प्यारे बच्चों

कल सपने में देखा -मैं एक छोटी सी बच्ची बन गई हूं । तुम सब मेरा जन्मदिन मनाने आये हो । चारों ओर खुशियाँ बिखर पड़ी हैं ,टॉफियों की बरसात हो रही है । सुबह होते ही तुम में से कोई नहीं दिखाई दिया ।मुझे तो तुम्हारी याद सताने लगी ।

तुमसे मिलने के लिए मैंने बाल कुञ्ज के दरवाजे हमेशा के लिए खोल दिये हैं। यहाँ की सैर करते समय तुम्हारी मुलाकात खट्टी -मीठी ,नाटी -मोती ,बड़की -सयानी कहानियों से होगी । कभी तुम खिलखिला पड़ोगे , कभी कल्पना में उड़ते -उड़ते चन्द्रमा से टकरा जाओगे .कुछ की सुगंध से तुम अच्छे बच्चे बन जाओगे ।

जो कहानी तुम्हें अच्छी लगे उसे दूसरों को सुनाना मत भूलना और हाँ ---मुझे भी वह जरूर बताना ।
इन्तजार रहेगा ----! भूलना मत - -

बुधवार, 29 अक्टूबर 2014

निबंध

भारत की राष्ट्रीय भाषा में दुनिया के बच्चों पर संवाद करता 

अंतरजातीय अखबार 


बच्चों की दुनिया- संपादक रमेश तैलंग 
वर्ष1 ,अंक 3,15 अक्तूबर 2014 में प्रकाशित निबंध जिसे पढ़कर रोएँ खड़े हो जाते हैं। 
विषय-बालहिंसा-- अरब देशों में ऊँटदौड़
इसे अंतर्जाल पर भी पढ़ा जा सकता है।वेबसाइट है http://www.bachchonkiduniya.com/


उनका तो खेल हुआ ,जान यहाँ जाती है
बाल हिंसा का जाल समस्त विश्व को किसी न किसी रूप में अपनी जकड़ में लेता जा रहा है। अभावों की दुनिया में पलने वाले बच्चों को न भरपेट भोजन मिलता है न तन ढकने को कपड़ा और न मुंह छिपाने को एक घर। न वहाँ बच्चे का स्वास्थ्य और सुरक्षा है न प्यार का साया। ऐसे मासूम बच्चों के खरीदार  उनके  माँ बाप की देहली पर दस्तक देने में देर नहीं करते।  उज्जवल भविष्य के सपने दिखाकर वे उन्हें अपनी चालों में फंसा लेते हैं और अशिक्षित और भूख से मजबूर चंद सिक्कों के बदले अपने कलेजे के टुकड़ों को बेचने को तैयार हो जाते हैं। फिर गुलजार होती है बच्चों की तस्करी दुनिया और शुरू होता है उनका दर्दभरा शारीरिक ,मानसिक शोषण। ये बच्चे घर -घर सुबह से रात तक  काम करते है।ड्रग बेचने ,भीख मांगने के व्यवसाय को रोशन करते हैं। अरेबियन देशों में ऊंट जोकी (camel jockeys) के काम आते हैं। 


मिडिल ईस्ट में ऊंट जोकी(camel jockeys in Middle East )बाल हिंसा का जीता जागता उदाहरण है। यहाँ मासूम बच्चों का दिल दहलाने वाला शोषण किया जाता है। यह सत्य है कि कोई  भी जानवर बहुत तेजी से यात्रा के काम आ सकता है वशर्ते उसका सवार हल्का व छोटा हो । छोटे प्रौढ़ को पाना तो बड़ा मुश्किल है इसलिए मिडिल ईस्ट में ऊंट जौकी के लिए भोले भाले बच्चों को चुन लिया जाता है । इन देशों में धन की कमी नहीं ! बड़ी सरलता से सूडान ,पाकिस्तान,भारत ,बंगला देश के गरीब या असहाय बच्चों को खरीद लेते हैं। इनसे निष्ठुरता से कैमेल जौकी का काम लिया जाता है ।
ऊंट जोकी के लिए बच्चों का अपहरण भी कर लिया जाता है।  अरब में लाख गरीब होने पर भी ईश से यही प्रार्थना करते हैं कि उनका बेटा जौकी न बने पाए । बच्चे को घर में कब तक बांधा जा सकता है । दो -तीन वर्ष का होने पर जैसे ही वे बाहर निकलते हैं उनका अपहरण कर लिया जाता है। इसमें पूरा का पूरा एक स्थानीय गिरोह जुटा रहता है जो इन्हें बेचकर पैसा कमाते हैं।  खरीदने वाले उन बच्चों के माँ -बाप बन जाते हैं पर उन पर ममता नहीं लुटाते । वे तो गुलाम के रूप में उनकी ख़रीदारी करने के लिए करांची होते हुये गल्फ पहुँच जाते हैं।

