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महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का अभिक्रम
हिन्दी समय पर इस हफ्ते पढ़िए मेरी तीन बाल कहानियाँ --
१-मूर्खता की नदी
२-महागुरू
३ -लपक लड्डू
1-मूर्खता की नदी
एक लड़का
था। उसका नाम मुरली था। वह वकील साहब के घर में काम करता । वकील साहब ज़्यादातर अपना
समय लाइब्रेरी में बिताया करते।वहाँ अलमारियों में छोटी-बड़ी,पतली-मोती किताबों
की भीड़ लगी हुई थी।
मुरली को
किताबें बहुत पसंद थीं मगर वह उनकी भाषा नहीं समझ पाता। खिसियाकर अपना माथा खुजाने
लगता। उसकी हालत देख किताबें खिलखिलाकर हंसने लगतीं।
एक दिन उसने वकील साहब को मोंटी सी किताब पढ़ते देखा Iउनकी नाक पर चश्मा रखा था और जल्दी -जल्दी उसके पन्ने पलट रहे थे I
कुछ सोचकर वह कबाड़िया की दुकान पर गया जहाँ पुरानी और सस्ती किताबें मिलती थीं ।
-चाचा मुझे बड़ी से ,मोटी सी किताब दे दो Iउसने कहा ।
-किताब का नाम ?
-कोई भी चलेगी I
-कोई भी चलेगी ....कोई भी दौड़ेगी ......!तू अनपढ़ ...किताब की क्या जरूरत पड़ गई I
- पढूंगा I
-पढ़ेगा---- !चाचा की आँखों से हैरानी टपकने लगी i
-कैसे पढ़ेगा ?
-बताऊँ ...I
-बता तो ,तेरी खोपड़ी में क्या चल रहा है I
-बताऊँ ..बताऊँ ...I
मुरली धीरे से उठा ,कबाड़िया की तरफ बढ़ा और उसका चश्मा खींचकर भाग गया I
भागते भागते बोला --चाचा ..चश्मा लगाने से सब पढ़ लूंगा Iमेरा मालिक ऐसे ही पढ़ता है I २-३ दिन बाद तुम्हारा चश्मा,और किताब लौटा जाऊँगा I
वकील साहब की लायब्रेरी में ही जाकर उसने दम लिया I कालीन पर आराम से बैठ कर अपनी थकान मिटाई I चश्मा लगाया और किताब खोली I
किताब में क्या लिखा है ...कुछ समझ नहीं पाया I उसे तो ऐसा लगा जैसे छोटे -छोटे काले कीड़े हिलडुल रहे हों I कभी चश्मा उतारता,कभी आँखों पर चढ़ाता I
-क्या जोकर की तरह इधर-उधर देख रहा है I चश्मा भी इतना बड़ा .....आँख -नाक सब ढक गये ,चश्मा है या तेरे मुँह का ढक्कन I किताब ने मजाक उड़ाया I
-बढ़ -बढ़ के मत बोल I इस चश्मे से सब समझ जाऊंगा तेरे मोटे से पेट में क्या लिखा है I
-अरे मोटी बुद्धि के - - चश्मे से नजर पैनी होती है बुद्धि नहीं I बुद्धि तो तेरी मोटी ही रहेगी I धिल्ला भर मुझे नहीं पढ़ पायेगा।
मुरली घंटे भर किताब से जूझता रहा पर कुछ उसके पल्ले न पड़ा I झुंझलाकर किताब मेज के नीचे पटक दी I
रात में उसने लाइब्रेरी में झाँका । देखा -- मालिक के हाथों में पतली सी किताब है I बिजली का लट्टू चमचमा रहा है और उन्होंने चश्मा भी नहीं पहन रखा है I
मुरली उछल पडा --रात में तो मैं जरूर --पढ़ सकता हूं I चश्मे की जरूरत ही नहीं I
सुबह होते ही वह किताबों की दुकान पर जा पहुँचा I
-लो चाचा अपनी किताब और चश्मा I मुझे तो पतली सी किताब दे दो I लट्टूकी रोशनी में चश्मे का क्या काम है I
बिना चश्मे के कबाड़ी देख नहीं पा रहा था I उसे पाकर बहुत खुश हुआ बोला -
-तू एक नहीं दस किताबें ले जा पर खबरदार ---मेरा चश्मा छुआ तो......|
मुरली ने चार किताबें बगल में दबायीं I झूमता हुआ वहाँ से चल दिया I घर में जैसे ही पहला बल्ब जला उसके नीचे किताब खोलकर बैठ गया I पन्नों के कान उमेठते -उमेठते उसकी उँगलियाँ दर्द करने लगीं पर वह एक अक्षर न पढ़ सका I
कुछ देर बाद लाइब्रेरी में रोशनी हुई I मुरली चुपके से अन्दर गया और सिर झुकाकर बोला -मालिक आप मोटी किताब के पन्ने पलटते हो उसमें क्या लिखा है --सब समझ जाते हो क्या ?
