगे है। कोई लड़झगड़ भी नहीं रहा। लगता है चतुरजंगी  नगरी में आ गया हूँ। 

      "बेटा तुम भी कम चतुर नहीं ।  एक मिनट में ही ही सब भाँप लिया। मैं अभी तुम्हारे लिए खीर और मुलायम रोटी लाती  हूँ। पहले  खा लो और वो देखो …मेरी बहन सल्लो,बड़ा अच्छा पढ़ाती है। बच्चे भी बहुत मन से पढ़ते हैं। "

     ताबड़तोड़ जितना सुनता उसका आश्चर्य उतना ही बढ़ता  जाता । 

    "अरे इतने हैरान क्यों होते हो! यह सब करामात तो डाक्टर चावला की है। एक- एक चावल उन्होंने हमारे नाम कर रखा है।”

     “मुझे भी जल्दी से वह चावल दिलवा दो मौसी।”

    “नादान बच्चे वह चावल हमारे पास कहाँ!चावल नन्हा सा तो है । इधर -उधर लुढ़क न जाए इस डर से उन्होंने उस चावल को हमारे दिमाग़ में फिट कर दिया है। 

     “ओहो तुम ब्रेन चिप की बात तो नहीं कर रहीं।” 

     “हाँ हाँ वो ही।” 

     “कुछ दिन पहले टी वी में देखा था ना ..। एक बंदर कम्प्यूटर पर काम  कर रहा  था । उसके दिमाग़ में भी तो यही ब्रेन चिप लगा दी थी।मैं तो उसको  देख डर गया। कहीं हमारे घर आन धमके और मेरे आई पेड में कुछ गड़बड़ कर दे। ” 

     “अरे हाँ! हाँ !वही …।”

    “हुर्रे! मेरा तो काम बन गया।”

     “भई क्या काम बन गया ,हमें भी तो बताओ।” दूसरे कमरे से निकलते डॉक्टर चावला ने पूछा । 

      “डाक्टर चावला यह बच्चा आपसे मिलना चाहता है।” मौसी बोली। 

     “चावला अंकल ,मेरे दिमाग़ में भी एक चावल फ़िट कर दो।तभी तो मेरा काम बनेगा। ” ताबड़तोड़ ने बेसब्री से कहा।

     “तुम्हें ऐसी क्या ज़रूरत आन  पड़ी। तुम तो भगवान के घर से बहुत बुद्धि लेकर आए हो।”

    “ओह अंकल आप नहीं जानते मैं कितना परेशान हो जाता हूँ। पढ़ता हूँ तो भूल- भूल जाता हूँ। मास्टर जी की डाँट खाता हूँ। दौड़ता हूँ तो पीछे रह जाता हूँ, दोस्त कसकर मेरी हँसी उड़ाते हैं। लिखता हूँ तो कक्षा कार्य पूरा ही नहीं कर पता। वो कट्टो तो कक्षा में हमेशा मुझे लेटलतीफ कहकर खी- खी कर उठती है।”वह एक ही साँस में कह गया।  

     “रे -रे तुमने तो  बहुत सी परेशानियाँ मोल ले रखी हैं। पर अभी तो तुम्हें चावल चिप मिल नहीं सकती ।” 

     “क्यों .. क्यों अंकल ?”

    “वह इसलिए कि उसके पैदा होने में अभी समय लगेगा। पर एक वायदा कर सकता हूँ । जब भी चिप तैयार होगी सबसे पहले तुम्हारा नम्बर आएगा।” 

     “उफ़ तब तक मेरा क्या होगा?”

     “तुम खुद कोशिश कर सकते हो। किसी के इंतज़ार में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो तुम अपने साथियों से पीछे रह जाओगे।” 

     “हूँ ,अंकल पीछे तो मुझे हरगिज़ नहीं रहना ।” 

      “यह हुई शेरों  सी बात ।”

    “पर मुझे अपने करामाती दिमाग़ का  कोई  जादू तो बताओ।” 

     “अच्छा,ध्यान से सुनो। जब तुम कुछ लिखने बैठो तो लगातार अपने दिमाग़ से कहते रहो -मुझे लिखना है..लिखना है..जल्दी जल्दी लिखना है । इससे दिमाग़ ऐक्टिवेट होता रहेगा और तुम्हें ऐसा लगेगा कि हाथों में शक्ति आ गई है।    तुम्हारी उँगलियाँ जल्दी जल्दी चलने लगेंगी। कक्षा कार्य समय से पहले ही खतम कर दोगे।” 