तेल के कारण गल्फ देशों में  बड़ा पैसा आ गया है । उन्हें पता नहीं कि उसका कैसे उपयोग करें ?फिजूलखर्ची के लिए तो शेख प्रसिद्ध हैं ही । संसार की सबसे ज्यादा खर्चीली दौड़ घोड़ों की दुबई मेँ होती है । उनसे कोई आय नहीं होती ,बस राजसी प्रशासकीय धनी परिवारों की महिमा है।   
धन का बहुत बड़ा अंश ऊंटों पर खर्च हो जाता है । दौड़ लगाने वाले ऊंटों के लिए विशेष प्रकार के अस्पताल हैं। लेकिन इंसान का बच्चा कैमेल जौकी रोड़ी –गिट्टी से ज्यादा कुछ नहीं !जैसे ही एक घायल  हुआ या दौड़ के समय मर गया , उसके लिए न कोई दो आँसू बहाता है न किसी के दिमाग में घायल के जख्मों को सहलाने की  बात आती है ! आए भी क्यो?एक गिरा या मरा तो दस हाजिर --जौकी से अच्छा तो वहाँ का ऊँट है।

ऊंट पर बैठे बच्चों की कोई छुट्टी नहीं होती । माँ -बाप से दूर विदेशी भूमि पर कानून भी उनकी रक्षा नहीं करना चाहता। पूरे हफ्ते ऊंट पर चढ़ने और दौड़ का अभ्यास जारी रहता है । करो या मरो वाली बात  उनके साथ लागू होती है । .2 -4 थप्पड़ की मार और कुछ दिनों की भूख के बाद ही वे सीधे हो जाते हैं । यदि वे भागना चाहते हों तो भी भाग नहीं सकते । इसके अलावा उनके दिमाग में यह डालने की कोशिश की जाती है कि उनके माँ -बाप उनसे प्यार नहीं करते ,उन्होंने  ही तो पैसे की खातिर उन्हें बेच दिया । बच्चे भी सोचने लगते हैं -जाये तो जाएँ कहाँ? --इधर कुआं तो उधर खाई। 
ऊंट दौड़ शुरू होने से पहले जौकी को भूखा रखा जाता है ताकि कम वजन का अनुभव होने से ऊंट तेज भाग सके । इसका भी डर रहता है कि पेट में खाना हिलने से कहीं बच्चा उसे उगल न दे । कभी -कभी उनके जख्म करके उनमें नमक -मिर्च डाल देते हैं ताकि वे चिल्लाएँ -तड़पड़ायेँ। इससे दर्शकों का ज्यादा मनोरन्जन होता है । क्रूरता की पराकाष्ठा नहीं । न उनकी पढ़ाई न उन्हें अपने वतन का ज्ञान न साथ में भाई –बहनों की यादें । ऐसे बच्चों  के दुर्भाग्य की सीमा नहीं।

कुछ जगह जोकी बनने के लिए बच्चों की उम्र व वजन निश्चित कर दिया गया है लेकिन शेख के व्यक्तिगत ऊंट को जिताने के लिए ट्रेनर सारे नियम ताक पर रख देता है । इसके लिए उसे इनाम मिलता है पर बच्चे को असमय की मौत !
भाग्य से कुछ बच्चे बच भी गए तो उनको ऊंटों के अन्य कामों में लगा देते हैं । यदि बड़े होकर उन्होने भागने को एक कदम भी उठाया तो अकानूनन आप्रवासी  के अपराध में जेल की हवा खानी पड़ती है जबकि उनका कोई दोष नहीं ।

एक बार बड़े बच्चों  को उनके घर भेजने की कोशिश की भी गई पर ऐसा उनका कोई रिकॉर्ड तो
होता नहीं जिससे उनके गाँव या माँ -बाप का पता चल सके । अंत में उनको किसी नरकीय बस्ती में छुड़वा दिया । यह नक्शा है अरब के रहीसों के ऊंट की परंपरागत दौड़ का । बहुत से लोग मिडिल ईस्ट की  भाषा – कैमेल जौकी का अर्थ ही नहीं समझते और समझते भी हैं तो मुंह पर ताला लगाए रहते हैं । कौन फालतू में दुश्मनी मोल ले !यदि इस क्षेत्र की सरकार कड़ा कदम उठाए तो सैकड़ों बच्चे नारकीय जिंदगी से छुटकारा पा लें ।

सुधा भार्गव
subharga@gmail.com 

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

दीपावली के शुभ अवसर पर कहानी (2014)

दो बहनें

दिवाली का दिन था ।


धन की देवी लक्ष्मी दरवाजे-दरवाजे जाकर सोच रही थी किसका दरवाजा खटखटाऊँ। एक दरवाजे पर उसे अपनी बहन सरस्वती खड़ी दिखाई दी।

-अरे हट –मेरा रास्ता छोड़। इतने दिनों से यहाँ पड़ी है पर सीधे -साधे मंगौड़ी मास्टर का कुछ भला भी न कर पाई।जो पूरे गाँव के बच्चों को बुद्धि बाँटता रहता है उसमें इतनी बुद्धि नहीं कि खुद कैसे सुख से रहे। आज के दिन भी बेचारे के पास दीपक जलाने को न घी है। न मेरा भोग लगाने को मिठाई।


