एक कमी है
सुधा
भार्गव
“मुझे
अपनी एक
फोटो दे दो।”
“क्यों
मेरी लाडो!”
“स्कूल
जाने पर मुझे आपकी बहुत याद आती है। जब भी आपके बारे में सोचूँगी ,झट से फोटो देखूँगी।”
“अभी तो
मेरे पास अच्छी फोटो नहीं है।”
“कैसी भी
दे दो। होगी तो मेरी दादी माँ की ही। आप बैठी रहो। मुझे बता दो कहाँ रखी है?मैं ले आऊँगी।”
“देख,सामने की अलमारी में नीचे के रैक में मेरी अल्बम रखी है। उसे ले आ।”
छ्टंकी
को कहाँ इतना सब्र!उसने अल्बम से खुद ही एक फोटो निकाल ली।देखते ही चिहुँक पड़ी-“इसमें
तो अम्मा आपके बाल बड़े लंबे हैं। बहुत स्मार्ट लग रही हो। मैं इसे अपनी सहेलियों
को दिखाऊँगी। और हाँ,जब मैं कल स्कूल से लौटूँ तो मुझे
जरूर लेने आना ।”
“क्यों
रानी जी,कल कोई खास बात है?”
“किसी
की दादी माँ पैंट नहीं पहनती। जब मैं रोनी-मोनी से बताती हूँ तो विश्वास ही नहीं करतीं।
कल वे अपनी आँखों से देख लेंगी।”
दादी
हंसी से फट पड़ी। उन्हें अपनी उम्र 10 वर्ष कम लग रही थी।
पायल सी
झनकती बोलीं-“तेरी बात भला मैं कैसे टाल सकती हूँ।”
“ओह
मेरी लवली दादी!मैं आपको सबसे ज्यादा प्यार करती हूँ।आप सबसे ज्यादा किसे प्यार
करती हो?”
“अपनी
छुटकी छटंकी को।” दादी ने स्नेह से उसके रुई से मुलायम गालों को छुआ। पुलकित हो
उन्होंने कुछ देर को आँखें बंद कर लीं।उनमें एक भोली बालिका कैद थी।
“इसीलिए
तो मैं पापा के साथ इंग्लैंड नहीं जाना चाहती।”
“वहाँ तो
तुम्हें देखने को चमचमाती नई दुनिया देखने को मिलेगी। भला क्यों नहीं जाओगी?”
“आप तो एकदम
बच्ची हो।छोटी सी बात नहीं समझ नहीं पा रहीं। वहाँ आप नहीं होंगी,तो बातें किससे करूंगी।’’
“रानी
एलिज़ाबेथ से ’’---।दादी ने ठिठोली की।
“आप तो
बस ---सब समय मज़ाक। मैं इस समय बहुत सीरिअस हूँ।’’
“इन्टरनेट
से बातें कर लेंगे।’’
“प्रोमिज’’-नन्हा सा हाथ
बढ़ा।
“प्रोमिज’’ –बड़ा सा हाथ भी
बढ़ा और हाथ से हाथ मिल गया।
कुछ पलों
के लिए दोनों के बीच मौन पसर गया। अचानक छटंकी ने अपना एक हाथ मुंह पर रखा। दूसरे
हाथ के सहारे अपनी दादी के पास और खिसक आई। “अम्मा,एक बात
कहूँ,किसी से कहना मत। जरा अपना कान लाओ।”
आज्ञाकारी
बच्चे की तरह दादी ने अपना कान बढ़ा दिया।
छुटकी ने
इधर-उधर नजर डाली—“कोई उसकी बात तो नहीं सुन रहा। फिर धीरे से अपना मुंह कान के
पास लाई। फुसफुसाते हुए बोली-“पापा बहुत बुरे हैं।”
“ऐ---क्या
कह रही है!” दादी अम्मा को करंट सा
लगा।उन्होंने कभी सोचा भी न था कि छुटकी अपने पापा के बारे में ऐसा सोचेगी।
“ठीक ही
कह रही हूँ। आपने जो मुझे गुड्डा दिलाया था,पापा कह रहे थे—उसे
इंग्लैंड नहीं ले जाएँगे।”
“तो क्या
हुआ !वह वहाँ दूसरा खरीद देगा।”
“मैं उसे
छोड़कर नहीं जाऊँगी । वह आपका दिया हुआ है। आपकी दी हर चीज उतनी ही प्यारी है जितनी
आप।”
“और लोग
भी तो तुम्हें नई-नई-चीजें देते हैं। मैं ही तो नहीं देती।”
“आपकी
बात कुछ और ही है। मामा-मम्मी,जूते,टी
शर्ट,स्कर्ट खरीदते हैं। दीदी उन्हें पहले पहनती है,फिर मुझे मिलते हैं। मैं अब बड़ी हो गई हूँ—पुराना क्यों पहनूँ!बस गुड्डा ,नीली आँखों वाला नया-नया है। वह तो अच्छा है कि दीदी को गुड़िया खेलने का
शौक नहीं। वरना गुड्डा भी छिन जाता।” एक विजयी मुस्कान उसके चेहरे पर खेल रही थी।
“भोले
बच्चे ,तुम दोनों ही उससे खेल सकते हो।”
“खेलना
दूसरी बात है। वह तो रौब जमाने लगती है। कुछ भी हो गुड्डा तो मैं इंग्लैंड लेकर ही
जाऊँगी। और--- किसी को छूने नहीं दूँगी।” उसकी आवाज में सूरज की सी गर्मी थी।
“यह
कितने साल का है अम्मा?”