       “फिर तो मैं 'जल्दी बाबू' बन जाऊँगा।”

“हाँ ,और खेलते समय भी ध्यान रखना होगा कि---।”

डॉ चावला अपनी बात पूरी कर भी न पाये थे कि ताबड़तोड़ बोल पड़ा -

“समझ गया ..समझ गया । दौड़ में हिस्सा लेते समय भी इधर- उधर न देखूँगा और न कुछ सोचूँगा ।केवल एक संदेश दिमाग़ को भेजूँगा - भाग- भाग- भागमभाग, मुझे सबसे आगे निकलना है। बात ठीक भी है, दो बातें सोचने से बेचारा दिमाग़ घबरा जाएगा ,यह करूँ या वह करूँ।” 

      “लो  बिना चिप लगाए ही तुम्हारा दिमाग़ ख़रगोश की तरह दौड़ने लगा।” 

     “लेकिन इस भूलने की बीमारी का क्या करूँ अंकल । घर से तो याद करके जाता हूँ पर मास्टर जी जब प्रश्न पूछते हैं तो हकलाने लगता हूँ।  वह शैतान खोपड़ी  की कट्टो तो मुझे अंकल, हकलुद्दीन भी कह देती है।  डर है कहीं अपने घर का रास्ता भी न भूल जाऊँ।” 

“अरे बड़ा सरल मंत्र बताता हूँ इसका। जब याद करने बैठो तो एक ही विषय चुनो और उसी पर विचार करते रहो -करते रहो।देखना उसकी  यादें  तुम्हारे दिमाग़ के एक कोने में जम कर बैठ जाएँगी। बीच -बीच में उन्हें खंगालते रहो।  फिर तो दो दिन बाद भी ज़रूरत पड़ने पर  दिमाग़ सक्रिय हो उठेगा और यादों का पिटारा खुल पड़ेगा । भूलने की शुरुआत तो तब होती हैं जब पाठ को बार बार दोहराया न जाए।”

“फिर तो मेरी याददाश्त हाथी  की तरह तेज हो जाएगी । सर्र- सर्र प्रश्नों के जवाब दे दूँगा । कट्टो  की हिम्मत भी नहीं पड़ेगी मुझे  हकलुद्दीन कहने की। क्यों मैं ठीक कह रहा हूँ न अंकल।” ताबड़तोड़ खुशी से नाच उठा। 


“तुम्हारा  दिमाग़ तो बड़ी तेज़ी से काम  कर रहा है। लगता है तुम्हारे हिस्से का चावल दाना तुम्हें मिल चुका है।”वे आँखें घुमाते बोले।   

 “हाँ अंकल यह सब आपका ही जादू है । मुझे तो लग रहा है बिना कोशिश किए ही मेरे दिमाग़ में चिप की सिलाई हो गई है। अब  एक मिनट  ख़राब नहीं कर सकता।” 

उसने जल्दी -जल्दी जाने के लिए कदम बढ़ा दिए।  डॉक्टर चावला अपनी सफलता पर मन ही मन मुस्कुराए। उन्हें लगा जैसे एक नए ऊर्जावान बच्चे का जन्म हो चुका है।


बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

बाल कहानी प्रतियोगिता


पुरस्कार व प्रमाणपत्र आयोजन 

विजेताओं की  खुशखबरी तो मुझे पहले ही मिल गई थी। पर कल श्री किरौला जी का संदेश मिला कि  शुक्रवार 28 अक्टूबर 2022 सायं 7 बजे गूगल मीट पर आयोजित कहानी कार्यशाला में गंगा अधिकारी स्मृति कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार व प्रमाण पत्र दिए जाने हैं।  इससे मेरी खुशी दुगुनी  हो गई। 

    एक बार फिर  शैलेंद्र जी, सुधा जुगरान जी, निधि जी, नीना जी, उषा जी, हरीश जी व डा लता जी आप सभी को बहुत बहुत बधाई। किरौला जी का बहुत बहुत शुक्रिया जिनके कारण बच्चों का चहुंमुखी विकास हो रहा है और बालसाहित्यकारों के उत्साह की सीमा नहीं। 


