वर्षा राग संस्मरण
यादों के सावन में
बरसात की रिमझिम
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मुझे हमेशा से ही बादलों ने रिझाया। छुटपन में बादलों को देखते ही छत पर चली जाती। नीले आकाश में बादलों की आँख-मिचौनी देखा करती। । बादलों के झुंड मुझे रेशम से चमकीले, रुई से मुलायम लगते। उन्हें देखते-देखते कल्पना की निराली दुनिया में खो जाती। कभी मुझे नन्हें खरगोश से बादल आकाश में फुदकते नजर आते तो कभी हाथी का बच्चा अपनी सूढ़ हिलाता लगता।
बरसात की रिमझिम बारिश देख इंतजार करती कब बादलों से बड़ी -बड़ी बूंदें टपकें। टपकती बूंदों को देख मैं अपनी हथेली फैला देती। मोती सी चमकती बूंदों को मैं लपकना चाहती थी । पत्तों पर ठहरी बूंदों को देख तो मेरे चलते चलते कदम भी रुक जाते। एकटक उनकी सुंदरता अपनी आँखों में भरने लगती। देखते ही देखते बादल गरजते चीखने लगते। पटापट बरसने की आवाज से मुझे लगता लगते वे गुस्से से पागल हो गए हैं। । इतना सब होते हुए भी मेरा मन मचल उठता –“चल चल घर से बाहर जाकर नहाते हैं। ऐसी मस्ती के समय घर में दुबककर क्या बैठना!” जैसे ही घर से पैर रखती, माँ न जाने कहाँ से आ जाती और अंदर खीचती बोलती-“ बीमार होने का इरादा है?” कभी कभी तो मुझे लगता –माँ की दो नहीं दस आँखें हैं। इसी कारण उसे हम भाई-बहनों की पल -पल की खबर होती है।
बरसाती मौसम मेँ घर मेँ अकसर सरसों के तेल मेँ पकौड़ियाँ तली जातीं । पकोड़ियाँ कभी मूंग की दाल की होतीं तो कभी बेसन आलू की । चटनी के साथ खूब छककर खाते-----अरे छककर क्यो?—कहना होगा ठूंस ठूंस कर खाते। हम भाई-बहन मेँ कंपटीशन होता –देखें कौन ज्यादा खाता हे! सबसे खास बात तो उस दिन दूध से छुटकारा मिल जाता था। वरना रोज दूध भरा गिलास हमारे सिर पर सवार हो कहता—“पीयों—पीयो---मुझे पीयो।’’
एक बार सारी रात पानी बरसता रहा। सुबह आँख खुली । काले बादलों की घडघड़ाहट और दूर -दूर तक घुप्प अंधेरा! दिल बल्लियों उछल पड़ा। आह आज तो स्कूल की टनटनानन छुट्टी---! ज़ोर से चिल्ला उठी-बरसो राम धड़ाके से,बुढ़िया गिरे पटाके से। फिर मुंह ढककर सो गई। सुबह की मीठी नींद पलकों पर आकर बैठी ही थी, माँ ने इतनी ज़ोर से झझोड़ा कि सीधे उठते ही बना। कान के पर्दों को चीरती एक ही आवाज –स्कूल नहीं जाना क्या?उठ जल्दी।” ।
ऊपर नजर घुमाई –बादल तितर- बितर हो चुके थे। साथ मेँ अंधेरा भी ले गए। बहुत गुस्सा आया –स्कूल की छुट्टी होते होते रह गई। बादलों ने तो धोखा दे दिया।
ठंडी हवा में थिरकती मैं स्कूल चल दी । रास्ते में सूरज की रोशनी मेँ पत्तों पर बूंदें मोती की तरह चमकती दिखाई दीं। मैं उनकी तरफ खींची चली गई । मैंने धीरे से छुआ ही था कि वे तो पानी की तरह बह गई । बड़ा दुख हुआ। बाद मेँ मैंने फिर कभी उन्हें छूने की कोशिश नहीं की।
स्कूल से लौटते समय उस दिन देर हो गई । रास्ते भर रेंगते- रेंगते जो जा रही थी । जहां थोड़ा सा पानी भरा देखती छ्पाक- छपाक करती वही से निकलती।चप्पलें कीचड़ से भर गई। फ्रॉक पर काले छींटे पड़ गए। पर मैं इस सबसे लापरवाह थी। ज्यादा पानी देखती तो कागज की नाव बनाकर उसमें छोड़ देखती रहती ---देखती रहती--। मन करता मैं भी छोटी सी नाव बन इसका पीछा करूँ। उफ घर मेँ तो इतने बंधन –मानो मैं मिट्टी की डली होऊं और पानी मेँ गल जाऊँगी।
अचानक बादल का एक टुकड़ा मुझसे टकराया और उसका मोटा पेट फट पड़ा।
“मैं गरज पड़ी-ए मोटू यह तूने क्या किया!मेरे सारे कपड़े भिगो दिये । अभी तक तो ऊपर से पानी डालता था अब हमारी धरती पर भी कब्जा जमाने की सोच रहा है।’’
“अरे नहीं मुन्नो !मैं तो ऊपर ही खुश हूँ। हवा को न जाने क्या शैतानी सूझी कि सरपट इतराती दौड़ने लगी । उसके झोंकों में झूलते-झूलते खट से नीचे आन गिरा। तुमसे टकराते ही मैं फट पड़ा और अंदर का पानी तुम पर लुढ़क पड़ा। अब बताओ मेरा क्या कसूर!”
“तेरी नहीं तो क्या मेरी गलती है। घर पहुँचने में वैसे ही देरी हो गई है। कोई बहाना भी नहीं बना सकती । माँ की आँखें तो वैसे ही दिन रात जागकर मेरी जासूसी करती रहती है। भीगे कपड़े देख मेरी चोरी पकड़ी जाएगी।एकदम समझ जाएंगी पानी में आप जानकर भीगी हूँ ।’’
“हा—हा-हा-हा---मुनिया चोरी तो वैसे भी पकड़ी जाती।’’ फ्रॉक पर पड़े काले छींटे को अपना मज़ाक उड़ाते देख मन किया इसका मुंह ही नोच लूँ पर ऐसा करने पर तो मेरा फ्रॉक ही फट जाता । क्या करती ---बस दाँत पीसकर रह गई।
“अरे भोली मुन्नो –इस कल्ले छींटू की बात का बुरा न मान । यह है ही ऐसा । तेरी चोरी पकड़ी गई तो क्या हुआ !ज्यादा से ज्यादा डांट ही तो पड़ेगी। सह लेना। माँ तो तेरा हमेशा भला चाहती है। इसीलिए तो डांटती है और उसकी डांट भी तो प्यार से लबालब होती है।’’
डरते डरते मैंने घर में कदम रखा । सामने माँ को खड़ा देख सकपका गई।
“आ गई ---लाडो---कीचड़ में नहाकर ! बहुत आजादी मिल गई है। कान खोलकर सुन ले ,इस बार बीमार पड़ गई तो तेरे पास फटकूंगी भी नहीं।’’
मैं एकदम खामोश थी। मोटू बादल की बात कानों में गूंज रही थी और मुझे सच में माँ की डांट में प्यार नजर आ रहा था। अब तो ऐसी डांट के लिए तरस कर रह गई हूँ। #साहित्यिकी
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