मेरी तो छोड़ –देख उस बच्चे को देख !पुराने कपड़े पहने पटाखों ले लिए अपनी माँ के सामने गिड़गिड़ा रहा है। भई ,मेरे से तो इसका कष्ट देखा नहीं जाता।
-ठीक है बहन, स्वागत! मैं चली।
-हाँ –हाँ तू जा । वैसे भी जहां तू होती है वहाँ मेरी दाल नहीं गलती । देखना –कुछ ही दिनों में इसके घर में सुख ही सुख बरसने लगेगा। लक्ष्मी बोली।
लक्ष्मी ने मास्टर  के घर में डेरा डाल लिया। कुछ देर बाद ही उसके कई छात्र आन धमके । सबके हाथों में कोई न कोई उपहार था। किसी ने फुलझड़ी पटाखे दिए, तो कोई रंगबिरंगे सुंदर कपड़े लाया।  मिठाई- नमकीन के तो पैकिट ही पैकिट  थे। कीमती उपहारों को देख मंगौड़ी मास्टर चकित सा सोचने लगा –लड़कों के पास तो बहुत पैसा है। मुझ मूर्ख ने तो बड़ी रकम लिए बिना इन्हें पढ़ाकर बड़ी गलती की।
उसने अगले महीने से ही लड़कों से पढ़ाने के बदले नियम से धन लेना शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में उसके घर में पैसा ही पैसा बरसने लगा ।

वह अच्छा खाता ,अच्छा पहनता। बेटे को फूलों की तरह पालने लगे। पर ज्यादा लाड़ -प्यार से बेटा बिगड़ने लगा।पढ़ने में उसका मन नहीं लगता। मास्टर की आँखें तो तब खुलीं जब उसका अपना ही बेटा कक्षा में फेल हो गया। दूसरों के बच्चों का भाग्य बनाने वाला अपने ही बच्चे का भाग्य न बना पाया। यह सोच सोचकर वह दुखी रहने लगा।

पत्नी घर देखने की बजाय अपनी साड़ी गहने पड़ोसियों को दिखाने में लग गई।अब न वह घर साफ करके रखती और न ठीक से खाना बनाती। मंगौड़ी यदि कुछ कहता तो लड़ने को तैयार हो जाती। बेटा भी झगड़ालू और जिद्दी हो गया। । घर में अशांति रहने लगी।
रोजाना की चख़चख़ और चारों तरफ फैली गंदगी से लक्ष्मी का जी मिचलाने लगा। वह दूसरे घर में जाने को बेचैन हो उठी।

दूसरे वर्ष दिवाली आई।  
लक्ष्मी सुस्त सी दरवाजे पर आन खड़ी हुई।  सरस्वती को देख ज़ोर से चिल्लाई –बहना जल्दी आ---। आकर मंगौड़ी मास्टर को सम्हाल। यह तो मुझे पहले भी दुखी सा लगता था और अब भी दुखी है।मैं तो इसे खुश न रख सकी।

यह सुनते ही विद्या की देवी सरस्वती ब्राहमन के दिमाग में प्रवेश कर गई। वह ठीक से सोचने समझने लगा ।उसने ब्राहमन को अपनी पत्नी से कहते सुना-- न जाने क्या भूत सवार हुआ था कि मैंने धन का पुजारी बनने का निश्चय कर लिया। ।उसी कारण बुराइयों के दलदल में फंस गया। मैं तो विद्या का पुजारी ही भला।

सरस्वती मंद -मंद मुसकराने लगी।

तीसरे वर्ष फिर दिवाली फिर आई।
सरस्वती दरवाजे पर खड़ी थी और उसकी आँखें लक्षमीमको खोज रही थीं। लक्ष्मी को आता देख चहक पड़ी-लक्ष्मी तुमको बिना देखे पूरा साल बीत गया। अंदर आओ न। आज तो दीवाली है मिलकर मनाएंगे।
-दुनिया से निराली बात !कभी हम साथ-साथ रहे हैं?

-कल की बात छोड़ो,आज की बात करो। हरएक को तुम्हारी जरूरत है।अब ब्राहमन के बेटे को ही देख लो उसको खेलने का बड़ा शौक है । कभी मिट्टी के ढेले को पैर से फुटबॉल की तरह लुढ़काएगा तो कभी पत्थर को उछलकर उसे गेंद की तरह। यदि इसको फुटबॉल मिल जाए तो वह एक अच्छा खिलाड़ी हो सकता है। पर खरीदे कैसे बिना पैसे के । कुछ दिन यहाँ रुक जाओ।
-बस भी करो । देख लिया मैंने यहाँ रुककर। मैं तो बड़े शौक से इसे धनवान बनाने आई थी पर मेरा गलत तरीके से यह परिवार इस्तेमाल करने लगा और दोष ब्राहमन मुझे देने लगा। अब तो मैं यहाँ बिलकुल नहीं रहूँगी।