बुधवार, 3 अगस्त 2022

मेरी किताबें और कंप्यूटर पोस्टमैन का पत्र


दो बालकहानी संग्रह -2022
                             




कुछ दिन पहले वरिष्ठ बालसाहित्यकार श्री दिविक रमेश जी को मैंने अपनी दो किताबें भेजी थीं। उन्होंने बहुत जल्दी ही इनके बारे में मंतव्य लिख भेजा।  मैंने कभी इतनी जल्दी प्रतिक्रिया  की आशा न की थी। इतने व्यस्त होते हुए भी उन्होने इन किताबों को पढ़ा !मैं हतप्रभ थी। मुझे यह तो मालूम हो गया कि मैं कितने पानी में हूँ !भविष्य में मुझे क्या करना है । साथ ही मेरा मनोबल बढ़ा। किन शब्दों में उनका धन्यवाद करूँ समझ नहीं आ रहा । 
लेकिन एक बात मेरे दिमाग में और कौंधी -कौन कहता है पत्र विधा गुजरे जमाने की बात हो गई है । यह विधा तो जीवित है पर नए परिवेश में नया कलेवर लिए। वही आत्मीयता ,वही स्पष्टता ,वही शिष्टता और  व्यक्तित्व की झलक मुझे उनके इस  पत्र  में मिली । बस अंतर इतना सा है कि यह पत्र  किसी  मानव पोस्टमैन से नहीं  मिला  बल्कि यह पत्र कंप्यूटर पोस्टमैन से मिला। छिटके बिदुओं के मिलान के लिए मैंने इस पत्र  विधा को अपनाने का पक्का मन बना लिया है। मित्रों मैंने ठीक किया न !हाँ ,निम्नलिखित पत्र पढे बिना तो मेरी  बात अधूरी ही रहेगी तो पढ़िये ---

आदरणीया सुधा भार्गव जी,
नमस्कार। 
आपकी दो पुस्तकें - 'मिश्री मौसी का मटका' और 'यादों की रिमझिम  बरसात' प्राप्त  हुई  हैं। हृदय से 
आभारी हूँ।काफी-कुछ पढ़ गया हूँ।

पहली पुस्तक की मौसी अद्भुत है जिसे  दुनिया का हर बच्चा अपनाना चाहेगा। आखिर हर वक्त उन्हें 
यही तो लगता था कि  'उनके सीने में बहुत-सी कहानियाँ उबाल ले रही थीं कि कब मौका मिलेगा कब 
उन्हें सुना दूँ।' आपकी कहानियों में जहाँ एक और 'सुनाने-सुनने' वाली लोक परम्परा की शैली का 
शानदार निर्वाह हुआ है, वहाँ दृष्टि वैज्ञानिक  रही है। आपके यहाँ रोबोट के रूप में वैज्ञानिक फेंटसी 
का उपयोग  हुआ  है जो बहुत  रचनात्मक  ढंग से हुआ है। अर्थात सब कुछ कहानी की बुनावट में 
समाया हुआ  है। आपकी कहानी लिखित हैं लेकिन पढ़ते-पढ़ते निरंतर उन्हें सुनने का आनंद आता 
रहता है। जिज्ञासा उत्पन्न करना और फिर  उसे निदान की और ले जाना, इन कहानियों की खास 
विशेषता है।हर कहानी के अंत में नयी कहानी के जन्म का संकेत भी बच्चों को बहुत  प्रिय लगेगा। 
पठनीयता और रोचकता कहीं नहीं चूकतीं।
मुझे तो अपना बचपन याद  आ गया है।मैं दादा जी से कहानियाँ सुनता था।

दूसरी पुस्तक की कहानियाँ भी इन गुणों से समृद्ध  हैं।भूत से संबद्ध कहानी का पूरा ट्रीटमेंट वैज्ञानिक
 दृष्टिकोण का प्रतिफल है। मोटापे की जंग हो या बाल लीला अथवा जादुई  मुर्गी या दंगल टोली,
 आपकी कहानियों में मनोविज्ञान का पुट भी भरपूर रहता है। कम ही सही काव्य पंक्तियों का भी 
अच्छा उपयोग  हुआ  है। 

आपकी भाषा पर अच्छी पकड़ है। छोटे वाक्यों के उपयोग करने में आप माहिर है। आपके पास 
अभिव्यक्ति के लिए  लोक से उठाए अनेक शानदार  शब्द  हैं जो पाठकों में आकर्षण का कारण 
बनेंगे। 

