भारत की राष्ट्रीय भाषा में दुनिया के बच्चों पर संवाद करता
अंतरजातीय अखबार
अंतरजातीय अखबार
बच्चों की दुनिया- संपादक रमेश तैलंग
वर्ष1 ,अंक 3,15 अक्तूबर 2014 में प्रकाशित निबंध जिसे पढ़कर रोएँ खड़े हो जाते हैं।
विषय-बालहिंसा-- अरब देशों में ऊँटदौड़
इसे अंतर्जाल पर भी पढ़ा जा सकता है।वेबसाइट है http://www.bachchonkiduniya.com/
उनका तो खेल हुआ ,जान यहाँ
जाती है
बाल हिंसा का जाल समस्त विश्व को किसी न किसी रूप
में अपनी जकड़ में लेता जा रहा है। अभावों की दुनिया में पलने वाले बच्चों को न
भरपेट भोजन मिलता है न तन ढकने को कपड़ा और न मुंह छिपाने को एक घर। न वहाँ बच्चे
का स्वास्थ्य और सुरक्षा है न प्यार का साया। ऐसे मासूम बच्चों के खरीदार उनके
माँ बाप की देहली पर दस्तक देने में देर नहीं करते। उज्जवल भविष्य के सपने दिखाकर वे उन्हें अपनी
चालों में फंसा लेते हैं और अशिक्षित और भूख से मजबूर चंद सिक्कों के बदले अपने
कलेजे के टुकड़ों को बेचने को तैयार हो जाते हैं। फिर गुलजार होती है बच्चों की
तस्करी दुनिया और शुरू होता है उनका दर्दभरा शारीरिक ,मानसिक शोषण। ये बच्चे घर -घर सुबह से रात तक काम करते है।ड्रग बेचने ,भीख
मांगने के व्यवसाय को रोशन करते हैं। अरेबियन देशों में ऊंट जोकी (camel jockeys) के काम आते हैं।
मिडिल ईस्ट में ऊंट जोकी(camel jockeys in Middle
East )बाल हिंसा का जीता जागता उदाहरण है। यहाँ मासूम बच्चों का दिल दहलाने वाला शोषण
किया जाता है। यह सत्य है कि कोई भी जानवर
बहुत तेजी से यात्रा के काम आ सकता है वशर्ते उसका सवार हल्का व छोटा हो । छोटे
प्रौढ़ को पाना तो बड़ा मुश्किल है इसलिए मिडिल ईस्ट में ऊंट जौकी के लिए भोले भाले
बच्चों को चुन लिया जाता है । इन देशों में धन की कमी नहीं ! बड़ी सरलता से सूडान ,पाकिस्तान,भारत ,बंगला देश के
गरीब या असहाय बच्चों को खरीद लेते हैं। इनसे निष्ठुरता से कैमेल जौकी का काम लिया
जाता है ।
ऊंट जोकी के लिए बच्चों का अपहरण भी कर लिया जाता
है। अरब में लाख गरीब होने पर भी ईश से
यही प्रार्थना करते हैं कि उनका बेटा जौकी न बने पाए । बच्चे को घर में कब तक
बांधा जा सकता है । दो -तीन वर्ष का होने पर जैसे ही वे बाहर निकलते हैं उनका
अपहरण कर लिया जाता है। इसमें पूरा का पूरा एक स्थानीय गिरोह जुटा रहता है जो
इन्हें बेचकर पैसा कमाते हैं। खरीदने वाले
उन बच्चों के माँ -बाप बन जाते हैं पर उन पर ममता नहीं लुटाते । वे तो गुलाम के
रूप में उनकी ख़रीदारी करने के लिए करांची होते हुये गल्फ पहुँच जाते हैं।
तेल के कारण गल्फ देशों में बड़ा पैसा आ गया है । उन्हें पता नहीं कि उसका
कैसे उपयोग करें ?फिजूलखर्ची के लिए तो शेख प्रसिद्ध
हैं ही । संसार की सबसे ज्यादा खर्चीली दौड़ घोड़ों की दुबई मेँ होती है । उनसे कोई