-ठीक है जब तुम्हारा कोई अनादर करे तो चली जाना करो। फिर मैं भी तो हूँ तुम्हारे साथ। कोई तुम्हारा मूल्य नहीं समझेगा तो मैं उसे रास्ता दिखाऊँगी। तुम्हारे यहाँ रहने से मंगू की तकदीर पलट जाएगी। फिर हम दोनों तो दूसरों का भला ही चाहते है। लक्ष्मी एक पल रुकी ,फिर उसने अपनी बहन की ओर हाथ बढ़ा दिया।सरस्वती ने उसका हाथ कसकर  थाम लिया कि कहीं चंचला चल न दे।

चौथे वर्ष फिर दीवाली आई ।
इस वर्ष सरस्वती और लक्ष्मी दोनों मंगौड़ी मास्टर के दरवाजे पर खड़ी थी। उनको देख लोग चकित हो उठे और कहने लगे –इनका साथ साथ रहना बड़ा कठिन है और जिस घर में ये एकसाथ रहने लगें वहाँ तो दिन -रात चांदनी ही चांदनी छिटकी पड़ती है। मास्टर जी की तरह दिवाली हमारे जीवन में भी खुशियों की बारात लाए।     
   
 

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

लेख

गांधी जयंती के अवसर पर 

हमारे राष्ट्रपिता प्यारे बापू /सुधा भार्गव 




एक बार धरती ने आकाश से कहा –हे तारों के राजा ,तू अपने चाँद और सूरज पर गर्व करके इतने ऊंचे उठते न चले जाओ कि मनुष्य तुम्हें छू भी न सके। मुझसे सहिष्णु और दानी बनो जिसने अपने वे दो चरण  जिनमें चाँद और सूरज से कहीं अधिक ज्योति थी देवलोक को दान कर दिये।
वे दो चरण बापू के थे।आज उन्हीं का जन्मदिन जगह जगह राष्ट्रीय पर्व गांधी जयंती के रूप में मनाया जा रहा है।

गांधी जयंती समारोह

 वे दो पग जिधर भी चल पड़ते थे ,कोटि –कोटि पग उनका अनुकरण करते । वे फूलों की सुरभि से पतले और यज्ञ की अग्नि से भी अधिक क्रांतिकारी थे। वे इतना ऊंचे उठ गए कि देवता उन्हें ऊपर उठाकर ले गए।

महात्मा गांधी चाहे अवतार नहीं थे पर वे ऐसे मानव थे जो अवतारों के भी अवतार कहे जा सकते हैं।उनकी जीवनी में,उनके प्रयोगों में और उनके विचारों में वे सब आदर्श हैं जो किसी देवता में हुए हैं। वे स्वर्ग का भूमिकरण करने के लिए धरती पर प्रकट हुए और भूमि का स्वर्गीकरण करते हुए  निराकार हो गए।

शिक्षा प्राप्ति के लिए 1888 में गांधी जी इंग्लैंड गए मगर भारतीयता  को न छोड़ पाए । न उन्होंने मांस खाया  और न ही अन्य व्यसनों  में फंसे। 1902 में अफ्रीका जाकर वहाँ की दासता को मिटाने के लिए उन्होने अहिंसात्मक सत्याग्रह किए। अफ्रीका में गांधी जी की यह क्रान्ति महान एतिहासिक क्रांति है।

अफ्रीका में अपने गौरवशाली चरण चिन्ह छोड़कर 1915 में गांधीजी भारत आए। बस यही से गांधीजी की जिंदगी भारत की बदलती हुई किस्मत की जिंदगी है। भारत भ्रमण,असहयोग आंदोलन ,चौरा –चौरी कांड उपवास,6वर्षों की सजा जैसी कितनी ही घटनाएँ और गतियाँ गांधी जी ने वसंत के फूलों की तरह धरती पर छोडीं ।

असहयोग आंदोलन 
गांधी जी जहां कांग्रेस के अध्यक्ष,कुशल राजनीतिज्ञ तथा महात्मा थे ,वहीं वे एक कलाकार भी थे । हरिजन आदि पत्रों का उन्होंने सम्पादन किया । संगीत का स्वाद भजनों के द्वारा चखा।  यही नहीं गांधीजी साहित्यकार से एक ऐसे व्यापक तेज बन गए जिससे साहित्य जगत  में गांधीयुग और गांधीवाद की धारा बह चली।
गांधी जी भारत माता की बेड़ियाँ काटने के लिए आए थे। । वे दलितों का उद्धार करने के लिए अवतीर्ण हुए थे।  वे दानव को मानव बनाने के लिए बोले थे। उन्होंने अपना काम किया और चले गए।
सन 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के रूप में एकला चलो रे की उक्ति चरितार्थ करते चले जा रहे थे । 1947 में वे जेल से छूट स्वाधीन भारत के आँगन में ऐसे जगमगाए जैसे वनों से लौटकर राम जी अयोध्या में सुशोभित हुए थे । किन्तु धन्य हैं गांधी जी !उन्होंने राष्ट्र पति पद के सिंहासन को सुशोभित नहीं किया अपितु साधु की कुटिया को प्रकाशमान किया।
बापू ने भेदभाव को मिटाने के लिए अपनी आवाज बुलंद की । अपने प्राणों की बाजी लगाकर हरिजनों को हिंदुओं से अलग होने से रोका।

