प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

शनिवार, 14 मार्च 2020

उत्सवों का आकाश



बालकहानी  

      जंगल में मंगल  कहानी का आधार  सर्वप्रिय हिन्दू पर्व होली है। पशु -पक्षियों के मध्य होली के रंग बिखरे पड़ रहे हैं। कहानी की भाषा अति सरल है । साथ ही हास्य का  पुट देने की कोशिश की गई है ताकि बच्चे दिल खोलकर हंसें-हँसाएँ।
       यह कहानी देवपुत्र मार्च अंक २०२० में प्रकाशित हुई है। 



जंगल में मंगल

सुधा भार्गव 
     एक जंगल में पलाश का पेड़ था। उसका एक दोस्त था –मुर्गा। वह हमेशा पलाश के साथ रहता था। मुर्गा उसके सुख-दुःख का साथी था।
       जब पेड़ चमकदार लाल, पीले,केसरिया रंग के फूलों से लदा रहता तो बड़ा सुंदर लगता । हवा में तिरती फूलों की खुशबू मन को लुभाए बिना न रहती। चिड़ियाँ उस पर घोंसला बनाकर उसके इर्दगिर्द उड़तीं और अपने कलरव से मधुर संगीत पैदा करतीं ।सुनने वाला एक पल को जरूर रुक जाता और हैरत सा पलाश की  खूबसूरती को निहारता। ये दिन पलाश के सुख के दिन हुआ करते थे।
      दिसंबर-जनवरी की कड़क ठण्ड में  पलाश के दुख का ठिकाना न था। वह थर-थर कांपने लगा।  उसके सुन्दर चटक लाल फूल झड़ गए।ठूंठ सा खड़ा बड़ा बदसूरत लगने लगा । उसके बुरे समय में पेड़ पर बसेरा करने वाले पक्षियों ने उसका साथ नहीं दिया।  वे उड़ गए और दूसरा ठिकाना खोज लिया। अकेला ही वह बड़ी हिम्मत से अपने अच्छे दिनों के आने का इन्तजार करने लगा । मुर्गे को अपने दोस्त की यह बात बहुत अच्छी लगती थी और मन ही मन उसकी प्रशंसा करता। हांलाकि पतझड़ के समय पलाश मुर्गे को न छाया दे पाता था और न ही बरसते पानी और कड़ी धूप से बचा पाता था पर उसे पलाश से दूर रहना किसी हालत में मंजूर न था। सच्चा दोस्त जो ठहरा!

         फरवरी से ही पलाश के भाग्य ने पलटा  खाया।सूरज की किरणों ने धरती पर आँख –मिचौनी खेलनी शुरू कर दी। गुनगुनी धूप पाकर पेड़ -पौधे ,जीव जंतु अंगड़ाई ले उठ बैठे। पलाश का भी कोमल-कोमल नये पत्तों से शरीर ढक गया। लाल-नारंगी रंग की कोंपलें फूटने लगीं ।  देखते ही देखते  सुर्ख रंगों में नहाया जंगल का राजकुमार लगने लगा । फिर वही सुगंध भरी हवाएँ बहने लगी। चिड़ियाँ चोंच में तिनके भर घोंसले बनाने की तैयारी में लग गईं। उनके मीठे गीत सुनकर देवपुत्र भी अपने को रोक न सके । उन्हें सुनने के लिए  ऊपर देवलोक से वे धरती पर उतर पड़े।
      जंगल में जब मंगल ही मंगल था एक प्यारे से खरगोश को उदास देख पलाश को बड़ा अचरज हुआ।
      पूरी धरती इस समय हंस रही है और तुम खरगोशिया इस कदर दुखी! क्या बात है मुझे बताओ न !शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ।

      हाँ,मैं बहुत दुखी हूँ। गाँव-शहर में बच्चे होली खेलने की तैयारी में लगे हैं  । कोई बाजार रंग  लेने गया है तो कोई पिचकारी  । मेरा मन भी  होली खेलने को करता है 
     तो किसने मना किया है मेरे छोटे खरगोशिया! होली तो मस्ती  का त्यौहार है । तुम अपने साथियों के साथ खेलो । मुझे भी अच्छा लगेगा।” 
      उफ --खेलूं कैसे ? रंग तो है ही नहीं !”

      रंग तो मैं चुटकी बजाते ही तुम्हें दे सकता हूँ । कल जब तुम यहाँ आओ तो अपने साथ बड़ी सी मटकी ले आना।” 
      “उफ !मटकी कहाँ से लाऊँगा?”
       “हाथी से बोलो !वह अपनी चतुराई से मटकी जरूर ढूंढ निकालेगा।’’
        खरगोश ने पुकारना शुरू कर दिया –‘हट्टू हाथी,हाथी तुम कहाँ हो?जल्दी --- आओ।
      हट्टू हाथी दौड़ता हाँफता आया-“खरगोशिया तुझे क्या हो गया?”
     “अरे हट्टू इसे एक मटकी चाहिए।” पलाश बोला।
      “बस एक ही---, यह तो चुटकी भर  मिनटों का काम है।”
       वह खरगोश को अपनी पीठ पर बैठा कर तेजी से चल दिया और एक कुम्हार की झोंपड़ी के आगे ही रुककर दम लिया।
      कुम्हार लंबी गरदन वाली सुराही बना रहा था और उसके आसपास मिट्टी से बने मटके-मटकी पसरे बैठे थे। किसी का पेट छोटा था तो किसी का मोटा। पर सब चमकते-खिलखिलाते---।  वे उन्हें अपनी ओर बुलाने लगे। मानो कहना चाहते हों –हमको भी अपने साथ ले चलो। हम भी होली खेलेंगे।
     हाथी ने सूंढ से एक मटकी उठाई और खरगोश को थमा दी।आह!कितनी चिकनी है।खरगोशिया गुलाब की तरह खिल उठा ।