एक और पक्ष बहुत अच्छा है। आपकी कहानियों में पात्रों के रूप में बच्चों की भागीदारी विशेष 
रूप से है। अच्छी बात  है।

आपको बहुत-बहुत बधाई। 
शुभकामनाओं के साथ, 
शुभेच्छु,
दिविक रमेश 
Thanks
Divik Ramesh
L-1202, Grand Ajnara Heritage, Sector-74, Noida-201301

शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

बाल कहानी

 चॉकलेटी  डांसर  

   \ सुधा भार्गव /


   भोली-भाली मोरपंखी बड़ी मनमौजी और हंसमुख थी। हमेशा चिड़ियों की तरह चहकती-गुनगुन करती और अपना लहंगा पकड़ ठुमकने लगती। जब वह फिरकनी की तरह घूमती तो लगता मोर ने अपने रंगबिरंगे चमकीले  पंख फैला रखे हैं। पापा अपनी लाड़ली को छेड़ते-“मोरपंखी -मोरपंखी तेरे पंख कहाँ?”नादान  बोलती –“मेरे अच्छे पप्पू मुझे मोर के पंख  लादो । उन्हें लहंगे में खोंसकर ता थइया -ता थइया करूंगी।“ पापा अपनी इस नन्ही डांसर को कलेजे से लगा लेते।

   एक बार मौसी उनसे मिलने आईं। उन्हें “कसरत करने का बड़ा शौक। इसलिए सब उन्हें पहलवान मौसी कहती। मोरपंखी से उनकी खूब पटती।

   उस दिन सुबह उठते ही मौसी छत पर चली गईं । दरी के ऊपर एक तौलिया बिछाकर कसरत करने लगीं। मोरपंखी की नींद खुली । उन्हें ढूँढते -ढूंढते छत पर पहुँच गई। बड़े कौतूहल से कुछ देर तो देखती रही । फिर उन्हीं की बगल में लेट कर शुरू कर दिये अपने हाथ- पैर फेंकने ,मरोड़ने । उसका नाजुक सा हाथ कभी मौसी की कमर से टकराता तो कभी पेट पर आन विराजता । ऐसा लगता मानों दो पहलवान कुश्ती लड़ रहे हों।  

  व्यायाम करने के बाद मौसी ने मोरपंखी की माँ को पुकारा-“ओ किशमिशी ,मेरा मनपसंद नाश्ता लगा दे । बड़ी भूख लगी  है।”

    “मम्मी ने तो अपनी पसंद का नाश्ता बनाया होगा।मोरपंखी बोली।

    “नाश्ता तो मनपसंद ही होना चाहिए । इससे मन खुश होता है और भूख भी ज्यादा लगती।” मौसी बोली।

   अब तो मोरपंखी का भी डंका बज उठा – “माँ,मेरा  नाश्ता भी मनपसंद  । मैंने कसरत की है।”

     नाश्ते करते  समय मोरपंखी तुनक पड़ी -“मेरा मनपसंद नाश्ता !”

  “दूध और कोर्नफ्लेक्स तेरी ही तो पसंद है।” 

     “यह तो आपकी पसंद है माँ । मुझे जबर्दस्ती दूध पिलाती हो।”

     “मोरपंखी तू ही बता दे अपनी पसंद !”मौसी ने लाड़ लड़ाया।

     “टॉफी -चॉकलेट !”

     “अभी  चॉकलेट नहीं हैं ।” माँ ने उसे घूरा ।  

    घर में चॉकलेट नहीं ! अविश्वास से वह आँखें झपकने लगी। अभी हाल ही में तो उसने मम्मी को चॉकलेट का  डिब्बा छिपाते देखा था।  मन मारकर दूध -कोर्नफ्लेक्स गटक गई।

   अगली सुबह वह मौसी के साथ छत पर गई। साथ में एक डिब्बा भी था। चहकते बोली –मौसी,देखो!  मैं अपना नाश्ता साथ लाई हूँ।” डिब्बा हिलते  ही चॉकलेट चटर -पटर कर उठीं। । हंसोड़ चॉकलेट निकली।  उसने गप्प से मुंह में रख ली।  बातूनी चॉकलेट निकली तो उसे गटक गई। तीसरी बार तीन -तीन शैतान चॉकलेट झांकी ।मोरपंखी ने  उन्हें फटाफट चबा डाला।

    “अरी, गले में अटक गईं तो मुसीबत समझ।मौसी चौंक पड़ी।  

   “ मैं तो पूरा डिब्बा खतम करके रहूँगी।”

    “मेरी मोरनी, इतनी टॉफियाँ तो तेरे पेट में उछलने लगेंगी।” 

“उछलेंगी !गेंद की तरह!तब कल खाऊँगी । पर रोज खाऊँगी।“ वह थोड़ा डर गई। 

“तब तो दाँत झड़ जाएंगे। पोपली लगने लगेगी। फुटबॉल सी मोटी और हो जाएगी। फिर नाचेगी कैसे?