हरिजन सेवा संघ 
उन्होंने हरिजन सेवा संघ की स्थापना की ताकि उनको मंदिरों में प्रवेश करने से न रोका जाए।  शिक्षा से वंचित न किया जाए और जीने के समान अधिकार मिलें।  

हिन्दू –मुस्लिम एकता के लिए भागीरथ प्रयत्न करते रहे और अंत में इसी वेदी पर वे अपने प्राण न्यौछवार कर गए।
हम हर दिशा और विषय पर गांधी जी के विचार पाते हैं । स्त्रियॉं पर साहित्य पर ,संगीत पर ,ग्रामों पर ,गौ सेवा पर ,आध्यात्मिकता पर ,सभी पर गांधी जी ने श्रेष्ठ विचार दिये हैं। उनकी वाणी ज्योति देने वाली ज्वलित दीप शिखा है।

गांधीजी ने मनुष्य से कहा –स्वावलंबी बनो ,अहिंसा हृदय का सर्वोत्तम गुण है। करोड़ों के सम्मलित प्रयास से जो शक्ति पैदा होती है उसका सामना कोई और शक्ति नहीं कर सकती । मैं अछूत प्रथा को हिन्दू समाज का सबसे बड़ा कलंक मानता हूँ।
यह है गांधी वाणी का कुछ प्रसाद। गांधी जी हमें मनुष्य के हर रूप में दर्शन देते हैं। 


चरखा कातते ,कपड़ा बुनते ,बोझा ढोते ,किसान कर्म करते और पढ़ते-पढ़ाते भी वे दृष्टिगोचर होते हैं। गरीबों की आँखों में,कलाकार की तूलिका में,भक्तों के भजन में और दलितों की पुकार में ,रोगियों की सेवा में गांधी जी की छवि विद्यमान है। 


रोगी की सेवा
उनमे आकर्षण था तभी तों खूनी काल में भी स्वतन्त्रता ने आकर उनके चरण पूज लिए । सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य आज गांधी जी के चरणों का ही प्रसाद है ।
बापू जी के लिए किसी ने ठीक ही कहा है
किसी को धूप में देखा कि तन की तान दी छाया,
धार को प्यास में देखा कि उसने नीर बरसाया।


किन्तु ऐसे साधु को भी पापी की वह अंधी पिस्तौल खा गई जो गोडसेके हाथों चली। उस कसाई ने देवता को मार डाला। लेकिन तब भी हमारे बापू अजर-अमर हैं। हम भारत माँ के सपूत को आदरसहित प्रणाम करते हैं। 



शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

नमन व निबंध


शिक्षक दिवस 2014/सुधा भार्गव 



नमन 

आज हमारे प्रिय आदर्श शिक्षक डॉ राधाकृष्णन का जन्मदिन है जिनसे हमने ही नहीं पूरे विश्व ने बहुत कुछ सीखा और सीख रहा है। ऐसे महान पुरुष को दिल से नमन करते हुए श्रद्धा के दो फूल उनके चरणों मेँ अर्पित करते हैं। 

ऐसे समय मेँ महान संत कबीरदास जी का एक दोहा याद आ रहा है—

सब धरती कागज करूँ,लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ ,गुरू गुण लिखा न जाय।।

उन्होंने गुरू की महिमा का बखान करते हुए सच ही कहा है  --
यदि मैं सारी पृथ्वी को कागज बना दूँ और सब जंगलों को कलम । सात समुद्रों के पानी को मिलाकर स्याही तैयार कर लूँ तब भी उससे गुरू के गुण नहीं लिखे जा सकते। 

ऊपर लिखी पंक्तियाँ डॉ राधाकृष्णन के बारे मेँ खरी उतरती हैं।

अब जरा उनके बारे मेँ जान लें जिनका हम जन्मदिन मना रहे है ताकि उनसे कुछ प्रेरणा ले सकें। 
सब जानते हैं कि दिनोंदिन गुरू शिष्य के संबंध बिगड़ते जा रहे है। न छात्रों के हृदय में गुरू के प्रति मान- सम्मान रह गया है और न ही गुरू ,शिक्षण के प्रति ईमानदार और समर्पित है। वे सोचते हैं कि कक्षा में चंद घंटे पढ़ाने से उनका कर्तव्य पूरा हो गया । वे यह क्यों नहीं समझते कि उनकी शिक्षा को छात्र तभी ठीक से ग्रहण कर पाएंगे जब वे अपने स्नेह व मृदुल व्यवहार से उनके दिल में जगह बना लें । छात्रों की ज्ञान पिपासा और जिज्ञासा को जो निरंतर शांत करता है वही उनका आदर पा सकता है। इसके लिए एक बार डिग्री लेना ही काफी नहीं है बल्कि अपनी बुद्धि की धार हमेशा पैनी करते रहना होगा। तभी तो वे अज्ञान की गहरी गुफा को काट सकेंगे।