-समझ तो आ जाता है । क्यों ?क्या बात है ?
-मैं मोंटी किताब लाया ,फिर पतली किताब लाया मगर वे मुझसे बातें ही नहीं करतीं I
-बातें कैसे करें !तुम्हें तो उनकी भाषा आती नहीं I भाषा समझने के लिए उसे सीखना होगा I सीखने के लिए मूर्खता की नदी पार करनी पड़ेगी I
--नदी --I
-हाँ ,,,Iअच्छा बताओ ,तुम नदी कैसे पार करोगे ?
एक दिन उसने वकील साहब को मोंटी सी किताब पढ़ते देखा Iउनकी नाक पर चश्मा रखा था और जल्दी -जल्दी उसके पन्ने पलट रहे थे I
कुछ सोचकर वह कबाड़िया की दुकान पर गया जहाँ पुरानी और सस्ती किताबें मिलती थीं ।
-चाचा मुझे बड़ी से ,मोटी सी किताब दे दो Iउसने कहा ।
-किताब का नाम ?
-कोई भी चलेगी I
-कोई भी चलेगी ....कोई भी दौड़ेगी ......!तू अनपढ़ ...किताब की क्या जरूरत पड़ गई I
- पढूंगा I
-पढ़ेगा---- !चाचा की आँखों से हैरानी टपकने लगी i
-कैसे पढ़ेगा ?
-बताऊँ ...I
-बता तो ,तेरी खोपड़ी में क्या चल रहा है I
-बताऊँ ..बताऊँ ...I
मुरली धीरे से उठा ,कबाड़िया की तरफ बढ़ा और उसका चश्मा खींचकर भाग गया I
भागते भागते बोला --चाचा ..चश्मा लगाने से सब पढ़ लूंगा Iमेरा मालिक ऐसे ही पढ़ता है I २-३ दिन बाद तुम्हारा चश्मा,और किताब लौटा जाऊँगा I
वकील साहब की लायब्रेरी में ही जाकर उसने दम लिया I कालीन पर आराम से बैठ कर अपनी थकान मिटाई I चश्मा लगाया और किताब खोली I
किताब में क्या लिखा है ...कुछ समझ नहीं पाया I उसे तो ऐसा लगा जैसे छोटे -छोटे काले कीड़े हिलडुल रहे हों I कभी चश्मा उतारता,कभी आँखों पर चढ़ाता I
-क्या जोकर की तरह इधर-उधर देख रहा है I चश्मा भी इतना बड़ा .....आँख -नाक सब ढक गये ,चश्मा है या तेरे मुँह का ढक्कन I किताब ने मजाक उड़ाया I
-बढ़ -बढ़ के मत बोल I इस चश्मे से सब समझ जाऊंगा तेरे मोटे से पेट में क्या लिखा है I
-अरे मोटी बुद्धि के - - चश्मे से नजर पैनी होती है बुद्धि नहीं I बुद्धि तो तेरी मोटी ही रहेगी I धिल्ला भर मुझे नहीं पढ़ पायेगा।
मुरली घंटे भर किताब से जूझता रहा पर कुछ उसके पल्ले न पड़ा I झुंझलाकर किताब मेज के नीचे पटक दी I
रात में उसने लाइब्रेरी में झाँका । देखा -- मालिक के हाथों में पतली सी किताब है I बिजली का लट्टू चमचमा रहा है और उन्होंने चश्मा भी नहीं पहन रखा है I