“होगा
एक साल का। मेरे पास छोटे –छोटे स्वटर बने रखे हैं। उन्हें वह पहन लेगा।”
“गुड्डे
के इतनी जल्दी स्वटर बुन दिए! मेरी अम्मा बहुत चतुर है। आपको तो मालूम है इंग्लैंड
में ब हुत सर्दी पड़ती है। अब इसे ठंड भी
नहीं लगेगी।”
उसने
खुशी में डूबकर गुड्डे को चूम लिया। “देखा मेरे गुड्डे ,तेरे स्वटर भी तैयार हैं।”
“पोती-अम्मा
की क्या गुटर-गूं हो रही है।मैंने सब सुन लिया है। बस यह गुड्डा नहीं जाएगा,इसका टिकट लगेगा।” छटंकी को छेड़ते हुए उसके पापा बोले।
“बेटा
इसे मत सता,छ्टंकी इसे गोदी में ले जाएगी। पिछली बार मैंने
लंदन के हिथ्रो एयरपोर्ट पर देखा था छोटी –छोटी
फूल सी बच्चियों को। एक कंधे पर उनके बैग झूल रहा था। उसमें उनका टिफिन और पानी की
बोतल थी,दूसरे हाथ
में अपनी गुड़िया पकड़ रखी थी।” शायद छटंकी के पापा को माँ की बात पसंद आ गई।
मुस्कान बिखेरते हुये कंप्यूटर में व्यस्त हो गए।
गुड्डा
था भी बड़ा प्यारा।रेशम से सर के बाल,गोरा -गोरा नीली
आँखों वाला हँसता चेहरा। जो उसे देखता गोदी में लेने को लालायित हो उठता।
भारत से
गुड्डा लंदन पहुंच गया । छटंकी को अम्मा
के बिना चैन कहाँ! दूसरे ही दिन फोन खटखटा दिया –“अम्मा मेरा गुड्डा यहाँ
सबको बहुत पसंद आया। उसको गोद में ले-लेकर देख रहे थे। मुझे तो डर लगने लगा,कोई उसे लेकर भाग न जाए।
एक लड़के
ने पूछा-“कहाँ से खरीदा है?”
मैंने
कहा-“भारत से। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। अम्मा उसे आश्चर्य क्यों हुआ?”
“इसलिए
कि वह कभी सोच ही नहीं सकता था कि हमारे देश में इतनी सुंदर चीजें बनती हैं। ये
खिलौने विदेशों में खूब बिकते हैं। कुछ ही दिनों में हमारा देश मालामाल हो जाएगा।”
“मेरे
पास भी बहुत पैसा हो जाएगा क्या?”
“हाँ!”
“तब तो
रोज आपको हवाई जहाज से यहाँ बुलाऊंगी। आप आओगी न—। ”
“हाँ बाबा,रोज आऊँगी। तुम्हें तो वहाँ बहुत अच्छा लग रहा होगा। साफ सड़कें,ऊँचे-ऊँचे घर,खाने को चॉकलेट,आइसक्रीम
और केक।”
“बस एक
कमी है।”
“किसकी?”
“आपकी।”
यह सुनकर दादी माँ का मन भर आया और वे प्रेम की बारिश में
न जाने कब तक भीगती रहीं।
समाप्त
प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-05-2019) को "लुटा हुआ ये शहर है" (चर्चा अंक- 3334) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर कहानी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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