5सितंबर हमें उत्साह से भर देता है ,एक नई चेतना जगाता है। लगता है हम सोते से जाग गए हैं क्योंकि  शहर-शहर ,गाँव-गाँव में स्कूल ,कालिज ,यूनिवर्सिटी में शिक्षक दिवस बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। इस दिन डॉ राधा कृष्णन का जन्म हुआ था पर उन्होंने कहा था –मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं गौरव का अनुभव करूंगा।तभी से हम सब उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते है।

वे बचपन से ही बहुत बुद्धिमान थे तभी तो आगे जाकर हमारे स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति बन सके। इससे पहले वे 40 वर्षों तक अध्यापनकार्य मेँ रत रहे।वे एक आदर्श शिक्षक थे। कोई जरूरी नहीं कि उच्च शिक्षित दूसरों को सफलता से पढ़ा भी सके क्योंकि पढ़ाना एक कला है और इस कला मेँ डॉ राधाकृष्णन पूर्ण पारंगत थे। वे पढ़ाते समय अपने बुद्धिचातुरी से व्याख्याओं ,आनंद पूर्ण अभिव्यक्तियों और खिलखिलाने वाली कहानियों से छात्रों का मन मोह लेते थे। जिस विषय को वे कक्षा मेँ पढ़ाने  जाते उसका पहले से ही गहन अध्ययन कर लेते । अपनी शैली से नीरस पाठ को भी सरस और रुचिकर बना देते ।इससे छात्र बहुत मन लगाकर पढ़ने लगते ।

वे भारतीय संस्कृति ,संस्कार और नैतिक मूल्यों मेँ विश्वास करते थे और उन पर उन्हें गर्व था। उन्होंने गीता, वेद –उपनिषद का अध्ययन कर दुनिया को हिंदूत्व की महत्ता को बताया। शिक्षण देते समय उन्होंने हमेशा नैतिक मूल्यों पर ज़ोर दिया । वे इन्हें उनके आचरण का गहना समझते थे। उन्हें इस बात का गर्व था कि हिन्दू परिवारों मेँ सहनशीलता ,प्यार ,त्याग और मेलजोल का पाठ बच्चे जन्म से ही सीखने लगते है। बड़ों के प्रति शिष्टता ,आदर की भावना सयुंक्त परिवार मेँ खुद ही अंकुरित होने लगती है।

उनकी भाषण देने की क्षमता अपूर्व थी। विद्यार्थी जीवन में हम उनके निबंध पढ़ते थे और उनका भाषण सुनने को लालायित रहते थे। उन दिनों दूरदर्शन नहीं थे पर रेडियो में ही उनके  भाषण की पूर्व घोषणा कर दी जाती थी। सारे काम रोक कर रेडियो की आवाज तेज करके उसके पास बैठ जाते। ऐसा जुनून था उनकी बात सुनने का । वे जो कहते हम उसी के बहाव में बह जाते और सोचते वे एकदम ठीक ही कह रहे हैं। 
वे विदेशों मेँ भी शिक्षा और धर्म संबंधी व्याख्यान देने जाते थे। उनको ससम्मान बुलाया जाता जिसे मिशनरी समाज ,छात्र मंडली सुनकर बहुत प्रभावित होती। वे ताजगी व शांति का अनुभव करते। 

भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया तथा उनके नाम टिकट लिफाफा आदि निकाला जिन्हें खरीदकर भारतीयों ने यादों की पुस्तक में सुरक्षित रख छोड़ा है। 



























भारत रत्न प्राप्त सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन को उनकी मृत्यु के बाद मार्च 1975 मेँ टेम्पलटन पुरस्कार प्रदान किया गया । यह सम्मान अमेरिकन सरकार की ओर से दिया गया था। । यह उसको ही प्रदान किया जाता है जो धर्म के क्षेत्र मेँ प्रगति के लिए विशेष कार्य करता है। इस पुरस्कार को पाने वाले ये गैर ईसाई संप्रदान के प्रथम व्यक्ति थे। वे हमेशा विश्व मेँ भारत का नाम ऊंचा करते रहे और आज भी उन्हें एक आदर्श शिक्षक,हिन्दू विचारक, दर्शनज्ञाता,व्याख्याता  के रूप मेँ याद किया जा रहा है। 
हम भारतीयों को उनपर गर्व है। 

पुन: नमन 

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

बाल कहानी

बिखरते सँवरते  रंग /सुधा भार्गव

(स्कूलों में गृहकार्य ही बोझिल नहीं हो गया है बल्कि नित नए प्रोजेक्ट तैयार करना , पाठ से संबन्धित आकर्षक चार्ट बनाना भी अपने आप में एक समस्या का रूप लेता जा रहा हैं । इसको ध्यान में रखते हुए एक सकारात्मक सोच के साथ यह कहानी लिखी गई है। और खुशी है कि देवपुत्र बाल मासिक पत्रिका अंक जुलाई -2014 में इसको प्रकाशित किया है। )




