॥4॥ भूतइया पेड़
भोलू
ने जैसे ही सुना रिटायर होने के बाद उसके बापू को सरकारी क्वार्टर छोड़ना पड़ेगा ,वह
खुशी से उछल पड़ा—“बापू—बापू अब शहर में एक बड़ा सा बंगला खरीदेंगे। ”
“हाँ –हाँ
जरूर अपने लाडले के लिए बड़ी सी कोठी ख़रीदूँगा पर तू उसका करेगा क्या? हम तीन के
लिए तो दो कमरे ही बहुत ।” बिहारी बोला।
“ओह
बापू आप समझते क्यों नहीं।!बंगला होने पर मैं अपने दोस्तों पर रौब झाड़ूँगा। वो मटल्लू है न पीली कोठी वाला –सीधे मुंह बात
ही नहीं करता।”
“बेटा
कोठी खरीदने को खूब सारा पैसा कहाँ से आयेगा?”
“अभी
तो आप खरीद लो फिर बड़ा होने पर मैं खूब सारा पैसा कमा कर लाऊँगा, वो सब तुम्हें दे दूंगा।”
भोलू की
भोली बातें सुन वह हरहरा उठा। उसे प्यार से गोदी में उठा लिया।
“चल
अच्छा सा घर देखने चलते हैं। तेरी माँ को भी साथ ले लें।”
“हाँ
हाँ चलो चलो।”
आगे
आगे भोलू और पीछे पीछे उसके बापू और माँ । जो मकान बिहारी को पसंद आता उसका किराया
औकात से बाहर--- जिसका किराया वह आसानी से
दे सकता उसको देखते ही बेटा नाक भौं सकोड़ने लगता – ‘अरे यहाँ
बॉल कहाँ खेलूँगा?’ ‘मेरी बिल्ली कहाँ रहेगी?’ भोलू
माँ-बाप की आँखों का तारा —दोनों ही उसकी
इच्छा पूरी करना चाहते थे।
ऐसी परेशानी
में उसके एक मित्र ने घर बताया और कहा-‘बिहारी तू एक बार मालकिन
से मिल ले। घर भी अच्छा है। वह कम किराए
पर ही देने को तैयार हो जाएगी। लेकिन---
“लेकिन क्या --?”
“घर के चारों तरफ भूत मँडराते हैं। वो–वो भूतइया घर है।” हकलाता सा बोला।
“भूत!
हा—हा-- मैं यह सब नहीं मानता।” उसने ज़ोर से अट्ठास किया।
“उड़ा ले—उड़ा
ले मेरी हंसी! सच मान उसके दरवाजे पर पीपल
का पेड़ लगा है। रात में भूतों का वहीं पर बसेरा होता है। और तो और पिछवाड़े
नीम और बरगद भी लगा है। संकट ही संकट! कितनी बार बेटे ने कहा होगा –माँ यह भुतइया पीपल कटवा दे कहीं कुछ अशुभ न हो जाय पर नहीं! आखिर में बेटा माँ को अकेला छोड़कर चला गया। बुढ़िया है जिद की पक्की--- सारे
दिन पेड़ों की देखभाल करती रहती है या नए पेड़ लगाती रहती है।”
“बलिहारी
तेरी बुद्धि की! कुछ भी कह मैं एक बार उस घर को जरूर देखूंगा । मेरे साथ चल न।”
दरवाजे
पर दो अजनबी को देख बूढ़ी मालकिन बाहर निकल कर आई। बिहारी ने हाथ जोड़ नमस्ते की।
बूढ़ी गदगद हो उठी। मृदुलता से बोली-“बेटा कैसे आना हुआ? मुझसे कोई काम है क्या?”
“हाँ
माँजी। ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से घिरा आपका घर बहुत सुंदर लग रहा है। मैं अपने परिवार के
साथ इसमें रहना चाहता हूँ। इसका आप क्या किराया लेंगी?”
“किराया!
