वनभोज/सुधा भार्गव
धनिया –पोधीना दो मित्र थे। उनके खेतों में सब्जियों की बहार थी। हरे-भरे
पालक ,मेथी, बथुआ हवा के साथ लहराते रहते।
लाल टमाटर सिर उठाए अठखेलियाँ करते। टमाटर- मूली -गाजर तो सब समय बतियाते और बैगन
राजा उनपर हुकुम चलाते।
सुबह ही धनिया –पोधीना ताजी-ताजी खिलखिलाती सब्जियों को सावधानी से तोड़कर
टोकरी में रखते और उन्हें बेचने सब्जी बाजार चल देते। उस दिन भी बाजार ही जा रहे
थे कि बादल घड़घड़ा उठे और बरसने लगे धड़-धड़ । सब्जी मंडी पहुँचते-पहुँचते पूरी तरह
भीग गए। काफी समय बैठे रहे पर मुश्किल से 3-4 खरीदार ही आए।
“धनिया ,मुझे तो लगे अब कोई न खरीदने आएगा। इन सब्जियों का क्या होगा?पानी से बुरी
तरह गीली हो गई है। जल्दी ही सड़ जाएंगी।”
“कैसे सड़ेंगी?मैं इन्हें सड़ने ही न दूंगा। पोधीना तू तो नाहक चिंता कर
रहा है।” धनिये ने बड़े इतमीनान से कहा।
“कैसे बचाएगा इन्हें नष्ट होने से—मैं भी तो जरा सुनूँ।”
“इसमें कहने-सुनने की क्या बात है?अपने पड़ोसियों में बाँट
देंगे। जो पैसा दे दे ठीक है न दे तो भी ठीक । कम से कम किसी के पेट में तो
जाएंगी।”
“तेरी सूझ तो अच्छी है।”
घर पहुँचकर यह बात दोनों ने अपनी
पत्नियों से कहा। धनिया की पत्नी
धन्नो इस बात के लिए राजी नहीं हुई और
बोली- “कच्ची सब्जी क्या देना। इन्हें पकाकर पड़ोसियों के घर पहुंचा दूँगी।”
“तू अकेली कैसे करेगी मेरी धन्नो ?”
“यह सब मुझ पर छोड़ दो। मेरी सहेलियाँ बुलाते ही मदद को दौड़ी-दौड़ी आएंगी।”
“ठीक है तू सब्जी पकाने का इंतजाम कर । मैं और पोधीना उसे घर -घर पहुंचा
देंगे।”
पड़ोसियों को जब यह मालूम हुआ तो बहुत
खुश हुए। एक बुजुर्ग महिला बोली –“सब्जियाँ तो बनकर आ ही रही हैं,क्यों
न कुछ मिलकर पूरी -पराँठे बना लें और खेतों के पास पेड़ों के नीचे बैठ सब मिलकर
आनंद से खाये।”
सबको यह सुझाव पसंद आया। दोपहर के एक बजते -बजते औरत,
मर्द और बच्चे पेड़ों के नीचे इखट्टे होने लगे।रोटी-सब्जी के अलावा जो जिससे बना
अपने साथ ला रहा था। कोई गन्ने के रस की खीर लाया तो कोई गुड़-आटे की बर्फी। कोई आम-नींबू
का आचार तो कोई पापड़ और मसालेदार मिर्ची । चमन तो अपने खेतों से गन्ने के गन्ने ही
तोड़ लाया कि भोजन के बाद इनको चूसकर दाँत मजबूत करेंगे।
गुदगुदी हरी घास पर सबने अपना डेरा जमाया। बच्चे कहाँ बैठने वाले। उन्होंने
तो पहुँचते ही हुल्लड़ मचाना शुरू कर दिया।
अक्कड़ बक्कड़ बंबे भौं
अस्सी नब्बे पूरे सौ
सौ पर पड़ा डाका
डाकू निकल कर भागा।
डाकू को पकड़ जकड़ लो
माफी मांगे तो छोड़ो -छोड़ो ।
कुछ तेजी से कबड्डी खेलने चल दिए। धूम मच
गई --
छल कबड्डी छल कबड्डी
बाप तेरा
बुड्ढा
माई तेरी
लंगड़ी ,
पकड़ ले
बेटा टँगड़ी।
छल कबड्डी छल कबड्डी
चल खेल
कबड्डी ।
औरतें एक तरफ बैठ गईं और मर्द दूसरी तरफ। दोनों के बीच तालियों की ताल पर गूंज उठे भजन-
शंकर जी भोले भाले
गले में
नाग डाले
जटा के
बाल काले
हम पर
दया करो ।
तभी एक छोटा सा बच्चा रोने लगा । उसकी माँ उठकर उसे मनाने लगी ---
लल्ला लल्ला लोरी
दूध की
कटोरी
दूध में बताशा
मुन्ना
करे तमाशा
कुछ देर में ही बच्चा हंसने लगा । माँ का उदास चेहरा भी गुलाब की तरह खिल गया।
बच्चों की टोली भी खेलते खेलते थक गई थी।
एक बोला-
भूख
लगी भूख लगी।
दूसरे शैतान लड़के ने जोड़ दिया
खाले
बेटा मूँगफली
तीसरी आवाज आई-
मूँगफली
में दाना नहीं
चौथी आवाज हंसी
आज
से तू मेरा मामा नहीं।
अनगिनत हंसी के फब्बारे छूटने लगे। साथ ही खाने के कटोरदान और डिब्बे खुलने लगे। घी और मसालों की महक से भूख और बढ़ गई। पहले बुजुर्गों और बच्चों को खिलाया गया। बाद में महिलाओं ने खाया।
आनंद की
घड़ियों में सारी दोपहरिया कैसे बीत गई पता ही न चला। पर घर तो जाना ही था--।
एक बोला –“भैया, इसी तरह का वृक्ष भोज अब कब होगा? मन तो किसी का भी
जाने को नहीं कर रहा।”
“दादू, अगले महीने ठीक
रहेगा।”
“हाँ रे
सुक्खू, महीने में एक बार तो होना ही चाहिए। साथ - साथ खाने,उठने-बैठने ,एक दूसरे के दुख -दर्द बांटने से प्यार
बढ़े ही है। मुझे तो ऐसा लगा जैसे कोई त्यौहार मना रहे हों।”
तब से उस
गाँव में हर माह वृक्ष भोज होने लगा। बाद में इसे वन भोज कहने लगे जो ग्रामवासियों
के लिए वनमहोत्सव से कम नहीं था।
समाप्त
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-10-2017) को "उलझे हुए सवालों में" (चर्चा अंक 2757) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'