तभी मोरपंखी के पेट में टॉफियाँ हुल्लड़बाजी करने लगीं। लगा जैसे  उचककर कोई उसके पेट से टकरा रहा है। चोट लगने से वह सिसकने लगी।

माँ भड़क उठीं-“रोना -धोना बंद कर और दवा खा । दर्द कम होने पर बची टॉफियाँ भी सटक लीजो।” 

 “मैं क्या करूँ! इन्हें देखते ही मेरी जीभ टॉफी -टॉफी कहकर आँसू गिराने लगती है।’’

 पापा पिघल पड़े। पुचकारते बोले-“बेटा तुझे चाकलेट जरूर मिलेगी पर डार्क चॉकलेट खाया कर ।”

“क्यों पापा?”

“बच्ची , यह तो सौ मर्ज की एक दवा है। देख, शरीर के फायदे के लिए  कुछ केमिकल्स जैसे पौटेशियम आयरन,मेग्नेशियम हमारे लिए बहुत जरूरी है। पोटेशियम कम हो गया तो तू जल्दी थक जायेगी । फिर डांस कैसे करेगी ? मेग्नेशियम कम होने से कसरत  नहीं कर पायेगी । कभी कहेगी सिर दर्द हो रहा है कभी  पैर में दर्द। मैं तो डाक्टर के चक्कर लगाते -लगाते पागल हो जाऊंगा। आयरन तो बहुत जरूरी है । इससे  बाल लंबे हो जाएंगे। दाँत तो इतने मजबूत कि लोहा भी चबा लो।हैं न  चॉकलेट गुणों की खान । ”

‘आहा, फिर तो मैं दो  चोटी करूंगी, जब मैं  गोल -गोल घूमूंगी तो मेरी चोटियाँ भी हवा में लहराएंगी।लेकिन मुझे तो भूरी चाकलेट एकदम कड़वी लगती है।  एक बार आपने दी थी ।  मैंने तो चुपके से उसे नाली में डाल दिया ।  मैं तो उसके बिना भली। देखो मेरे हाथ कितने मजबूत हैं। एक मिनट में बिल्ली भगा दूँ। उड़ते मच्छर को मसल दूँ।”

“हा-हा मेरे बहादुर, यह सब अनार संतरा ,आलू ,केला खाने  का नतीजा है। इनमें भी केमिकल्स होते  है। अगर तुम फलों के साथ- साथ डार्क चॉकलेट भी खाने लगो तो दुगुनी ताकत आ जाएगी।  ”

“ फिर तो मैं हाथी को भी मार गिराऊंगी,बंदर की  ढिशुम कर दूँगी।” मोरपंखी उत्साहित हो उठी।

“तो हो जाय  डार्क चॉकलेट ।“

“हाँ पापा ,अब तो मैं मिल्क चॉकलेट चखूँगी भी नहीं। सारे दिन ताता थईया—ताता थइया करके थकूँगी भी नहीं । और हाँ !अब डाक्टर के पास जाने की आपकी छुट्टी।‘’

“अरे वाह!फिर तो मेरी बेटी जरूर चॉकलेटी डांसर बन जाएगी ।”

मोरपंखी दौड़कर अपने पापा की बाहों में समा गई।

समाप्त 


सोमवार, 18 अप्रैल 2022

पायस पत्रिका अप्रैल मास 2022 में प्रकाशित


बालकहानी 

गौरी की नूरी 

सुधा भार्गव 



 
 

  


धनराज को हमेशा चिंता रहती कि बच्चों की सेहत कैसे बने?उन्हें अपने पोते सारंगी की सेहत की चिंता तो खाये जा रही थी। एक दिन उनके दोस्त पुखराज ने सुझाव दिया -"धनराज तू एक गाय खरीद ले। "