क्या कहे है बिटुआ---तू तो मेरे बेटे समान है। तुझसे किराया क्या लेना! तू आ गया
तो रौनक ही रौनक । इसकी देखभाल से मेरा पीछा तो छूटे।” बुढ़िया का चेहरा चमक उठा।
“किराया
तो आपको लेना पड़ेगा। जितना मैं दे सकता हूँ उतना तो दूंगा।”
“ठीक
है, पर कोई पेड़ काटने को न कहियो।”
“पेड़
काटने के लिए भला क्यों कहने लगा। इन्हीं
के कारण तो यहाँ इतनी ठंडक है। पेड़ों के कारण न बाहर की धूल धक्कड़ घर में
आएगी और शोरगुल भी कम सुनाई देगा।”
“तूने
तो मेरे दिल की बात कह दी। मेरे बेटे की समझ से तो यह परे है।” बूढ़ी माँ के चेहरे
पर उदासी घिर आई।
लौटते
समय रास्ते में उसका मित्र अनमना सा बोला-“अगले महीने क्या तू
इस भूतइया घर में सच में आ रहा है । अच्छी
तरह सोचसमझ ले। कुछ अनहोनी न हो जाये। कम से कम पीपल का पेड़ तो कटवाने को
कह देता।”
“तू भी
अजीब है --वैसे तो पीपल को महादेव कहता है
--- मंदिर जाते समय उस पर जल चढ़ाना नहीं भूलता। घर में लगे पीपल से फिर क्या बैर ! पीपल चाहे घर में हो या बाहर बात तो एक ही है।”
“एक ही
बात कैसे! बाहर, रात में इसके नीचे महादेव आसन जमा लेते हैं।
उन्हें देखते ही भूत भाग जाते हैं पर घर में महादेव कहाँ आने वाले--- सो भूत
आकर जम जाते हैं।”
“तुझसे
पार पाना बड़ा मुश्किल है। अच्छा एक बात बता तू पीपल को महादेव क्यों कहता है?”
“माँ
बताती थी बाहर के पीपल पर महादेव का वास
होता है। महादेव के खुश रहने से वह हमारी रक्षा करता है । इसीलिए वह जल चढ़ाती थी, मैं भी चढ़ा देता हूँ। इसमें
सोचने- समझने की क्या बात है?”
“सोचने
समझने की ही बात है। पीपल पर न महादेव रहते हैं और न कोई भूत। पीपल भी रात-दिन हमारी
रक्षा करता है इसलिए उसे ही महादेव कहा जाता है और उसकी पूजा करते हैं।’
“माना
दिन में पीपल छाया देता है। पर रात में असुरक्षा का गढ़ ही समझ । तू रात में इसके नीचे गया तो भूत को देखते ही तेरी तो बच्चू, डर के मारे घिग्घी बंध जाएगी। न जाने वह तेरी पिटाई ही कर दे। मेरा तो
सोच-सोचकर ही बुरा हाल हो रहा है।”
“तुझे
कुछ पता तो है नहीं! पीपल एक ऐसा निराला पेड़ है जो रात -दिन आक्सीजन देता है।
संध्या हो या रात --इसके नीचे बैठ तू गपशप कर या चारपाई बिछाकर झपकी ले शुद्ध वायु
ही मिलेगी। कोई भूतला-बूतला नहीं चिपटेगा—तुझे
बस वहम की बीमारी है।”
“अच्छा
मज़ाक कर लेता है । इतना बुद्धू नहीं कि तेरी बात पर आँख मीचकर विश्वास कर लूँ। रात
में तो पेड़ कार्बन डाई आक्साइड ही निकालते हैं और आक्सीजन ग्रहण करते हैं। सुबह ही
उनसे आक्सीजन मिलती हैं। तभी तो पार्क में सुबह घूमने जाते हैं।”
“तू नहीं समझेगा --मैं
तो कहूँ बुढ़िया ने पीपल के साथ बरगद- नीम लगाकर अच्छा ही किया है। बरगद और नीम भी
दूसरों से ज्यादा आक्सीजन देते हैं। घर बैठे ही आज के प्रदूषण में शुद्ध वायु मिल
जाये इससे अच्छा और क्या! ”
“हाँ कुछ
धुंधला धुंधला सा याद आ रहा है --।”मित्र सिर खुजलाते बोला।
“क्या
याद आ रहा है ?लगता है तेरी बुद्धि करवट बदल रही है। ”
“दादी
माँ बरगद की पूजा करती थी। एक बार मैंने पूछा भी ‘दादी बरगद
की पूजा क्यों करते हैं?’ कहने लगी-‘पूजा
तो उसीकी की जाती है जो बिना स्वार्थ के दूसरों का भला करे।बरगद कुछ ऐसा ही पेड़ है।’
नीम की डंडी के बिना तो उसके दाँत ही साफ नहीं होते थे। वह नीम को डॉक्टर बाबू---
डॉक्टर बाबू कहती थी।”
"अब तेरे दिमाग ने ठीक से काम करना शुरू कर दिया है।”
“हूँ---ठीक
ही कह रहा है --भूतइया घर तो परोपकारी
निकला। अरे वाह! क्या किस्मत पाई है! अब तू जल्दी से यहाँ आजा फिर तेरी
भावी के साथ मिठाई खाने आऊँगा।”
दोनों
दोस्त हँसते हँसते आगे बढ़ गए।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-05-2018) को "जिन्ना का जिन्न" (चर्चा अंक-2965) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
रोचक कहानी है.
जवाब देंहटाएंबढ़िया कहानी।
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत खूब
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