गरीबों का फ्रिज
सुधा भार्गव
गूलर बहुत दिनों के बाद अपने चाचा से मिलने आया । उसके चाचा भारत के एक गाँव में रहते थे। आते ही उसने नाक भौं सकोड़ना शुरू कर दिया। धूलभरी सड़कें,उसमें खेलते बच्चे,सड़क पर दौड़ती बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी सब कुछ उसे बड़ा अजीब लगता।
असल
में वह तो विदेश से आना ही नहीं चाहता था। एक दिन उसके पापा ने समझाया-“बेटा अपना
देश अपना ही देश होता है चाहे कैसा भी हो। और बिना वहाँ गए उसके बारे में कैसे
अच्छी तरह जानोगे?”
पापा
के तर्क के आगे उसे घुटने टेकने पड़े । मनमसोसे भारत चला आया।
गर्मी
के दिन, सूर्य के ताप से धरती जली जा रही थी। झुलसाने वाले लू के थपेड़े अलग। गाँव
वालों को ऐसे बिगड़े मौसम को सहने की आदत थी पर गूलर पसीने की भरमार से
परेशान ।
उसे यह
देख बड़ा ताज्जुब हुआ कि इतनी भयानक गर्मी में भी आधे से ज्यादा गाँव उनके स्वागत
के लिए उमड़ पड़ा है।
उसका चचेरा
भाई बिरजू स्नेह से बोला –“भैया लो नींबू की मीठी मीठी शिकंजी पी लो।’’
“ओह
मुझे नहीं पीना ।हटाओ इसे मेरे सामने से।
मैं फ्रिज में रखा ठंडा शर्बत पीता हूँ।’’
बिरजू
का खिला चेहरा बुझ सा गया।
घर
में घुसते ही गूलर की नजर आँगन में रखी लकड़ी के एक पटरे पर पड़ी । वह उछल पड़ा –“अरे
इस पर ये जानवर से कौन बैठे हैं?”
“गूलर भाई, इससे मिलो—यह है मिट्टी का बना मटका राजा और इसके पास बैठी है सुराही।
मैं इन्हें मटकू भैया और सुर्री बहन कहता हूँ। इनका ठंडा और मीठा पानी पीकर तबीयत
खुश हो जाएगी।’’
“ऊँह, मिट्टी के बने मटके का पानी तो मैं कभी नहीं पीऊँगा । पेट में पानी के
साथ मिट्टी चली गई तो बीमार जरूर हो जाऊंगा।तुम्हारे यहाँ
फ्रिज नहीं है क्या? ’’
“है
क्यों नहीं ---अंदर है रसोई में।’’
गूलर पानी लेने रसोई की तरफ मुड़ गया। सुर्री
मटकते हुए बोली-“पी ले भैया पी ले बर्फ सा पानी। कुछ ही देर बाद तेरा गला न
चिल्लाया-- –हाय दइया-मेरा गला पकड़ लिया-- हाय दइया—दर्द !तो मेरा नाम सुर्री नहीं।’’
गूलर ने फ्रिज से एकदम ठंडी पानी की बोतल निकाली और एक ही सांस में उसे
खाली कर दिया।
शाम को सब खाना खाने बैठे। बिरजू के पिताजी ने नोट किया कि गूलर खाना खाते
समय बीच बीच में बुरा सा मुंह बना रहा है। वे पूछ बैठे –“बेटा खाना पसंद नहीं आया
क्या ?”
“ताऊ जी मेरे गले में फांस सी अटक रही है।रोटी का टुकड़ा निगलते समय दर्द
होता है।’’
“बेटा, इसका
पानी पीने से तुम्हारा गला खराब नहीं होता।इसका पानी उतना ही ठंडा होता है जितना
शरीर को जरूरत होती है। इससे न गला खराब होता है और न ही लू लगती है। इसके अलावा
फ्रिज का पानी पचाने में घड़े के पानी से दुगुना समय लगता है। पेट पर ज़ोर पड़ने से
इसी कारण कब्ज हो जाता है।’’
“लेकिन
ताऊ जी मटकू का पानी ठंडा कैसे हो जाता है। यह तो खिड़की के सहारे गरम हवा में रखा
है।’’
“यही तो मटकू के शरीर का कमाल है। यह मिट्टी से बना
है और इसकी दीवारों में बड़े ही छोटे-छोटे हजारों छेद होते हैं जो आँखों से दिखाई
नहीं देते। उनसे हमेशा पानी रिसता रहता है जिससे
इसकी सतह गीली सी रहती है।
“मुझे तो नीचे से गीला नजर नहीं आ रहा।”
“नजर कैसे आए !इसका गीलेपन में समाया पानी का अंश तो भाप बनकर उड़ता
रहता है उससे सतह ठंडी रहती है।’’
“ओह अब समझा –इस ठंडी सतह से ही अंदर का पानी
भी ठंडा हो जाता है।’’ गूलर मटकू के इस कमाल पर हैरान
था।
अगले
दिन गूलर मटके के पास जाकर खड़ा हो गया। बोला-"ताऊ जी तो तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहे थे।
वे बता रहे थे तुम्हारी दीवार में छिद्र
होते हैं उन्हें देखने चला आया। पर देखूँ कैसे ?तुमने तो
अपने चारों तरफ गीला कपड़ा लपेट रखा है।’’
“हाँ ,गीले कपड़े से पानी बहुत जल्दी ठंडा होता हैं। वैसे कपड़ा हटा भी दूँ तो तुम
उन्हें बिना दुरबीन के देख नहीं पाओगे।’’
“देख
नहीं सकता मगर तुमसे दोस्ती तो कर सकता हूँ!’’
“क्यों
नहीं ?’’
“क्या
गिलास भरकर तुम्हारा ठंडा पानी पी सकता हूँ?”
“क्यों
नहीं पी सकते ?”
पानी पीकर
वह बोला-“तुम्हारा पानी तो बड़ा मीठा है। मैं जहां रहता हूँ वहाँ की
मिट्टी में तुम्हारा जैसा फ्रिज नहीं हैं। तुम्हारा पानी पीने के लिए लगता है जल्दी- जल्दी आना पड़ेगा।‘’
“अरे
वाह! अब तो मैं गरीबों का ही नहीं विदेशी बाबू का भी फ्रिज बन जाऊंगा।”
“विदेशी
नहीं देशी बाबू कहो!”
“आखिर
रंग ही गए हमारे रंग में हा—हा—हा—।” मटकू के साथ गूलर भी खिलखिला उठा।
समाप्त
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-05-2019) को "कंकर वाली दाल" (चर्चा अंक-3324) (चर्चा अंक-3310) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'