गुल्लू के छोटे छोटे हाथ बड़े चंचल थे। तितली की तरह झूमते हुए चाहे जहां रंग –बिरंगे फूल बनाकर उसे प्यार से सहलाने लगते। माँ ने उसके लिए पोस्टर कलर रंगीन पेंसिलें और मोटी सी ड्राइंग बुक खरीद दी थी। उसके बनाये ,पेड़ ,चन्दा मामा ,चिड़ियाँ झांक झांक कर उससे बतियाते और गुल्लू की नीली –नीली आँखें खुशी से चमकने लगतीं ।

वह शाला जाने लगा पर जैसे ही समय मिलता उसकी उँगलियाँ पेंसिल लेकर छोटे –छोटे कागजों पर नाचना शुरू कर देतीं और सुंदर सा कोई चित्र बनाकर ही दम लेतीं।उसकी शिक्षिका जिन्हें सब बच्चे कला दीदी कहा करते थे उनको लेकर कक्षा में बोर्ड पर टाँकने लगतीं। सबसे कहतीं-देखो यह चित्र गुल्लू ने बनाया है। इससे दूसरे बच्चे भी अच्छी ड्राइंग करने की कोशिश करते ।
गुल्लू जब चौथी कक्षा में पहुंचा तो उसकी यह कला अपनी दीदी की पारखी आँखों से छिपी न रह सकी। वे बड़े स्नेह से बोली –गुल्लू ,हमें तुम सबको एक नया पाठ पढ़ाना है लेकिन उससे पहले उसके बारे में एक चार्ट बनाना होगा। क्या तुम घर से बना कर ला सकते हो ?
-हाँ दीदी ! गुल्लू ने झट से कह दिया क्योंकि वह सोचा करता उसकी माँ तो सब कर सकती है ।

माँ ने भी यह सोचकर चार्ट बना दिया कि इस बहाने दीदी उसके बेटे से खुश रहेंगी और उसका ध्यान रखेंगी । अगले दिन गुल्लू चार्ट शाला ले गया । दीदी ने उसकी तारीफ की तो उसे बड़ा अच्छा लगा । पर यह क्या अगले महीने फिर एक चार्ट उसे बनाने  को कह दिया गया और यह सिलसिला चलता ही रहा ।
कुछ माह बाद गुल्लू के घर में एक छोटी सी बहन आ गई । इससे माँ का काम बढ़ गया।
उस दिन गुल्लू चार्ट बनाने के लिए लाया । माँ ने कहा –बेटा ,तुम बनाने की कोशिश करो मुझे तुम्हारी बहन को दूध पिलाना है ।
-ओह माँ !मेरे से अच्छा नहीं बनेगा ।
-तुम बनाओ तो –फिर मैं तो हूँ तुम्हारी मदद को ।
गुल्लू जोश में आ गया और कुछ चार्ट उसने बनाया और कुछ माँ ने । शाला जाकर  चार्ट उसने दीदी जी को दे दिया । पर जैसे ही उन्होंने देखा बुरा सा मुंह बनाया और एक किनारे रख दिया । गुल्लू का  कोमल हृदय घायल हो गया । सारे दिन दीदी उससे नहीं बोली । उस दिन उसका मन पढ़ने में भी न लगा ।

घर जाते ही वह सुबक पड़ा –माँ –माँ मैं स्कूल नहीं जाऊंगा । दीदी जी मुझसे गुस्सा है ।
-अच्छे बच्चे ऐसा नहीं कहते । कल हम तुम्हारे साथ शाला जाएंगे और दीदी जी को मना लेंगे ।
शाला में घुसते ही उनका सामना प्राचार्या अर्थात बच्चों की बड़े दीदी से हो गया। वे चौंकते हुए बोलीं –अरे गुल्लू अपनी माँ के साथ आए हो !शाला बस से नहीं आए।  तुम्हारी तबियत तो ठीक है ?
-दीदी , यह तो आज आना ही नहीं चाहता था ।
-क्या बात है गुल्लू –हम खराब हैं या शाला खराब है ।
-मेरा चित्र खराब है ।
-तो लाओ ,उसे अच्छा कर देते हैं ।
-बड़ी दीदी , माँ का बना चार्ट कला दीदी को पसंद आता था पर मैं माँ की तरह नहीं बना सकता । वे मुझसे गुस्सा हो गई है । जब से मेरी छोटी बहन आई है मेरा सारा काम बिगाड़ दिया । हमेशा माँ को अपने काम बताती रहती है । माँ भी थक जाती है । पर मैं दीदी को कैसे खुश करूँ।
उसकी भोली बातों पर मैडम हंस पड़ी और बोलीं –चलो हमारे साथ –तुम्हारी दीदी  जी को खुश करते हैं और अपनी माँ को जाने दो । तुम्हारी बहन वहाँ अकेली है ।
 -हाँ माँ तुम जाओ । मेरी तरफ से भी उसे प्यार कर देना ।