मुरली उछल पडा --रात में तो मैं जरूर --पढ़ सकता हूं I चश्मे की जरूरत ही नहीं I
सुबह होते ही वह किताबों की दुकान पर जा पहुँचा I
-लो चाचा अपनी किताब और चश्मा I मुझे तो पतली सी किताब दे दो I लट्टूकी रोशनी में चश्मे का क्या काम है I
बिना चश्मे के कबाड़ी देख नहीं पा रहा था I उसे पाकर बहुत खुश हुआ बोला -
-तू एक नहीं दस किताबें ले जा पर खबरदार ---मेरा चश्मा छुआ तो......|
मुरली ने चार किताबें बगल में दबायीं I झूमता हुआ वहाँ से चल दिया I घर में जैसे ही पहला बल्ब जला उसके नीचे किताब खोलकर बैठ गया I पन्नों के कान उमेठते -उमेठते उसकी उँगलियाँ दर्द करने लगीं पर वह एक अक्षर न पढ़ सका I
कुछ देर बाद लाइब्रेरी में रोशनी हुई I मुरली चुपके से अन्दर गया और सिर झुकाकर बोला -मालिक आप मोटी किताब के पन्ने पलटते हो उसमें क्या लिखा है --सब समझ जाते हो क्या ?
-समझ तो आ जाता है । क्यों ?क्या बात है ?
-मैं मोंटी किताब लाया ,फिर पतली किताब लाया मगर वे मुझसे बातें ही नहीं करतीं I
-बातें कैसे करें !तुम्हें तो उनकी भाषा आती नहीं I भाषा समझने के लिए उसे सीखना होगा I सीखने के लिए मूर्खता की नदी पार करनी पड़ेगी I
--नदी --I
-हाँ ,,,Iअच्छा बताओ ,तुम नदी कैसे पार करोगे ?
-हमारे गाँव में एक नदी हैI एक बार हमने देखा छुटकन को नदी पार करते I किनारे पर खड़े होकर जोर से उछल कर वह नदी में कूद गया Iमुरली बोला ।
-तब तो तुम भी नदी पार कर लोगे I
-अरे हम कैसे कर सके हैं Iहमें तैरना ही नहीं आता - - ड़ूब जायेंगे I
-तब तो तुम समझ गये --नदी पार करने के लिए तैरना आना जरूरी है I
-बात तो ठीक है I
-इसी तरह मूर्खता की नदी पार करने के लिए पढ़ना जरूरी हैIपढ़ाई की शुरुआत भी किनारे से करनी होगी Iवह किनारा कल दिखाऊंगा I
-तब तो तुम भी नदी पार कर लोगे I
-अरे हम कैसे कर सके हैं Iहमें तैरना ही नहीं आता - - ड़ूब जायेंगे I
-तब तो तुम समझ गये --नदी पार करने के लिए तैरना आना जरूरी है I
-बात तो ठीक है I
-इसी तरह मूर्खता की नदी पार करने के लिए पढ़ना जरूरी हैIपढ़ाई की शुरुआत भी किनारे से करनी होगी Iवह किनारा कल दिखाऊंगा I
कल का मुरली
बेसब्री से इन्तजार करने लगा I उसका
उतावलापन टपका पड़ता था I
-माँ ---माँ ,कल मैं मालिक के साथ घूमने जाऊँगा
-क्या करने !