   यह सुनकर सारंगी खुश होकर बोला , " बाबा उसका नाम रखेंगे गौरी।   लेकिन वह रहेगी कहाँ? "

    "तेरे कमरे में रहेगी। तेरे लिए ही तो गाय खरीद रहा हूँ। जिससे उसका दूध पीकर हट्टा कट्टा हो  जाये।" बाबा धनराज  मज़ाक करते ठी--ठी हंस पड़े। 

     "न --न मेरे कमरे में हरगिज नहीं रहेगी। उफ गोबर से एकदम बदबू फैला देगी।" उसने नाक बंद करते कहा। 

     "अरे क्यों खिजा रहा है छोटे से बच्चे को धनराज । बेटा चिंता न कर । उसका घर हम अहाते के एक कोने में बनवा देंगे।" पुखराज बोले । 

     अगले दिन अहाते में छप्पर डालकर गाय का छोटा सा हवादार घर बनवा दिया । दोनों मित्र बड़ी मोटी -ताजी लाल गाय खरीदकर ले आए। अब तो पौ फटते ही पुखराज सारंगी के घर आन धमकते। वे और उसके बाबा हंसी ठट्ठा करते गाय को ,चारा खिलाते ,दूध दोहते और फिर सारंगी के माँ के हाथ की गरम गरम चाय पीकर घूमने निकल जाते। 

     सारंगी  स्कूल से आकर गौरी गाय से मिलने जाता पर दूर दूर ही रहता । गौरी उसे बड़ी अजीब लगती। वह उसे प्यार भरी निगाहों से देखती, चाहती सारंगी  उसके पास आए ,उससे दोस्ती करे । पर वह  एक कोने में खड़ा उसे टुकुर टुकुर देखता रहता। 

      एक दिन सारंगी  ने ही अपनी चुप्पी तोड़ी।  बोला-"गौरी तुम हो तो बहुत सुंदर,आँखें तो  चमकती ही रहती हैं।   पर खाती कैसे हो?एकदम जंगलियों की तरह।नाद में जैसे ही चारा  देखती हो उस पर नदीदों की तरह टूट पड़ती हो । जैसे पहले कभी देखा ही न हो। जल्दी जल्दी उसे गपागप मुंह में भरकर  सटक लेती हो। चबाती भी नहीं हो ठीक से। बाबा कहते हैं छोटे- छोटे गस्से खूब चबा चबा कर खाने चाहिए।" 

    गाय हँस दी।

     "चलो तुम बोले तो । कब से तुम्हारे दो बोल सुनने को तरस रही थी। पर बिना कारण जाने तुमने मुझे न जाने क्या क्या कह दिया। पहले गायें घरों में नहीं पलती थीं। वे जंगलों में रहती थीं। तुम तो जानते ही हो वहाँ शेर चीता हमारे हजार दुश्मन!उनके डर के मारे घास-पत्ते जल्दी जल्दी मुंह में ठूँस कर भाग जाते ।बस वह हमारी आदत बन गई है।''  

     "लेकिन गौरी जल्दी जल्दी सटकने से तो पेट में दर्द हो जाता है। "

    "हमारे पेट में दर्द नहीं होता यही तो मजा है।'' 

    "क्यों! क्या तुम्हारा पेट सबसे अलग है।'' 

    "यही समझ लो। मेरे चार पेट हैं।'' 

    "क्या ?एक नहीं दो नहीं चार - चार !चार उँगलियाँ दिखाते हुए वह   आश्चर्य से उछल पड़ा। 

     "हाँ चार पेटों में बारी बारी से चारा जाकर हजम होता है। 

    "तुम तो बड़ी दिलचस्प हो।" 

    "और एक बात बताऊं?सुनकर हैरान रह जाओगे।'' 

    ''हाँ --हाँ बताओ न ।'' 

    "मैं पहले तो अपना भोजन जल्दी -जल्दी निगल लेती हूँ । फिर उसे दुबारा मुंह में ले आती हूँ।" 

    "मुझे तो सुनकर ही घिन्न आ रही है । इससे तुम्हें उल्टी नहीं होती?"

    "एकदम नहीं। फिर आराम से उसे धीरे धीरे चबाती हूँ। एक तरह से जुगाली करती हूँ।'' 

    "न जाने तुम कैसे चबाती हो?चप चप की आवाज होती रहती  है । मुझे यह एकदम अच्छा नहीं लगता। खाते समय कोई आवाज करता है क्या?मुंह बंद करके खाना चाहिए।''

     "मैं मुंह बंद करके नहीं खा सकती। मेरे केवल नीचे के जबड़े में दांत है ऊपर नहीं।चारे को मुंह में घुमाते हुए चबाना पड़ता है ।"  

    "यह कैसे हो सकता है!मुंह खोलो जरा देखूँ तो।" 

    उसने नीचे झुककर उसके खुले मुंह में झाँका तो आँखें चौड़ गईं। । 

     "बाप रे  तुम्हारे तो ऊपर के दांत हैं ही नहीं।  पर ऊपर का जबड़ा बहुत पैना लग रहा है। लगता है दांत 

निकलते निकलते अंदर ही रह गए। अच्छा अब तुम जुगाली करो पर देखो गौरी ,कल की तरह लार जरा भी न टपकाना।" 

    "लार तो मैं जरूर टपकाऊंगी ।" 

    "तब तो मैं चला।"

    " ओह सारंगी रूठो मत। मेरे चारे में नमक मिला रहता है उससे लार ज्यादा बनती है। अब बताओ मैं क्या कर सकती हूँ।'' 

    "मैं बाबा से कह दूंगा कल से वे नमक न डालें।'' 

     "न -- न  ऐसा कभी न करना। लार पैदा होने से खाना मेरा जल्दी हजम हो जाता है। पेट हल्का होने से मैं खुश रहती हूँ। मैं जितना खुश रहूँगी उतना ही ज्यादा मीठा -मीठा दूध दे पाऊँगी।" 

    "और जितना मीठा दूध मैं पीऊँगा उतना ही मैं खुश रहूँगा। वह भी उछलता बोला। सारंगी ने पहली बार गौरी के सिर को प्यार से सहलाया।" 

      दोनों में अच्छी ख़ासी दोस्ती हो गई। शाम होते ही गौरी  सारंगी  को याद करती और  रंभाने लगती। सारंगी भी अपना खेल छोड़ गौरी  के पास भागा चला आता। 

        कुछ दिनों के बाद सारंगी  ने देखा गौरी  के पास उससे मिलता जुलता छोटा सा एक बच्चा खड़ा है और वह उसे चाट  रही है। देखने में बड़ा सुन्दर ,कोमल सा दूध सा सफेद । उसका मन चाहा वह भी उसे छूए , गोद में लेकर  प्यार करे। 

     "गौरी  यह तुम्हारा बच्चा है!मुझे  बहुत अच्छा लग रहा है ।" 

      "बच्चा नहीं बच्ची है। हाँ ,मैं इसकी माँ हूँ । इस प्यारी सी नूरी को मैं जरा दूध पिला लूँ तब तुमसे बात करूंगी। यह भूखा रही  तो मुझे चैन नहीं मिलेगा। "

     "नूरी --गौरी की नूरी। वाह बहुत अच्छा नाम सोचा। हाँ पहले नूरी का पेट भर दो । मेरे भूखे रहने पर मेरी माँ भी ऐसा कहती है। "

     माँ शब्द सुनकर गौरी की आँखें चमकने लगी । उसे माँ बनकर बहुत अच्छा लग रहा था। 

घर में सब गौरी और नूरी का बहुत ध्यान रखते । एक हफ्ते में तो नूरी और भी सलोनी लगने लगी।सारंगी  को नूरी के साथ खेलना बड़ा अच्छा लगता। 

      एक शाम जब सारंगी गौरी से मिलने गया तो वह उसे बड़ी सुस्त लगी। नूरी उस समय अपनी माँ का दूध पी रही थी। उसके नजदीक आया तो वह चौंक पड़ा -"अरे गौरी तू  रो रही है ?"अब तो   उसके आँसू और तेजी से बह चले। सारंगी बड़ा दुखी हो उठा। उसने उसे पुचकारा -"बता न गौरी क्या हुआ।'' 

     "सारंगी  कल मैंने दूध कम दिया था ।दद्दा ने सोचा  नूरी कुछ ज्यादा ही दूध पी गई है।इसलिए आज उन्होंने  पहले नूरी को मेरे से दूर खूँटे से बांध दिया । फिर सारा दूध निकाल लिया । मैं खड़ी खड़ी लाचार अपने भूखे बच्चे को तड़पता देखती रही। उसके हिस्से का दूध तुम सबके लिए देती रही। यह कैसी मजबूरी है। मेरा बच्चा मेरे दूध के लिए तड़पे और उसके हिस्से का दूध दूसरों की भूख मिटाये।" 

    "तू रो मत गौरी । कल से यह नहीं होगा।'' 

     "कल भी होगा। क्योंकि दूध मैंने आज भी कम दिया है ।" 

    "आज कम क्यों दिया?" 