गुल्लू के साथ बड़ी दीदी उसकी क्लास में पहुंची । कक्षा बहुत स्वच्छ और करीने से लगी हुई थी । एक चार्ट की ओर इशारा करते हुए बड़ी दीदी ने कहा –वाह !बहुत सुंदर !यह किसने बनाया है ।
-बड़ी दीदी जी ये मेरे ड्राइंग सर ने बनाया है जो घर पर आते हैं । एक छात्र बोल उठा ।
-और यह दूसरा भी कमाल का है ।
-यह तो बहुत बड़े चित्रकार ने बनाया है और इसके बदले उन्होंने पूरे 200 रुपए लिए।  दूसरा छात्र बोला।
बड़ी दीदी चकित थीं और कला दीदी के दिमाग में छा गया सन्नाटा।
-मैंने तो  कभी सोचा भी न था  कि चार्ट के कारण ऐसे –ऐसे रंग देखने पड़ेंगे  ,इससे तो अच्छा था मैं ही बना लेती। दीदी  के स्वर में पछतावा था ।
-तुमने ठीक कहा ,मगर 4-5 बच्चों का समूह बना कर कक्षा में ही  बारी –बारी से उनसे सहायता ले सकती हो । यह कहकर बड़ी दीदी मुस्कराती हुई वहाँ से चल दीं।
 
कला दीदी ने समूह में गुल्लू का नाम भी रखा। यह जानकर वह तो उछल पड़ा –आह !दीदी जी,अब आप मुझसे गुस्सा तो नहीं।
कला दीदी एक मिनट तो उसकी बात नहीं समझीं फिर अचानक उन्हें अपना वह व्यवहार याद आया जो चार्ट पसंद न आने पर उन्होंने उसके साथ किया था । वे अंदर ही अंदर शर्मिंदा हो उठीं और उसका हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं –गुल्लू हम किसी से गुस्सा नहीं होते हैं ,सबको प्यार करते हैं ।
-मुझको भी !
-हाँ तुमको भी ।
 दीदी  के उमड़ते अनुराग को अनुभव कर गुल्लू का उदास चेहरा अनोखी चमक से झिलमिला उठा और शाला के कार्यों में बड़े उत्साह से भाग लेने लगा ।


गुरुवार, 12 जून 2014

लोककथा


गुस्सैल सँपेरा /सुधा भार्गव 

यह कथा शबरी शिक्षा समाचार जून 2014,वर्ष 16,अंक 06 में 
प्रकाशित हो चुकी  है । 


एक सँपेरा  था । वह साँप का तमाशा दिखाया करता । उसने एक बंदर भी पाल रखा था जो तमाशे के बीच नाचता ,सीटी बजाता और सलाम करके सबसे पैसे लेता। 
एक बार शहर में  पाँच दिनों का बड़ा सा मेला लगने वाला था । सँपेरा साँप की पिटारी लेकर बीन बजाता नगर की ओर चल दिया और बंदर को अपने मित्र के पास छोड़ दिया । मित्र बंदर का बहुत ध्यान रखता । पहले उसको खाने को देता फिर खुद खाता।

-इतना ध्यान तो मेरा सँपेरा भी नहीं रखता है ,मुझे भी इसके लिए कुछ करना चाहिए।
 यह सोचकर बंदर भी बगीचे से आम तोड़कर उसके लिए लाने लगा।

पांचवें दिन सँपेरा मेले से लौटा । उसने तमाशा दिखाकर काफी धन कमा लिया था पर थका –थका सा था । उसने मित्र का धन्यवाद किया और बंदर को लेकर बाग में थोड़ा आराम करने के लिए चल दिया । बंदर को भूख लगी और उसने सँपेरे से खाने को मांगा । झुंझलाकर सँपेरे ने डंडी से उसकी पिटाई कर दी । दुबारा खाने को मांगा तो रस्सी से उसे बांध दिया और सो गया। बंदर ने किसी तरह मुंह से रस्सी की गांठें खोली और अपने को आजाद किया।  वह उछलकर आम के पेड़ पर जा बैठा और रसीले आम खाने लगा।

सँपेरे की  आँख खुली तो उसने बंदर को अकेले –अकेले आम खाते देखा । वह समझ गया कि बंदर उससे गुस्सा है क्योंकि रोज तो वह एक खाता था तो दूसरा उसके लिए नीचे गिरा देता था।   
उसने बहलाने की गरज से कहा –बंदर बाबू तुम बहुत सुंदर  हो और जब गुस्सा होकर गाल फुलाते हो तो और भी सुंदर लगते हो।

-बस ज्यादा चापलूसी न कर। कभी किसी ने बंदर को सुंदर कहा है ?मेले में जाकर दो पैसे क्या कमा लिए तुझे तो घमंड होगया और मुझ पर हाथ उठा दिया । तूने मुझ भूखे को मारा ---क्या कभी भूल सकता हूँ । अब न मैं तुझे आम दूंगा और न तुझ जैसे  गुस्सैल और मतलबी से  दोस्ती रखूँगा।

शांत न रहने से सँपेरा अपना धीरज खो बैठा और अपनी मदद करने वाले मित्र को भी खो दिया।