-तूने तो केवल नदी का किनारा देखा होगा ,मैं पढ़ाई का किनारा देखने जाऊँगा I
माँ की आँखों में अचरज झलकने लगा I
दूसरे दिन मुरली जब अपने मालिक से मिला,वे लाईब्रेरी में एक पतली सी किताब लिए बैठे थे I मुरली को देखते ही वे उत्साहित हो उठे --
-मुरली यह रहा तुम्हारा किनारा !किताब को दिखाते हुए बोले I
-नदी का किनारा तो बहुत बड़ा होता है ---यह इतना छोटा !इसे तो मैं एक ही छलांग में पार कर लूंगा I
-इसे पार करने के लिए अन्दर का एक -एक अक्षर प्यार से दिल में बैठाना होगा I इन्हें याद करने के बाद दूसरी किताब फिर तीसरी किताब - - - -|
-फिर मोंटी किताब ---और मोंटी किताब --मुरली ने अपने छोटे -छोटे हाथ भरसक फैलाये I
कल्पना के पंखों पर उड़ता वह चहक रहा था Iथोड़ा थम कर बोला --
-क्या मैं आपकी तरह किताबें पढ़ लूंगा ?
-क्यों नहीं !लेकिन किनारे से चलकर धीरे -धीरे गहराई में जाओगे I फिर कुशल तैराक की तरह मूर्खता की नदी पार करोगे Iउसके बाद तो मेरी किताबों से भी बातें करना सीख जाओगे I
मुरली ने एक निगाह किताबों पर डाली वे हँस-हँसकर उसे अपने पास बुला रही थीं I लेकिन मुरली ने भी निश्चय कर लिया था -किताबों के पास जाने से पहले उनकी भाषा सीख कर ही रहूँगा I
वह बड़ी लगन से अक्षर माला पुस्तक खोलकर बैठ गया तभी सुनहरी किताब परी की तरह फर्र -फर्र उड़कर आई |
बोली --मुरली , तुम्हें पढ़ता देख कर हम बहुत खुश हैं I अब तो हँस -हंसकर गले मिलेंगे और खुशी के गुब्बारे उड़ायेंगे ।
मुरली के गालों पर दो गुलाब खिल उठे और उनकी महक चारों तरफ फैल गई |
-माँ ---माँ ,कल मैं मालिक के साथ घूमने जाऊँगा
-क्या करने !
-तूने तो केवल नदी का किनारा देखा होगा ,मैं पढ़ाई का किनारा देखने जाऊँगा I
माँ की आँखों में अचरज झलकने लगा I
दूसरे दिन मुरली जब अपने मालिक से मिला,वे लाईब्रेरी में एक पतली सी किताब लिए बैठे थे I मुरली को देखते ही वे उत्साहित हो उठे --
-मुरली यह रहा तुम्हारा किनारा !किताब को दिखाते हुए बोले I
-नदी का किनारा तो बहुत बड़ा होता है ---यह इतना छोटा !इसे तो मैं एक ही छलांग में पार कर लूंगा I
-इसे पार करने के लिए अन्दर का एक -एक अक्षर प्यार से दिल में बैठाना होगा I इन्हें याद करने के बाद दूसरी किताब फिर तीसरी किताब - - - -|
-फिर मोंटी किताब ---और मोंटी किताब --मुरली ने अपने छोटे -छोटे हाथ भरसक फैलाये I
कल्पना के पंखों पर उड़ता वह चहक रहा था Iथोड़ा थम कर बोला --
-क्या मैं आपकी तरह किताबें पढ़ लूंगा ?