     दूसरे दिन धूप निकलते ही खरगोश मटकी लेकर पलाश के पास आया पर परेशान सा लौट पड़ा।  पागलों की तरह चिल्लाया-“ भागो --भागो - दूर जंगल में आग लगी है।’’ 
    “कहाँ?पलाश  चौंका।
    “देखो—देखो –वो—वो । घबराते हुए दूर उसने इशारा किया।
    “अरे डरपोक,वहां तो मेरे भाई -बहन खड़े हैं।सूर्य की किरणें जब हमारे  पत्तों पर पड़ती हैं तो वे आग की तरह चमकने लगते हैं।पलाश ने समझाया।”
    “अच्छा ! ऐसा भी होता है!’’ खरगोश आश्चर्य से उछल पड़ा। एक मिनट को  तो यह ही भूल गया कि नाजुक सी मटकी वह पकड़े हुए है । उछलने के कारण उसकी पकड़ ढीली हो गई और मटकी हाथ से दूर जा पड़ी। वह तो रोने बैठ गया।
     “उफ !ऐसे कोई रोता है । ले तू मेरी मटकी ले ले।बहुत दिनों से वह काम में भी नहीं आई है।”  पलाश ने प्यार से कहा।
     “न -न -मैं तुम्हारी मटकी नहीं लेता। कहीं वह भी टूट गई तो—’’
    “तू तो बड़ा भोला है। पहले मेरी मटकी देख तो ले! वह  तो लोहे सी मजबूत है टूटेगी ही नहीं कभी ।
    “सच में ऐसी है !तब लाओ , मुझे दे दे।’’
    “सम्हालो जरा भारी है। इसे मेरे नीचे रख दो ।”
    पलाश ने  खूब जोर से अपनी टहनियों को हिलाया ।  झर -झर करके उसके केसरिया फूल मटकी के साथ -साथ खरगोश पर भी बरसने लगे।फूलों के चटक लाल रंग ने उसका मन मोह लिया।
     अब मेरे जितने फूल तुम चाहो ले जाओ।” 
     लेकिन मैं करूँगा क्या इनका!” 
     इनका जादू देखोगे तो हैरान हो उठोगे। फूलों को आज रात  में पानी भरी मटकी में भिगो देना, सुबह तक उनका केसरी रंग तैयार।कल उससे खूब होली का हुल्लड़ मचाना ।’’
      खरगोश अचरज से अपनी आँखें झपझपाने लगा।  फूलों का करिश्मा देखने को उतावला हो उठा।
      खरगोश ने जल्दी -जल्दी फूलों को मटकी में भरा औ फुदकना शुरू कर दिया- 
आजा रे
आ रे हाथी
आजा घोड़ा
बिल्ली–भालू
तू भी आजा
सब मिलकर
उछलेंगे कूदेंगे
रूँठारूठी छोड़छाड़ के
रंगों से होली  खेलेंगे ।

      जल्दी ही  खरगोश के दोस्त भागे –भागे चले आए और फूलों की मटकी को घेर कर बैठ गए ।
      हट्टू हाथी पास के तालाब से अपनी सूढ़ में पानी भर कर ले आया और मटकी में   भर दिया । रात  भर कोई  भी नहीं सोया।  झाँक -झाँक कर देखते--- पानी रंगीन हुआ कि  नहीं !पानी का रंग कैसा है?उनके लिए तो यह एक बहुत बड़ा आश्चर्य था।   

