प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

रविवार, 22 जून 2025

डॉ सुरेन्द्र विक्रम की फेस बुक पोस्ट


मेरा बालसाहित्य संसार 

https://www.facebook.com/surendra.vikram.98/posts/10027286957364045




कहानियाँ बालसाहित्य की प्रमुख विधाओं में से एक हैं, जिसे बच्चे खूब पसंद करते हैं। समय-समय पर लिखी गई बालकहानियों में अलग-अलग तेवर देखने को मिलते हैं। कभी परियों को लेकर लिखी गई बाल कहानियों का दौर था तो कभी भूत-प्रेत की कहानियाँ भी बच्चों का मनोरंजन करती थीं। ऐय्यारी , तिलिस्म और जादू-टोने की कहानियों के लिए चंदामामा और गुड़िया जैसी बालपत्रिकाएँ इसीलिए लोकप्रिय थीं कि उन्हें बच्चों से ज्यादा उनके अभिभावकों और माता -पिता पसंद करते थे। अब तो भूतों को भला बताकर भले भूतों की भी कहानियाँ लिखी जा रही हैं, लेकिन उनकी बनावट और बुनावट में महत्त्वपूर्ण साहचर्य भी देखा जा सकता है।
नंदन पत्रिका लंबे समय तक परीकथा विशेषांक प्रकाशित प्रकाशित करती रही, हालांकि परीकथाओं की प्रासंगिकता पर छठें-सातवें-आठवें दशक में ही प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो ग‌ए थे। महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका धर्मयुग में बाकायदा लंबे समय तक धारावाहिक बहस भी चलती रही। परीकथाएँ हमारी धरोहर हैं, अतः हम उनका बहिष्कार किसी भी कीमत पर नहीं कर सकते जबकि दूसरे वर्ग का मत था कि अब वह जमाना गुजर गया जब हम बच्चों को कहानियों के माध्यम से परीकथाएँ देकर खोखली कल्पना के सब्ज़बाग दिखाए करते थे। आज का बच्चा यथार्थ में जी रहा है अतः उसे यथार्थवादी रचनाएँ ही दी जानी चाहिए।
यहाँ यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट है कि पहले की अपेक्षा आज का बालक अधिक समझदार है। वह हर बात को आँख बंदकर स्वीकार नहीं करता है। वह ऊल- जलूल परीकथाओं या भूत-प्रेतों की कहानियों पर प्रश्नचिन्ह लगता है ,और अपना संदेह प्रकट करने में भी नहीं चूकता है ।जो कथानक बच्चों की कल्पना और परिवेश से नहीं जुड़ते हैं, वह उन्हें सहज ही नकार देता है। किसी परी द्वारा जादू की छड़ी घुमाकर महल बनाना आज के बच्चे की कल्पना में संभव नहीं है।
मेरी इस भूमिका का कारण यह है कि विगत 40-50 वर्षों में हिन्दी बालकहानियों में आए बदलावों को समसामयिक परिवेश में अवश्य देखा जाना चाहिए। लोककथाओं के इतने अधिक संस्करण उपलब्ध होने के बावजूद आज भी लोककथाएँ लिखी जा रही हैं। इन्हें सरकारी और गैर-सरकारी प्रकाशन संस्थान धड़ल्ले से छाप भी रहे हैं। निश्चित रूप से बिक रही हैं, तभी तो छप रही हैं। यह सवाल आज भी बना हुआ है कि ये पुस्तकें बच्चों तक कितनी पहुँच रही हैं। पुस्तक की तमाम आवृत्तियों से तो यही लगता है कि स्कूलों में पुस्तकें जा रही हैं, अब बच्चे कितना पढ़ रहे हैं, यह अलग बात है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पुस्तकें केवल आलमारियों की शोभा ही बढ़ा रही हैं। इस पर काफी बहस हो चुकी है, लेकिन यह बहस बिना किसी निष्कर्ष के ही समाप्त भी हो चुकी है।