-क्यों नहीं !लेकिन किनारे से चलकर धीरे -धीरे गहराई में जाओगे I फिर कुशल तैराक की तरह मूर्खता की नदी पार करोगे Iउसके बाद तो मेरी किताबों से भी बातें करना सीख जाओगे I
मुरली ने एक निगाह किताबों पर डाली वे हँस-हँसकर उसे अपने पास बुला रही थीं I लेकिन मुरली ने भी निश्चय कर लिया था -किताबों के पास जाने से पहले उनकी भाषा सीख कर ही रहूँगा I
वह बड़ी लगन से अक्षर माला पुस्तक खोलकर बैठ गया तभी सुनहरी किताब परी की तरह फर्र -फर्र उड़कर आई |
बोली --मुरली , तुम्हें पढ़ता देख कर हम बहुत खुश हैं I अब तो हँस -हंसकर गले मिलेंगे और खुशी के गुब्बारे उड़ायेंगे ।
मुरली के गालों पर दो गुलाब खिल उठे और उनकी महक चारों तरफ फैल गई |
2-महागुरू
गर्मी के दिन थे सूरज अपने ताप पर था ।ऐसे समय मेँ एक लड़का पेड़ की छाया में बैठा ठंडी –ठंडी
हवा खाकर मस्त था ।केवल एक पाजामा पहने हुये था और धूप से बचाने के लिए सिर को
तौलिये से ढक रखा था ।
संयोग से वहाँ का राजा किसी काम से उधर ही आ निकला ।लड़के को देखकर वह ठिठक
गया ।उसके पास एक टीन का डिब्बा था ।उसमें से वह एक-एक
मूंगफली निकालता ,उसे छीलता। किसी में दो दाने निकलते ,किसी में तीन ।वह खुशी में आकर उन्हें हथेली
पर रख कर उछालता फिर उन्हें लपकता ।बड़े हँसते हुए हाथ
नचा -नचा कर कहता -
-चल मेरी मूंगफली
चल
मेरे मुंह में
चबा -चबा कर खाऊँगा `
भुर्ता तुझे बनाऊंगा
खाली पेट बुलाऊं तुझको
अपनी भूख मिटाऊँगा ।
लड़का एक बार में एक ही दाना खाता पर बहुत धीरे -धीरे ।जब वह उसे निगल लेता
तो दूसरा दाना उँगलियों के बीच दबाकर पहले गाता फिर उसे इतराते हुए जीभ पर रखता और
चबाना शुरू करता ।
-बालक तुम तो बड़े अजीब हो दाने खाने में इतना समय
लगा रहे हो ।इससे तो अच्छा है दो -तीन दाने एकसाथ
मुंह में रखकर चबा डालो ।गाना गाना ही है तो चबाते -चबाते भी गा सकते हो ।खाने में
कितना समय बर्बाद कर रहे हो ।
-लड़के ने ऊपर से नीचे राजा को घूर कर देखा और बोला –
श्रीमान आप महलों में रहने वाले --- मेरी बात समझ नहीं
पाएंगे।आपने भूख नहीं देखी है । भूख की खातिर तो
न जाने लोग क्या -क्या करते हैं ,मैं तो केवल समय ही नष्ट कर
रहा हूँ वह भी अपना ।
तब भी आपको समझाने की कोशिश करता हूँ ।
मैं सुबह से भूखा हूँ ।एक –एक करके दाने निकालने –खाने और गाने में समय तो लगता है पर उतनी देर मुझे भूख नहीं लगती।गाना गाकर मैं अपने सब
दुःख भूल जाता हूँ और भूल जाता हूँ कि मूंगफली ख़तम हो जाने के बाद क्या खाऊँगा ।
अब आप ही बताइए क्या मैं गलत करता हूँ ।
-तुम तो बहुत चतुर हो।तुमसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ।बोलो,मेरे
साथ चलोगे।
-हा –हा !आप तो मजाक करते हैं मैं
खुली हवा मेँ रहने वाला पंछी !महल तो मेरे लिए कैदखाना है कैदखाना ।चंद आराम
के लिए मैं अपनी आजादी नहीं खो सकता
-जब इच्छा हो तब यहाँ चले आना ,इसमें क्या मुश्किल
है !