सूर्य देवता के निकलते ही सूरजमुखी खिलखिलाकर हंस पड़ी।
      उसकी आवाज सुन दोस्तों को होश आया -अरे दिन निकल आया। 
“आह पानी तो केसरिया रंग का हो गया । सोने जैसा चमक रहा है! अब तो तुम सब पर  खूब रंग  डालूँगा और अपने को बचा कर रखूँगा।” खरगोश इतराते हुए बोला ।
     न --न --ऐसा बिलकुल न करना । मेरे फूलों के पानी में तुम्हारा भी भींगना जरूरी है । इससे तुम चंगे रहोगे। तुम्हारे चारों तरफ भिनभिनाने वाले मच्छर तो दुम दबा कर भागेंगे।” पलाश का पेड़ बोला।  
       “अरे पलाश, मैंने तो अभी तेरे ऊपर दो -तीन मच्छर भिनभिनाते देखे हैं। तुझसे तो डरते  भी नहीं।” बिल्ली आँखें मटकाते हुए बोली। 
      तुझे नहीं मालूम बहना --मेरी खुशबू से मच्छर खिंचा चला आता है और मुझसे  टकराते ही बच नहीं पाता। अगर भूले -भटके मेरे फूल में इसने अंडे दे भी दिए तो उसमें से बच्चे कभी जिंदा निकल ही नहीं सकते।”
“तुझमें तो बड़ी ताकत है। पेड़ों का राजा है राजा । मेरे घर भी चल , बहुत मच्छर  हैं वहां। तुझे देखते ही भागेंगे अपनी जान बचाकर।देख मना न कर वरना मैं रूठ जाऊँगी।”
      बिल्ली की बात सुन पलाश उदास हो गया।पलाश को उदास देख बिल्ली परेशान हो उठी।
“एकाएक तू  इतना उदास क्यों हो गया पलाश । क्या मैंने तेरा  दिल दुखा दिया।”
“न –न तेरा कोई कसूर नहीं!कितना अच्छा होता बिल्लो यदि मेरे पैर होते!भाग भागकर दूसरों का खूब भला करता  और बीमार को ठीक कर देता। 
    “क्या कहा! बीमारी भगा देने का जंतर मंतर भी तेरे हाथ में है?अरे वाह!डॉक्टर बाबू । ”
      हाँ !कल देखना तमाशा ! होली के बाद का।पलाश फिर से चहकने लगा।
      “कैसा तमाशा रे !”
       बताता हूँ ---बताता हूँ।देख, होली के दिन  सारे दिन मस्ती के बाद शहरों में  बच्चे खूब पकवान ,मिठाई खाएँगे और फिर पेट बड़बड़ाएगा खाने वाला कराहयेगा --दर्द --हाय दर्द । उन्हें तो मालूम भी नहीं होगा -- मेरा एक फूल चबाकर खाने से दर्द रफू चक्कर हो जाता है।”  
     हम तो भैया जरूर दो -एक  फूल बचाकर रखेंगे ,मोटे हट्टू हाथी के काम आयेंगे। इसका पेट तो देखो नगाड़े जैसा --। यह भी खूब छक के खाता है ।”चुलबुली बिल्ली ने उसे चढ़ाया।
      “देख बिलौटी ऐसा कहेगी तो –।”
      “तो, तो क्या  करेगा?”बिल्ली ने आँखें दिखाईं।
      “बताऊँ—।”
      “हाँ हाँ बता
      “अभी बताता हूँ!”
      हाथी गुस्से में अपनी सूंड हिलाता जल्दी-जल्दी वहाँ से चल दिया। बिल्ली भी जासूसी करने के लिए दबे पाँव उसका पीछा करने लगी।
      हाथी ने फुर्ती से  बिल्ली को सूँढ से उठाकर रंगीले पानी की मटकी पर बैठा दिया। उसकी पूंछ पानी में तैरने लगी।
      सब एक साथ चिल्ला उठे—
             बुरा न मानो होली है!होली है रे होली है ।
              धूमधड़क्का हय धूमधड़क्का  होली  है  
      भालू भी अपने को ज्यादा रोक न सका ,केसरिया पानी अपनी हथेली में भरकर दूसरों पर डालने लगा । हाथी ने तो अपनी  सूँढ को पिचकारी बना लिया और साथियों को एक बार में ही स्नान करा दिया।
      पलाश भी इस होली का आनंद उठा रहा था।पर उसे चिंता लग गई कि पानी मेँ ज्यादा भीगने से उसका कोई साथी बीमार न हो जाए।
       बोला- तुम सब बहुत थके -थके लग रहे हो ।अब कुछ गाना -शाना भी हो जाये।” 
      जंगल में मंगल करने वाले जल्दी ही गोला बनाकर खड़े हो गए और बीच में बैठ गया मुर्गा।
किसी के हाथ में गिटार था तो किसी ने थामा बिगुल ।लोमड़ी तो कहीं से ढोलक ही उठा लाई।  ढोलक की थाप पर शुरू हुआ मस्ती में गाना --- 
होली की धूम मची रे
जंगल – - - जंगल
हाँ-हाँ जंगल जंगल
जंगल में हो गया मंगल
हाँ --हाँ मंगल—मंगल।

आपस  में हम  अब
दंगल-वंगल नहीं करेंगे
पहनेंगे प्यार का कंगन
हाँ-हाँ ,प्यार का कंगन
होली की धूम मची रे
जंगल ---------जंगल।

    होली के हुड़दंग में सच ही यह टोली थक गई थी, भूख भी लग आई थी। पिछले साल तो उनकी होली फीकी ही थी ।न इतने प्यारे साथी थे न ही पलाश के पेड़ से मुलाक़ात हुई। पलाश ने उनके जीवन में ऐसे रंग घोल दिये कि वे आपस में हिलमिल कर रहना सीख गए । अगले साल फिर इसी तरह होली मनाने का उन्होंने वायदा किया और भोजन की तलाश में घने जंगल में गायब हो गए। 
समाप्त 

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