प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

गुरुवार, 30 मार्च 2023

समीक्षा

 

वरिष्ठ साहित्यकार    -संजीव जायसवाल ‘संजय’ जी को जैसे ही मैंने यादों की रिमझिम बरसात पुस्तक भेजी उन्होंने उसकी समीक्षा करके मेरा मनोबल बढ़ाया। उनकी तत्परता,सूक्ष्म निरीक्षणता व गहनता की  हमेशा आभारी रहूँगी। 


उनके शब्दों में --

    हाल ही में वरिष्ठ रचनाकार सुधा भार्गव जी का बाल कहानी संग्रह ‘यादों की रिमझिम बारिश’ पढ़ने का अवसर मिला. वास्तव में ये कहानियों का संग्रह न होकर एक आईना है जिसमें झांकते हुए हम उतरते जाते हैं एक अनोखी दुनिया में. जहाँ हमारा बचपन हैं और हैं हमारी नटखट शरारतें और मासूम हरकतें. जो इस आईने में देखेगा उसे अपना ही अक्श नज़र आएगा और मन के किसी कोने से आवाज़ आयेगी ‘अरे, यह सब तो हमने भी किया है. लगता है किसी ने मेरे बचपन की यादों को चुरा कर उन्हें कहानी का रूप दे दिया है.’ जी हाँ लेखिका भी स्वीकार करती हैं कि ये उनकी ‘आत्मकहानियाँ’ है. अर्थात अपनी आत्मकथा के बचपन वाले भाग को उन्होंने कहानियों का रूप देकर बहुत खूबसूरती के साथ पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है.

            अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बचपन कमोवेश सभी का एक ही तरह का होता है. मां-बाप की आँखों का तारा. अलमस्त जिन्दगी, दूध पीने के लिए नखरा, लट्टू चलाने की उमंग, छुप-छुपाकर बर्फ का गोला खाना, बन्दर-भालू का नाच देखने के लिए दौड़ लगाना, बरसात में भीगते हुए कागज़ की नाव चलाना, होली का हुडदंग. इस पुस्तक में यह सब कुछ देखने को मिलेगा लेकिन लेखिका की यादों की चाशनी में लिपटी हुई कहनियों के रूप में. सुधा जी ने जिस खूबसूरती से अपनी बचपन की यादों को एक माला के रूप में पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है. 

            सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने इन कहानियों के माध्यम से देश-समाज में हो रहे बदलावों और प्रगति को भी झलकाया है. पहली कहानी ‘जादू का तमंचा’ इसकी एक बानगी है. भाई दिन भर लकड़ी के लट्टू में डोरी बाँध कर नचाया करता है और छोटी बहन उसे देख कर ललचाया करती है. उन दिनों ऐसे ही टट्टू मिलते थे. बाद में पिता दिल्ली से तमंचे की शक्ल वाला खिलौना ला देते है जिससे बटन दबाने पर लट्टू निकलकर नाचने लगता है. उन दिनों केवल बड़े शहरों में ही ऐसे खिलोने मिलते थे और बड़े बुजुर्ग उन्हें लाकर बच्चों को बदलाव की झलक दिखलाया करते थे. एक और कहानी है ‘जादुई मुर्गी’ जो दबाने पर पेट से अंडा निकालने वाली प्लास्टिक की मुर्गी के उपर आधारित है. हम सभी ने इस खिलौने के साथ खूब खेला है. ऐसी कई कहानियां हैं जो बचपन की याद देला देती हैं किन्तु कहानी ‘बाल लीला’ सबसे मजेदार लगी. इसमें स्कूल में ‘कृष्णलीला’ का नाटक होना था. किन्तु यशोदा की भूमिका निभा रही बच्ची गलती से कृष्ण से कह बैठती है ‘क्यों रे बलराम आज तूने फिर मटकी से माखन चुराया’ यह बात कृष्ण बनी बच्ची को, जो लेखिका खुद थीं, नागवार गुजरती है और वह मंच पर ही चिल्ला कर कहती है,’ अरे यह तो गलत बोल रही है अब मैं क्या करूँ.’’

            मंच के पीछे खडी टीचर चिल्लाकर बच्चों को अपना-अपना संवाद बोलने के लिए कहती है लेकिन बाल हाठ तो बाल हठ. कृष्ण भी गुस्से से कहते है.” मैया तू तो मेरा नाम ही भूल गई. जब तक मुझे कृष्ण नहीं कहोगी मैं तुमसे बात नहीं करूंगा.’ उसके बाद हंसी के ठहाकों के बीच बच्चों ने अपनी त्वरित बुद्धी से जिस तरह नाटक को संभाला उसके लिए बाद में प्रिंसिपल मैडम ने भी बच्चों की पीठ थपथपाई. 

            भुत-भूतनी का अस्तित्व नहीं होता है लेकिन उनको लेकर बच्चों को अक्सर डरवाया जाता है. इस विषय को भी लेकर एक मजेदार कहानी है ‘भूत भुतला की चिपटनबाजी’ जो फोथों पर मुस्कान ले आती है.

            ऐसे कई और मजेदार प्रसंग है इस संग्रह की कहानियों में जो डिजटल युग के आधुनिक बच्चों को अपनी विरासत से परिचित करवाएंगी और बतायेंगी कि उनके माता-पिता और दादा-दादी का बचपन कैसा होता था. इस द्रष्टिकोण से यह पुस्तक बच्चों का मनोरंजन तो करेगी ही, अभिभावकों को भी उनके बचपन की एक बार फिर से सैर करायेगी. अतः यह पुस्तक हर पीढ़ी के पाठकों के पढने के योग्य है. लेखिका ने संग्रह का शीर्षक ‘यादों के रिमझिम बरसात’ उसके विषय वस्तु के बिलकुल अनुकूल रखा है. सुधा जी की कई पुस्तकें पहले भी आकर चर्चित हो चुकी हैं, मैं उनकी इस पुस्तक की भी सफलता के मंगलकामना करता हूँ. इस सजिल्द पुस्तक का प्रकाशन ‘साहित्यसागर’ प्रकाशन जयपुर ने किया है और इसकी कीमत २५० रुपये है.

                                                       

   -संजीव जायसवाल ‘संजय’

 

 

 


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