-अच्छा ---चलता हूँ ,देखता हूँ आपके साथ मेरा क्या भविष्य है ?
लड़का ठहरा बातूनी !एक बार इंजन चालू हुआ तो चालू !महल तक का रास्ता पार
करना उसके लिए मुश्किल हो रहा था
सो पूछ बैठा-- आप मुझसे कुछ सीखना चाहते हैं ।
-बिलकुल ठीक कहा !
-इसका मतलब मैं आपका गुरू हुआ ।
-गुरू ----गुरू नहीं महागुरू ।राजा ने हाथ जोड़ दिये ।
महल मेँ पहुँचते ही राजा को लड़के के साथ दरबार
मेँ जाना पड़ा ।आदत के अनुसार राजा सिंहासन पर बैठ
गया ।लड़का 2मिनट तो खड़ा रहा फिर तपाक से बोला –वाह महाराज
!यहाँ आते ही गिरगिट की तरह रंग बदल लिया।अपने गुरू को ही भूल गए ।
राजा बहुत शर्मिंदा हुआ ।तुरंत अपने सिंहासन से उतर पड़ा । चिल्लाकर सेवक
से कहा - मेरे से भी ऊंचा
सिंहासन जल्दी से लेकर आओ ।
पलक झपकते नौकर कुर्सी
लेकर हाजिर हो गया
-बैठिए बालगुरू ।राजा ने बड़ी शालीनता से कहा ।
-बस महाराज !मैं चलता हूँ फिर आऊँगा ।आज का पाठ पूरा हुआ ।आपको मालूम हो
गया कि गुरू का स्थान क्या होता है ।
बालगुरू चल दिया ।राजा सोच रहा था –यह बालक छोटा होते हुये
भी मुझसे बहुत बड़ा है।
एक पल में ही इसने मुझे
बहुत कुछ सिखा दिया ।.
समाप्त
-
3- लपकलड्डू
एक पेड़ पर कबूतर रहता था । सुबह होते ही वह पारस के आँगन में गुटर -गुटर करने लगता । पारस
को वह सुंदर कबूतर बड़ा अच्छा लगता । वह रुई की तरह सफेद था । पंख भी बड़े चिकने
थे। पारस की उम्र पाँच वर्ष ही थी । उसे घर से अकेले नहीं निकलने देते थे । उसके
हाथ छोटे छोटे थे । पैर भी छोटे थे । बड़ों की तरह वह भाग नहीं सकता था। लेकिन उसे
कबूत र के पीछे भागने में मजा
आता था ।
एक दिन पारस भी गुटर -गूँ करने लगा । कबूतर ने सोचा --वह उसकी नक़ल कर रहा है। उसे बहुत बुरा लगा । जल्दी वह उड़ा और अपनी पैनी चोंच पारस की हथेली में चुभो दी। हथेली से खून की पिचकारी छूट पडी । पारस के बहुत दर्द होने लगा । उसकी गोलमटोल आंखों में मोटे -मोटे आंसू आ गये । कबूतर भी घबरा गया । उसे ख्याल ही नहींं आया था कि खून भी बह सकता है ।
वह नदी के किनारे गया .चोंच में ठंडा पानी भरा।ऊंचाई से एक -एक बूंद पारस की हथेली पर सावधानी से टपकाने लगा । ठंडक से खून थम गया । पारस को उदास देखकर कबूतर को अपने ऊपर गुस्सा आने लगा ।
उसनेसोचा ----बदले की आग में जलकर उसने छोटे से बच्चे को बहुत कष्ट पहुंचाया । उसकी समझ में अब यह नहीं आ रहा था कि उसे कैसे खुश करे ।
वह शहर की ओर उड़ चला । उसने वहां हलवाई देखा जो बूंदी के लड्डू बना रहा था. उसकीखुशबू हवा में घुल गई थी । उसने एक लड्डू अपनी चोंच में दबाया और पारस की हथेली पर गिराना चाहा। हवा को शैतानी सूझी ,वह गोलाई में घूमी । अपने साथ लड्डू को भी घुमाने लगी । पारस ने लड्डू को लट्टू समझा । वह अचरज में पड़ गया । उसने लट्टू को गोल -गोल जमीन पर तो घूमते देखा था हवा में नहीं।
उसने लपक कर लड्डू को पकड़ लिया । मुट्ठी में कसकर भींचने लगा कहीं छूट न जाये उसकी पकड़ से ।
एक दिन पारस भी गुटर -गूँ करने लगा । कबूतर ने सोचा --वह उसकी नक़ल कर रहा है। उसे बहुत बुरा लगा । जल्दी वह उड़ा और अपनी पैनी चोंच पारस की हथेली में चुभो दी। हथेली से खून की पिचकारी छूट पडी । पारस के बहुत दर्द होने लगा । उसकी गोलमटोल आंखों में मोटे -मोटे आंसू आ गये । कबूतर भी घबरा गया । उसे ख्याल ही नहींं आया था कि खून भी बह सकता है ।
वह नदी के किनारे गया .चोंच में ठंडा पानी भरा।ऊंचाई से एक -एक बूंद पारस की हथेली पर सावधानी से टपकाने लगा । ठंडक से खून थम गया । पारस को उदास देखकर कबूतर को अपने ऊपर गुस्सा आने लगा ।
उसनेसोचा ----बदले की आग में जलकर उसने छोटे से बच्चे को बहुत कष्ट पहुंचाया । उसकी समझ में अब यह नहीं आ रहा था कि उसे कैसे खुश करे ।
वह शहर की ओर उड़ चला । उसने वहां हलवाई देखा जो बूंदी के लड्डू बना रहा था. उसकीखुशबू हवा में घुल गई थी । उसने एक लड्डू अपनी चोंच में दबाया और पारस की हथेली पर गिराना चाहा। हवा को शैतानी सूझी ,वह गोलाई में घूमी । अपने साथ लड्डू को भी घुमाने लगी । पारस ने लड्डू को लट्टू समझा । वह अचरज में पड़ गया । उसने लट्टू को गोल -गोल जमीन पर तो घूमते देखा था हवा में नहीं।
उसने लपक कर लड्डू को पकड़ लिया । मुट्ठी में कसकर भींचने लगा कहीं छूट न जाये उसकी पकड़ से ।
-अरे --रे –यह तो
लड्डू है । फूट भी गया ।
-कबूतर चिल्लाया --गुटर गूँ ,गुटर गूँ । पारस उसकी भाषा समझ गया । वह कह रहा था खाओ--खाओ !
पारस ने नहीं खाया । वह उसे कबूतर के साथ खाना चाहता था !
-कबूतर चिल्लाया --गुटर गूँ ,गुटर गूँ । पारस उसकी भाषा समझ गया । वह कह रहा था खाओ--खाओ !
पारस ने नहीं खाया । वह उसे कबूतर के साथ खाना चाहता था !
उसने मीठा लड्डू उसकी ओर
बढ़ा दिया । कबूतर ने अपनी गर्दन जोर से हिलाई और बोला ' -मैं नहीं खाऊंगा वरना
लड्डू की तरह गोल हो जाऊँगा ।'
पारस के चेहरे पर हँसी फर्राटे से दौड़ पड़ी !
पारस के चेहरे पर हँसी फर्राटे से दौड़ पड़ी !
कबूतर खुशी से नाचने लगा -' लगता है तुमने
मुझे माफ कर दिया है । अब लड्डू खाऊंगा।
दोनों मगन हो हिलमिलकर खाने लगे ।
दोनों मगन हो हिलमिलकर खाने लगे ।
समाप्त
तीनों ही कहानियां प्रेरक एवं मजेदार
जवाब देंहटाएंवंदना जी
हटाएंआपकी टिप्पणी से मेरा उत्साह बढ़ा । साभार ।