॥3॥ बालों का जंगल
सुधा भार्गव
ताराचंद पढ़ी-लिखी बहू पाकर फूले नहीं समा रहे थे।
सोचा करते, “ बेटा बुद्धिमान , तो बहू
भी उससे कम नहीं। मेरे पोता -पोती तो इनसे भी बढ़कर निकलेंगे।”
एक दिन
हँसते हुए पत्नी से बोले –“जंगल बड़ा घना उग आया है। इसे मैं कटवाने जा रहा हूँ।”
‘घना जंगल’?
‘अरे देख न रही ये मेरे सिर पर ---बालों का जंगल !”
पत्नी भी
उनकी इस विनोदप्रियता पर मुसकाए बिना न रही।
अचानक बहू का स्वर उभरा- “बाबू जी आज तो मंगलवार
है, बाल न कटवाओ ।”
“क्यों बहू----?” आश्चर्य
से वे बहू नीलू को देखते रह गए। उनके चेहरे
का हास्य कपूर की तरह उड़ गया।
“इससे
अपशकुन ही अपशकुन होता है।”
“अपशकुन---!
यह बात तुमसे किसने कही?”
“मेरी
दादी कहा करती थीं।इसलिए भैया और पिताजी कोई भी मंगलवार को बाल नहीं कटवाता।”
“तुमने
इसका कारण तो पूछा होगा उनसे।”
“पहले
तो मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लगी----हिम्मत करके पूछा भी तो बड़ी ज़ोर से डांट पीने को
मिली , “छोरी दो अक्षर क्या पढ़ गई बड़ी कानूनबाजी करने लगी है। बाप ने तो एक बार
न पूछी। कान खोलकर सुन ले ---यह रिवाज
हमारे घर में दादा—परदादा के समय से चला
आ रहा हैं ----तुझे भी मानना होगा।”
“उसके
बाद तो कुछ पूछने का साहस ही नहीं हुआ। धीरे- धीरे यह सुनने और देखने की आदत सी पड़
गई। विश्वास भी होने लगा है कि मंगलवार को बाल कटवाने से कुछ अनहोनी जरूर हो जाएगी
”
“बिना
कारण पता किए इस रिवाज पर कैसे विश्वास कर लिया! एक अनपढ़ , सड़ी-गली रीति-रिवाजों के अनुसार चले तब भी ठीक है। पर तुम –ओह तुम बिना
तर्क किए कैसे इस विचार की अनुयायी हो गईं। इसी को तो कहते हैं अंधविश्वास। पढ़े-लिखे
भी इतने अंधविश्वासी!” ताराचंद इस झटके से कराह उठे।
नीलू का शर्म से सिर झुक गया और इस अंधविश्वास की
जड़ तक पहुँचने की उसने ठान ली। दिमाग पर
ज़ोर डालते हुए बोली- “बाबू जी कोई बात तो जरूर हुई होगी
जिससे लोगों के दिमाग में आया कि मंगलवार को बाल नहीं कटवाने चाहिए।”
“तुम ठीक कह रही हो नीलू। अब तुमने अपने दिमाग
से काम लिया। बहुत पहले हमारे देश में 75% लोग
गांवों में रहते थे जो किसान थे। हमारे तुम्हारे पूर्वजों में से कोई न कोई गाँव
में रहकर खेती जरूर करता होगा । पूरे हफ्ते कड़ी मेहनत के बाद किसानों को सोमवार का
दिन ही आराम करने को मिलता था। वे उस दिन घर की सफाई करते, ढाढ़ी बनवाते, बाल कटवाते। नाई भी सारे दिन व्यस्त रहता। मंगलवार को इक्का-दुक्का ही
उसकी दुकान पर जाता। वह भी सोचता होगा दो जन को कौन दुकान खोले। इसलिए उस दिन वह उसे बंद ही रखता। कोई नाई से बाल कटवाने की सोचता भी तो लोग
कहते -भैया---मंगल को बाल न कट सकें। यह वाक्य इतना प्रचलित हो गया कि मंगल को बाल
न कटवाने की प्रथा ही बन गई है। तुम जैसे शिक्षित लोगों को भी इस अंधविश्वास ने
अपने जाल में जकड़ रखा है। अब मैं क्या
बोलूँ –बोलूँगा तो बोलोगी –बाबू जी ऐसा बोलते हैं---तुम्हारी तरह उनके मन में भी
डर समा गया है कि मंगल को बाल कटवाने से जरूर कोई अमंगल होगा। होगा। कारण कोई
जानना ही नहीं चाहता है।
“आप ठीक कह रहे हैं । रीति-रिवाजों की गहराई में उतरने की मैंने ही कब
चेष्टा की!”
“अब तो पहले और आज के रहन सहन में जमीन-आसमान
का अंतर है। जगह- जगह सैलून खुल गए हैं। शहरी सभ्यता गांवों में भी पैर पसार रही
है। आँखें खुली होने पर भी लकीर के फकीर होना क्या ठीक है!”
“बाबू जी ,आप बड़े है। आप कुछ बताएँगे
हमारे भले के लिए ही तो बताएँगे ।अब से किसी प्रथा को मानते समय मैं अपनी
आँखें हमेशा खुली रखूंगी।”
समाप्त
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, भगवान से शिकायत “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंअन्यथा मत लीजिएगा, पर मंगलवार का तर्क कुछ जमा नहीं ! किसान का काम तो फसल के हिसाब से ही होता है, बुआई-जुताई में सारा-सारा समय फिर बढ़ने-पकने के समय कुछ फुर्सत। उसके लिए क्या सोम क्या मंगल !!
जवाब देंहटाएंExcellent lines
जवाब देंहटाएंonline Book Publisher India