कल की डाक में सुधार भार्गव जी तीन पुस्तकें उड़क्कू की जीत (बाल उपन्यास), कल जब कथा कहेंगे ( भीबालकहानियाँ) तथा न‌ए भारत का नया सवेरा (बाल उपन्यास) मिलीं तो यह देखकर प्रसन्नता हुई कि तमाम ऊहापोह और अंतर्विरोध के बावजूद अच्छा बाल-साहित्य लिखा जा रहा है और वह सरकारी तथा गैर- सरकारी स्तर पर प्रकाशित भी हो रहा है। इसके पहले सुधा भार्गव जी की पुस्तकों ---मिश्री मौसी का मटका, ककड़िया के भालू ,जब मैं छोटी थी, बुलबुल की नगरी,, अँगूठा चूस तथा अहंकारी राजा को पढ़ते हुए यह अवधारणा बन चुकी है कि वे निर्विवाद रूप से बच्चों की प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित रोशनी के पंख पुस्तक पर हाल ही में मेरी लंबी टिप्पणी फेसबुक पर आ चुकी है।
सुधा भार्गव इतना डूबकर लिखती हैं कि उनकी पुस्तकें पढ़ते समय मन अपने आप एकाग्र होकर जुड़ता चला जाता है। उड़क्कू के बहाने उन्होंने पोस्टकार्ड की कहानी का ऐसा ताना-बाना बुना है कि लंबे समय से चला आ रहा संचार का यह साधन आज भी बरकरार है। हाँ, इतना अवश्य हुआ है कि आधुनिक संचार माध्यमों ने इसकी गति बहुत धीमी बल्कि यह कह लीजिए कि लगभग समाप्त ही कर दी है। सोशल मीडिया के दौर में आज पत्र-लेखन कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। पहले कबूतरों के माध्यम से पत्रों को भिजवाया जाता था, अब यह काम मोबाइल से हो रहा है।
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित दो पुस्तकें डॉ. साजिद खान की पुस्तक लेटरबाक्स ने पढ़ी चिट्ठियाँ तथा बहुत पहले छपी अरविन्द कुमार सिंह की पुस्तक भारतीय डाक सदियों का सफरनामा पढ़कर भी मैं बहुत दिनों तक इस परंपरा को लेकर सोचता रहा था। उड़क्कू की जीत ने भी मुझे प्रभावित किया।
दोनों पुस्तकें कल जब कथा कहेंगे और न‌ए भारत का नया सवेरा प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, भारत से प्रकाशित हुई हैं जिनमें भी न‌ई सोच और विकसित भारत की कल्पना की गई है। पर्यावरण संरक्षण से ही हम न‌ए भारत की मजबूत परंपरा को विकसित कर सकते हैं। इन पुस्तकों को पढ़ने से पहले सुधा भार्गव की दोनों संक्षिप्त लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ अवश्य पढ़ी जानी चाहिए।
---- यह सर्वदा सत्य है कि कल जब हम कहानी कहेंगे, तो वह आज की कहानियों से भिन्न होंगी। उसमें विज्ञान की लोरियाँ होंगी, व्हाट्सएप पर चुटकुले होंगे, रिमोट कंट्रोल व सनसनी पैदा करने वाले साइबर आक्रमण होंगे। बच्चों को पढ़ाएंगे तो रोबोट्स, कहानी सुनाएँगे तो रोबोट्स। कहानियों में पक्षी- जानवर तो होंगे, पर उनमें भी अधिकतर रोबो ही होंगे। प्राकृतिक और अप्राकृतिक जीवो में अंतर करना मुश्किल हो जाएगा। यहाँ तक कि दादी- बाबा की देखभाल भी मानव रोबोट करेंगे। इससे लोगों की सोच बदलेगी।सोच का प्रभाव जीवन- शैली पर पड़ेगा। यह कृत्रिम बुद्धि का धमाका उन कहानियों को आकर देगा, जिन्हें हम कल पढ़ने वाले हैं।




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