    "आज मैं बहुत दुखी थी। ऐसे में दूध नहीं दे पाती। भूल गए मैंने एक बार कहा था -ज्यादा खुश होने पर ही ज्यादा दूध दूँगी।" 

     "तू ठीक कह रही है गौरी । मैं बिलकुल तेरी तरह हूँ। मैं भी खुश होने पर खूब पढ़ता हूँ। पाठ फटाफट याद हो जाता है। दुखी होकर पढ़ने बैठता हूँ तो धिल्ला भर दिमाग में नहीं घुसता। अच्छा मुझे सोचने दे । देखूँ तेरे लिए क्या कर सकता हूँ।"   

      रास्ते भर कुछ न कुछ तरकीब भिड़ाता सारंगी घर पहुंचा।मेज पर दूध का गिलास रखा था। उसने उसे छुआ तक नहीं, पीने की बात तो बहुत दूर की रही। बार बार उसकी आँखों के सामने गौरी का आँसू भरा उदास चेहरा आ रहा था। 

     माँ ने टोका -"अरे तूने दूध अभी तक नहीं पीया।" 

    "माँ मैं नूरी के हिस्से का दूध गले से नीचे नहीं उतार सकता। आज वह भूखी है। मैं भी भूखा रहूँगा।"  सारंगी ने गुस्से में भरकर कहा। 

    "यह नूरी कौन है?"

     "गौरी की बच्ची । "

     "ओह बछिया की बात कर रहा है। तुझे कैसे मालूम वह भूखी है?"

     "मैं खुद देखकर आ रहा हूँ। दूध निकालने से पहले बाबा ने उसे माँ से अलग कर दिया और सारा दूध निकालकर आ गए। अब नूरी क्या पीये  बोलो।उसके हिस्से का दूध तो मैं चख भी नहीं सकता। माँ मेरे भूखे रहने से आप कितनी दुखी हो। गौरी गैया भी इतनी ही दुखी होगी। मालूम है वह क्या कह रही थी !वह कह रही थी --जितना मैं खुश होती हूँ उतना ज्यादा दूध देती हूँ। दुखी होने पर दूध कम देती हूँ।" कहते कहते उसकी  आँखें भर आईं। 

 

     सारंगी  की माँ उसका मुंह देखती रह गई। जो बात घर के बड़े न समझ सके भोला -भाला बच्चा उसे पल में भाँप गया। उसने  उसे अपने कलेजे से लगा लिया। बोली -"बेटा कल से न नूरी भूखी रहेगी और न ही उसकी माँ उदास। अब अपनी भूख हड़ताल तो बंद कर दे। "

    " न माँ मुझसे कुछ खाने को न कहो। मैं सुबह ही दूध पीऊँगा जब नूरी भर पेट दूध पी लेगी। " 

अपनी बात का पक्का सारंगी  भूखे पेट ही सो गया। 

     उसके बाबा को जब पता चला  तो वे परेशान हो उठे। सारी रात करवटें बदलते रहे।  सुबह आप जानकर  वे दूध दुहने देर से पहुँचें ,तब तक नूरी अपनी माँ का  दूध भरपेट पी चुकी थी। उस दिन वाकई में गौरी ने खूब दूध दिया --इतना ज्यादा दूध कि बर्तन से बाहर छलक छलक  पड़ता। 

    सारंगी  ने  भूख हड़ताल खतम करके  गौरी का मीठा दूध छककर पीया । फिर तुरंत वह नूरी और गौरी से मिलने चल दिया। उस समय नूरी उछलती कूदती अपनी माँ के चक्कर लगा रही थीऔर गौरी  --वह तो ममता की चादर में लिपटी अपनी नूरी को बस  निहारने में लगी  थी।उनको खिला खिला देख सारंगी  भी खिल उठा। सारंगी की आहट पा गौरी ने गर्दन घुमाई । मोती सी चमकती दो आंखें अपने दोस्त का धन्यवाद करने लगीं।