आय नहीं होती ,बस राजसी प्रशासकीय धनी परिवारों की महिमा है।
धन का बहुत बड़ा अंश ऊंटों पर खर्च हो जाता है । दौड़
लगाने वाले ऊंटों के लिए विशेष प्रकार के अस्पताल हैं। लेकिन इंसान का बच्चा कैमेल
जौकी रोड़ी –गिट्टी से ज्यादा कुछ नहीं !जैसे ही एक घायल हुआ या दौड़ के समय मर गया , उसके लिए न कोई दो आँसू बहाता है न किसी के दिमाग में घायल के जख्मों को
सहलाने की बात आती है ! आए भी क्यो?एक गिरा या मरा तो दस हाजिर --जौकी से अच्छा तो वहाँ का ऊँट है।
ऊंट पर बैठे बच्चों की कोई छुट्टी नहीं होती । माँ
-बाप से दूर विदेशी भूमि पर कानून भी उनकी रक्षा नहीं करना चाहता। पूरे हफ्ते ऊंट
पर चढ़ने और दौड़ का अभ्यास जारी रहता है । करो या मरो वाली बात उनके साथ लागू होती है । .2 -4 थप्पड़ की मार और
कुछ दिनों की भूख के बाद ही वे सीधे हो जाते हैं । यदि वे भागना चाहते हों तो भी
भाग नहीं सकते । इसके अलावा उनके दिमाग में यह डालने की कोशिश की जाती है कि उनके
माँ -बाप उनसे प्यार नहीं करते ,उन्होंने ही तो पैसे की खातिर उन्हें बेच दिया । बच्चे
भी सोचने लगते हैं -जाये तो जाएँ कहाँ? --इधर कुआं तो उधर
खाई।
ऊंट दौड़ शुरू होने से पहले जौकी को भूखा रखा जाता है
ताकि कम वजन का अनुभव होने से ऊंट तेज भाग सके । इसका भी डर रहता है कि पेट में
खाना हिलने से कहीं बच्चा उसे उगल न दे । कभी -कभी उनके जख्म करके उनमें नमक
-मिर्च डाल देते हैं ताकि वे चिल्लाएँ -तड़पड़ायेँ। इससे दर्शकों का ज्यादा मनोरन्जन
होता है । क्रूरता की पराकाष्ठा नहीं । न उनकी पढ़ाई न उन्हें अपने वतन का ज्ञान न
साथ में भाई –बहनों की यादें । ऐसे बच्चों
के दुर्भाग्य की सीमा नहीं।
कुछ जगह जोकी बनने के लिए बच्चों की उम्र व वजन
निश्चित कर दिया गया है लेकिन शेख के व्यक्तिगत ऊंट को जिताने के लिए ट्रेनर सारे
नियम ताक पर रख देता है । इसके लिए उसे इनाम मिलता है पर बच्चे को असमय की मौत !
भाग्य से कुछ बच्चे बच भी गए तो उनको ऊंटों के अन्य
कामों में लगा देते हैं । यदि बड़े होकर उन्होने भागने को एक कदम भी उठाया तो
अकानूनन आप्रवासी के अपराध में जेल की हवा
खानी पड़ती है जबकि उनका कोई दोष नहीं ।
एक बार बड़े बच्चों
को उनके घर भेजने की कोशिश की भी गई पर ऐसा उनका कोई रिकॉर्ड तो
होता नहीं जिससे उनके गाँव या माँ -बाप का पता चल
सके । अंत में उनको किसी नरकीय बस्ती में छुड़वा दिया । यह नक्शा है अरब के रहीसों
के ऊंट की परंपरागत दौड़ का । बहुत से लोग मिडिल ईस्ट की भाषा – कैमेल जौकी का अर्थ ही नहीं समझते और
समझते भी हैं तो मुंह पर ताला लगाए रहते हैं । कौन फालतू में दुश्मनी मोल ले !यदि इस
क्षेत्र की सरकार कड़ा कदम उठाए तो सैकड़ों बच्चे नारकीय जिंदगी से छुटकारा पा लें ।
सुधा भार्गव
subharga@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें